महाराष्ट्र: कोरोना वायरस के चलते बाजार में मंदी, केले के पत्ते तक नदारद, श्रावणोत्सव में कमाने वाली महिलाएं इस बार बेकार
By शिरीष खरे | Published: August 2, 2020 01:19 PM2020-08-02T13:19:46+5:302020-08-02T13:21:41+5:30
आषाढ़ महीने के अंत से गणेशोत्सव तक अकेले ठाणे जिले के ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में आठ से दस लाख केले के पत्ते भेजे जाते हैं. लेकिन, इस बार माहौल पूरी तरह से अलग है.
मुंबई: परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण महाराष्ट्र के सुदूर इलाकों से मुंबई जैसे महानगर के बाजारों तक कई तरह के उत्पाद नहीं पहुंच पा रहे हैं. वहीं, कोरोना के डर और लॉकडाउन के चलते बाजारों पर मंदी का साया साफ दिख रहा है. इसका बुरा असर मौसम के मुताबिक उत्पाद बेचकर मामूली आमदनी करने वाले मेहनतकश तबके पर भी पड़ा है. इससे मुंबई व उपमहानगरीय क्षेत्र से जुड़ी ग्रामीण आबादी भी प्रभावित हुई है. इनमें ऐसी कई आदिवासी महिलाएं भी हैं जो इन्हीं दिनों केले के पत्तों को थोक बाजार में बेचा करती थीं. वे इससे हासिल कमाई का पैसा अपने पास बचत के रुप में रखती थीं. देखने में छोटी नजर आने वाली यह बचत उन्हें साल भर कई जरुरी चीजों को खरीदने में सहायक होती थी. लेकिन, इस साल वे ऐसा करने में असमर्थ पा रही हैं.
दरअसल श्रावण महीने के दौरान आयोजित त्योहार, समारोह और धार्मिक कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण माने जाने वाले केले के पत्ते इस साल गायब हो गए हैं. जबकि, पिछले वर्षों में मुंबई और ठाणे के शहरी बाजारों में कसारा, शाहपुर, खर्डी और अटगांव क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं केले की पत्तियां लेकर बेचने के लिए लाती रही हैं. लेकिन, इस साल इन महिलाओं को लोकल सेवा बंद होने के कारण मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. परिवहन सुविधाओं की कमी की वजह से वे अपने इलाकों से बाहर नहीं निकल पा रही हैं. लिहाजा, महानगर क्षेत्र के बाजारों तक पर्याप्त मात्रा में केले के पत्ते नहीं पहुंच पा रहे हैं.
केले के पत्तों पर भोजन करना लाभदायी
इस बारे में केले के पत्ते बेचने वाली एक आदिवासी महिला सखुबाई हिलम कहती हैं, 'बिना रेल के हम लंबी दूरी तक माल नहीं ढो सकते. प्राइवेट मिलेगा भी तो भाड़ा नहीं दे सकेंगे. यह साल हमारा ऐसे ही गया.' इस व्यवसाय से जुड़े व्यक्ति बताते हैं कि आमतौर पर धार्मिक गतिविधियों में पूजा के दौरान केले के पत्तों का उपयोग किया जाता है. इसके अलावा, कई आयोजनों में साज-सज्जा के लिए केलों के पत्तों की आवश्यकता होती है. ऐसी भी धारणा है कि केले के पत्तों पर भोजन करना स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायी होता है. इन्हीं के चलते परंपरागत रुप से श्रावण महीने में केले के पत्तों की खासी मांग रहती है.
वहीं, आषाढ़ महीने के अंत से गणेशोत्सव तक अकेले ठाणे जिले के ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में आठ से दस लाख केले के पत्ते भेजे जाते हैं. लेकिन, इस बार माहौल पूरी तरह से अलग है. इस बार केला के संकट और लंबे समय तक लोकल बंद रही है. इसलिए, परिवहन संबंधी बाधाओं के कारण केले के पत्ते बेचने वाली महिलाएं शहरों तक नहीं पहुंच पा रही हैं. नतीजन, इस बार केले के पत्तों से होने वाली कमाई से उन्हें हाथ धोना पड़ रहा है.
