लोकसभा चुनाव 2019: NDA सरकार से दलित युवा नाराज, बिखर सकता है रामविलास का पासवान वोटबैंक
By निखिल वर्मा | Published: April 30, 2019 02:26 PM2019-04-30T14:26:53+5:302019-04-30T14:35:22+5:30
लोकसभा चुनाव 2019 में बिहार में पासवान वोटों में बिखराव हो सकता है। अलग-अलग सीटों पर दलित युवा अपने विवेक से प्रत्याशियों के समर्थन का फैसला ले रहे हैं। दलित युवाओं में प्रमोशन में आरक्षण, एससी-एसटी एक्ट और रोजगार जैसे कई मुद्दों को लेकर गहरी नाराजगी है।
बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान की पहचान ऐसी शख्सियत के रूप में है जो राजनीतिक हवा का रुख भांपने में माहिर हैं। करीब 50 साल पहले अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत करने वाले पासवान ने लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) की स्थापना साल 2000 में की थी। इस पार्टी का सबसे बड़ा वोट बैंक दलितों में पासवान है।
1969 के बाद पहली बार रामविलास पासवान कोई चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। एनडीए गठबंधन में शामिल उनकी पार्टी एलजेपी बिहार की छह सीटों पर चुनाव लड़ रही है। हाजीपुर से पासवान के भाई पशुपति पारस, जमुई से बेटा चिराग और समस्तीपुर से उनके छोटे भाई रामचंद्र पासवान मैदान में हैं।
पासवान वोटों पर पकड़ टूटी!
लोकसभा चुनाव 2019 में बिहार में पासवान (दुसाध) वोटों में बिखराव हो सकता है। अलग-अलग सीटों पर दलित युवा अपने विवेक से प्रत्याशियों के समर्थन का फैसला ले रहे हैं। दलित युवाओं में प्रमोशन में आरक्षण, एससी-एसटी एक्ट और रोजगार जैसे कई मुद्दों को लेकर गहरी नाराजगी है। इसका असर बीजेपी और एलजेपी दोनों के वोटों पर पड़ सकता है।
बेगूसराय में कई दलित युवा बीजेपी को हराने के लिए सीपीआई उम्मीदवार कन्हैया कुमार के समर्थन में थे। बेगूसराय के पोखरिया इलाके के रहने वाले दलित युवा सूरज आशीष पासवान जाति से आते है, ऑटो चलाते हैं। उनके पिता सीपीआइ के कार्ड होल्डर हैं लेकिन सूरज ने 2014 में भाजपा को वोट दिया था। लोकमत से बातचीत में सूरज बताते हैं, “नरेंद्र मोदी ने हम में एक उम्मीद जगाई थी। हमें लगा था कि रोजगार मिलेगा और देश के हालात सुधरेंगे। लेकिन सारी उम्मीदें चकनाचूर हो गईं।
गोपालगंज सुरक्षित सीट पर आरजेडी, जेडीयू और बीएसपी के बीच त्रिकोणीय मुकाबला है। गोपालगंज के रहने वाले रंजय पासवान सोशल मीडिया में काफी सक्रिय हैं। रंजय 'Activist Ranjay' के नाम से यू-ट्यूब चैनल चलाते हैं। वो यहां बीएसपी प्रत्याशी कुणाल किशोर विवेक का समर्थन कर रहे हैं।
लोकमत से बातचीत में रंजय कहते हैं, "बाबा साहेब के सपनों को बीएसपी ही पूरा कर सकती है। 18 अप्रैल को बसपा प्रमुख मायावती की रैली में जितनी भीड़ आई थी, उसका एक चौथाई हिस्सा भी 22 अप्रैल को आरजेडी नेता तेजस्वी यादव की रैली में नहीं आई।" वे बताते हैं कि इस सीट पर बीजेपी को हार का डर था, इसलिए एनडीए ने जेडीयू के आलोक कुमार सुमन को टिकट दे दिया।
हाजीपुर में साख दांव पर
