गुजरात की जमीन पर सियासी हिस्सेदारी का सवाल, पाटीदार समाज का रहा है वर्चस्व
By महेश खरे | Published: May 5, 2019 07:40 AM2019-05-05T07:40:00+5:302019-05-05T11:18:18+5:30
गुजरात लोकसभा चुनावः राज्य में मुसलमानों की आबादी 10 फीसदी के लगभग है. कच्छ और अहमदाबाद में इनकी संख्या 20 प्रतिशत के करीब है. पाटीदारों का रहा वर्चस्व सियासी हिस्सेदारी और दबदबे में सदैव पाटीदारों का वर्चस्व रहा.
लोकसभा चुनाव में सामाजिक ताने बाने के दायरे में हर बार की तरह इस बार भी सियासी हिस्सेदारी की तलाश और जोड़तोड़ जारी रही. राज्य की राजनीति में पाटीदार समाज का वर्चस्व हमेशा से रहा है. शेष समाज और जातियां अपने संख्याबल के आधार पर सीटें पाने की जुगत भिड़ाती रहीं.
छह करोड़ की आबादी वाले गुजरात की जमीन पर हुए लोकसभा चुनाव में 4.47 करोड़ वोटर हैं. इनमें सबसे ज्यादा संख्या बल ओबीसी जातियों का 35 से 40 फीसदी है. क्षत्रिय तो ओबीसी का ही हिस्सा हैं और पाटीदार इससे बाहर. पाटीदारों ने जब आरक्षण आंदोलन छेड़ा तो उसमें मुख्य मांग ओबीसी कोटे में शामिल किए जाने की थी. इनकी आबादी भी 18 फीसदी के आसपास है.
आरक्षण आंदोलन में पाटीदारों ने सामाजिक स्तर पर अभूतपूर्व एकजुटता दिखायी. इसके बाद कोली पटेलों का नंबर आता है, जो संख्याबल में 15 फीसदी के लगभग हैं. दक्षिण गुजरात की सूरत और नवसारी और सौराष्ट्र की दो तीन सीटों पर तो इनका संख्याबल 20 फीसदी के करीब है. इसलिए भी इन क्षेत्रों में कोली समाज ने अपने समाज के उम्मीदवारों को टिकट देने की मांग भाजपा और कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष रखी थी. बाकी में ब्राम्हण, वैश्य, दलित और अल्पसंख्यक हैं.
राज्य में मुसलमानों की आबादी 10 फीसदी के लगभग है. कच्छ और अहमदाबाद में इनकी संख्या 20 प्रतिशत के करीब है. पाटीदारों का रहा वर्चस्व सियासी हिस्सेदारी और दबदबे में सदैव पाटीदारों का वर्चस्व रहा. गुजरात सरकार में हिस्सेदारी की बात करें तो डिप्टी सीएम के अलावा आधा दर्जन से अधिक मंत्री पाटीदार समाज के कोटे से हैं.
सामाजिक एकजुटता के कारण हर सरकार में पाटीदारों ने अपना वर्चस्व कायम रखा. आरक्षण आंदोलन के बाद अवश्य समाजिक एकता दरार दिखी लेकिन फिर भी सामाजिक मुद्दों पर आज भी समाज एकजुट है. हार्दिक, जिग्नेश, अल्पेश का प्रभाव गुजरात के राजनीतिक परिदृश्य में हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की सियासी जमीन भी सामाजिक और जातीय समीकरणों की वजह से ही तैयार हुई. इनको भाजपा और कांग्रेस दौनों ने ही महत्व दिया.
विधानसभा चुनाव में तो युवा नेतृत्व भी कांग्रेस की बढ़त का एक बड़ा कारण बना. इस बार अल्पेश का कांग्रेस से मोहभंग होने के पीछे जातिगत समीकरणों को ही माना जा रहा है. मुसलमानों की स्थिति गुजरात की सियासत में मुसलमानों की हिस्सेदारी गांव तक ही सीमति रही है.
1984 के बाद से गुजरात से एक भी सांसद लोकसभा में नहीं पहुंचा. उस समय भरूच से अहमद पटेल लोकसभा चुनाव जीते थे. इस बार भरूच से ही कांग्रेस ने एकलौता मुस्लिम प्रत्याशी उतारा है. भाजपा ने एक भी मुस्लिम को मौका नहीं दिया है.