थोक बाजार में केलों के पत्तों बड़ी पैमाने पर खरीदी
बता दें कि शाहपुर के पास अटगांव (मध्य रेलवे स्टेशन) के नजदीक माऊली परिसर, अटगांव, खिर्डी और कसारा के अंतर्गत तानसा वैतरणा अभयारण्य क्षेत्रों में केलों के पत्तों की पैदावार होती है. हर साल जून के महीने में केले के पत्ते फूलते हैं. फिर जुलाई से शहरी क्षेत्रों में केलों की तरह ही केलों के पत्तों की मांग होती है और इसीलिए थोक बाजार में इनकी बड़ी पैमाने पर खरीदी होती है.
एक अन्य आदिवासी महिला श्रावणी वाख बताती हैं, 'हर साल जून के बाद हम तीन से चार महीने केले के पत्तों को बेचते हैं. इन दिनों हम बहुत कड़ी मेहनत करके पैसा कमाते हैं.' जाहिर है कि आदिवासी महिलाओं के लिए कुछ दिनों तक यह अतिरिक्त कमाई का सीजन होता है. इस दौरान वे दिन भर जंगल में जाकर केले के पत्ते तोड़कर लाती हैं और खुद बाजार तक जाकर बेचती हैं.
एक बंडल का वजन: 60 से 70 किलोग्राम
मुंबई और ठाणे से सुदूर क्षेत्र की अनेक आदिवासी महिलाएं सामान्यत: केले के 80 से 100 पत्तों का एक बंडल बनाती हैं. एक बंडल का वजन सामान्यत: 60 से 70 किलोग्राम होता है. ये महिलाएं अपने सिर पर बंडल लेकर चलती हैं. इसके बाद जंगल से कसारा, अटगांव, खिर्डी तथा आसनगांव रेलवे स्टेशनों तक पहुंचने के लिए पैदल ही चार से पांच किलोमीटर की दूरी तय करती हैं. यहां से इन्हें लोकल मिलती है. इसी से ये महिलाएं कल्याण और मुंबई तक यात्रा करती हैं.
प्रति वर्ष जुलाई से सितंबर तक केले के पत्ते के कारोबार में आठ से दस लाख रुपए का कारोबार होता है. देखा जाए तो छोटी लगने वाली यह राशि आदिवासी महिलाओं की गृहस्थी चलाने के लिए महत्त्वपूर्ण होती है. किंतु, इस वर्ष कोरोना संक्रमण के खतरे से बचने के लिए लागू लॉकडाउन के कारण कई आदिवासी महिलाओं ने जंगल जाने से भी परहेज किया है. दूसरी तरफ, आजीविका के लिए कुछ महिलाओं को मुंबई-नाशिक राजमार्ग पर पलघा, वासिंद, खडावली के नजदीक केले के पत्तों को बेचते हुए देखा जा सकता है.
कोरोना के डर के लिए नहीं छू रहे हैं केले के पत्तों
सखुबाई हिलम बताती हैं कि बहुत से लोग कोरोना के डर के लिए केले के पत्तों को भी नहीं छू रहे हैं. वहीं, कई आदिवासी महिलाएं इसी वजह से गांव के बाहर नहीं निकलना चाहती हैं. इसके पीछे वजह है कि कोरोना मुंबई और ठाणे में बहुत तेजी से फैल रहा है. ऐसे में यदि उन्हें लगता है कि वे किसी तरह मुंबई आई-गईं तो बीमार हो सकती हैं.
वहीं, श्रावणी वाख बताती हैं कि उनके क्षेत्र में धान की खेती और बागवानी के बाद केले के पत्तों की बिक्री को महत्त्व दिया जाता है. मतलब केले के पत्ते बेचना उनकी प्राथमिकता में दूसरे स्थान पर है. इस साल महामारी की स्थिति में ग्रामीण आदिवासी पूरी तरह खेती और बागवानी पर ही जोर दे रहे हैं. हालांकि, केले के पत्तों से उन्हें शहरी क्षेत्रों से जुलाई से सितंबर के बीच अच्छे पैसे मिल जाते थे. लेकिन, ऐसी हालत में गांव के अन्य लोग भी उन्हें शहर नहीं जाने के लिए कह रहे हैं. यही वजह है कि इस संकट में उनका घर से बाहर निकालना मुश्किल हो गया है. इस बारे में इसी व्यवसाय से जुड़ी अन्य महिलाएं भी बताती हैं कि कुछ जगहों पर ग्राम-प्रमुख ने उन्हें शहरी क्षेत्रों में जाने मना किया हुआ है.