हाजीपुर से रामविलास ने 1977 में पहला संसदीय चुनाव लड़ा था जिसमें उन्होंने 4.25 लाख रिकॉर्ड वोटों से जीत हासिल की थी। अब तक आठ बार पासवान यहां से सांसद चुने जा चुके हैं। इस बार रामविलास के भाई और बिहार सरकार में मंत्री पशुपति पारस एलजेपी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं।
हाजीपुर के सुलतानपुर ग्राम में रहने वाले दलितों के बीच एनडीए के खिलाफ गुस्सा है। लोकमत से बातचीत में यहां के स्थानीय लोग कहते हैं, रामविलास लड़ते तो वोट दे ही देते लेकिन किसी दूसरे को नहीं देंगे।
दलित-महादलित का खेल
2011 के जनगणना के अनुसार बिहार में दलितों की आबादी 15.7 फीसदी है। बिहार में सबसे ज्यादा करीब 4.5 फीसदी दलित दुसाध यानि पासवान हैं। बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने बिहार में दलितों से अलग कर महादलित वर्ग तैयार किया था।
नीतीश कुमार ने पासवान जाति को छोड़कर दलित मानी जाने वाली अन्य 21 उपजातियों के लिए 'महादलित' कैटगरी बनाकर उन्हें कई सहूलियतें दी थीं। इसी समीकरण के चलते लोकसभा चुनाव 2009 में एलजेपी का सूपड़ा साफ हो गया था।
दलितों के भी कई नेता
बिहार में उत्तर प्रदेश की तरह दलितों का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। सभी दलित जातियों के अपने नेता हैं और कोई एनडीए में है तो कोई महागठबंधन में। एनडीए में शामिल पासवान दुसाध जाति से हैं जबकि महागठबंध में शामिल जीतनराम मांझी दलितों में सबसे पिछड़े मुसहर जाति से हैं। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी पासी (ताड़ी बेचने वाले) समुदाय से हैं जबकि श्याम रजक धोबी समुदाय से हैं।
रामविलास का राजनीतिक सफर
लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामविलास पासवान बिहार के खगड़िया जिले के शहरबन्नी गांव में जन्मे हैं। कांग्रेस के खिलाप संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) के टिकट पर पासवान 1969 में अलौली विधान सभा क्षेत्र से विधायक चुने गए।
1975 की इमरजेंसी में जेल गए, 15 महीने जेल में रहने के बाद जब छूटे तो 1977 में हाजीपुर संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा और रिकॉर्ड मतों से जीत हासिल की। पहली बार 1989 में केन्द्र में मंत्री बने थे। इस समय उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय का जिम्मा उनके पास है।
बिहार में नहीं बना पाए राजनीतिक जमीन
बिहार के दिग्गज नेता रहे जगजीवन राम के बाद रामविलास पासवान के पास उत्तर भारत के दलितों का सर्वमान्य नेता का अवसर था। लेकिन उनसे एक दशक बाद राजनीति शुरू करने वाले मान्यवर कांशीराम और बीएसपी प्रमुख मायावती आगे निकल गईं।
बिहार में लोजपा ने अपने गठन के बाद पहली दफा लोकसभा चुनाव 2004 में उम्मीदवार खड़े किए थे। पासवान सहित चार सांसद चुने गए थे। अगले साल बिहार विधानसभा के 2005 के चुनाव में 29 विधायक जीते थे। इसके बाद से ही एलेजपी का ग्राफ लगातार गिरता रहा है।
उनकी पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव में 6.4 फीसदी मत मिले थे, जो बिहार विधानसभा चुनाव 2015 में घटकर 4.8 फ़ीसदी रह गया। रामविलास पासवान अपने राज्य में भी दलितों के नेता नहीं बन पाए। लोकसभा चुनाव 2019 का चुनाव उनकी पार्टी और परिवार किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं है।