भारंगम 2020: अवधी भाषा में दूसरी जलियांवाला घटना को जीवंत करता नाटक 'मुंशीगंज गोलीकांड उर्फ मूक बलिदान'
By धीरज पाल | Published: February 20, 2020 01:07 PM2020-02-20T13:07:15+5:302020-02-20T13:07:15+5:30
दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इस साल 21वें भारत रंग महोत्सव में नाटक 'मुंशीगंज गोली कांड उर्फ मूक बलिदान' की प्रस्तुति की गई। इस ऐतिहासिक घटना को जलियांवाला घटना के नाम से जाना जाता है।
नाटक- मुंशीगंज गोलीकांड उर्फ मूक बलिदान
नाटककार- शेषपाल सिंह 'शेष'
निर्देशक- आतमजीत सिंह
समूह- व्यक्तिगत प्रस्तुति, लखनऊ
भाषा- अवधी
अवधि- 1 घंटा 30 मिनट
भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान कई ऐसी ऐतिहासिक घटनाएं दर्ज हैं, जिनके बारे में सुनकर या पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। घटनाएं चाहे देश की आजादी के लिए हो या अंग्रेजों का किसानों, गरीबों और मजदूरों पर ढहाये जुल्म की हो। किसानों पर ढहाए जुल्म की एक ऐसी ही ऐतिहासिक घटना को जीवंत करता है अवधी नौटंकी 'मुंशीगंज गोली कांड उर्फ मूक बलिदान'। मुंशीगंज को दूसरी जलियांवाला घटना के नाम से भी जाना जाता है।
दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में इस साल 21वें भारत रंग महोत्सव में नाटक 'मुंशीगंज गोली कांड उर्फ मूक बलिदान' की प्रस्तुति की गई। व्यक्तिगत प्रस्तुति, लखनऊ समूह की ओर से प्रस्तुत किये गए इस नौटंकी को शेषपाल सिंह 'शेष' ने लिखा है और इसका निर्देशक वरिष्ठ रंगकर्मी आतमजीत सिंह ने किया। लोक भाषा अवधी में इसे प्रस्तुत किया गया।
'मुंशीगंज गोलीकांड उर्फ मूक बलिदान' के बारे में
यह नाटक साल 1920 में अंग्रेजी हुकुमत द्वारा साई नदी के पास मुंशीगंज में इकट्ठा हुए सैकड़ों किसानों पर बरसाई गई गोली पर आधारित है। जिसमें सैकड़ों किसानों की जान चली गई थी। दरअसल, 1886 में ब्रिटिशों ने अवध रैंट एक्ट लागू किया था। इस कानून के तहत राजाओं और ताल्लुकदारों को किराया वसूलने का अधिकार मिल गया था। क्योंकि उनका कर-संग्रह मनमाना था इसलिए गरीब किसानों ने इस वसूली का विरोध किया। यह आंदोलन बाबा रामचंद्र की अगुवाई में रायबरेली, बाराबंकी, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़ और फैल गया था।
बाबा रामचंद्र के बाद इस आंदोलन की कमान बाबा जानकी दास के हाथ में आई, उस दौरान वे अपने साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिए। वहीं, इधर किसानों ने बाबा जानकी और साथियों को गिरफ्तारी से छुड़ाने के लिए साई नदी के क्षेत्र में मुंशीगंज में इकट्ठा हुए थे। जहां राजाओं और अंग्रेजी हुकुमत ने इन किसानों पर गोलियां बरसाईं और इस गोलाकांड में सैकड़ों किसानों की मौत हो गई।
इतना ही नहीं किसानों का समर्थन करने आए पंडित जवाहरलाल नेहरू को नजरबंद कर लिया गया। वहीं कमिश्नर कर्नल फाउंटरे ने इस घटना को गंभीरता को लेते हुए घायलों को भी गोली मारने का आदेश दे दिया। ताकि वे इस नरंसहार के गवाह न बन सके। कुछ मृतकों को इक्का तांगे में लादा गया और रातों रात डालमऊ की गंगा नदी में डुबो दिया गया। बाकी लाशों को मुंशीगंज के चार बड़े गड्ढों में दफ्न कर दिया गया।
लोक गायन के जरिए नाटक की विशेष प्रस्तुति
नक्कारा, हारमोनियम और ढोलक की धुन इस नाटक में चार चांद लगाते हैं। नाटक में एक आंदोलन को पनपते हुए बखूबी तरह से दिखाया गया है। कलाकारों ने लोक भाषा अवधी में गायन के जरिए ब्रिटिश शासन, रजवाडों की बर्बरता और किसानों पर अत्याचार के दृश्यों को बेहद ही खूबसूरत तरीके से मंचन किया गया। करीब दो घंटे के इस नाटक ने दर्शकों को बांधे रखा। नाटक के बीच-बीच में कुछ अवधी मुहावरों और लोक गीत को बखूबी ढंग से प्रस्तुत किया गया है जो लोक भाषाओं की याद ताजा रखता है। जैसे- जबरा मारे रोवे ना दें...
नाटक में संदीप कुमार, सौरभ कुमार मिश्र, विकेश बाजपयी, हर्ष जग्गी, अक्षत सुनील समेत अन्य कलाकारों ने शानदार किरदार निभाया। वहीं, हारमोनियम पर जुबैर, नक्कारा पर मोहम्मद सिद्धकी, ढोलक पर मोहम्मद इमरान थे।