किस्सा किस्सा लखनउवा: अवामी कम दरबारी किस्से ज्यादा, उर्दू के ओवरडोज से ऊब सकते हैं हिन्दुस्तानी पाठक

By रोहित कुमार पोरवाल | Published: June 15, 2019 03:21 PM2019-06-15T15:21:46+5:302019-06-15T15:41:15+5:30

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की सरजमी पर कभी जीवंत रहे किरदारों को युवा लेखक हिमांशु बाजपेई ने अपनी किताब 'किस्सा किस्सा लखनउवा' में उकेरने की कोशिश की है।

Kissa Kissa Lakhnauaa Book Review: Here is why Readers should read Himanshu Bajpai Stories on Lucknow | किस्सा किस्सा लखनउवा: अवामी कम दरबारी किस्से ज्यादा, उर्दू के ओवरडोज से ऊब सकते हैं हिन्दुस्तानी पाठक

युवा लेखक हिमांशु बाजपेई की किताब 'किस्सा किस्सा लखनउवा' लखनऊ शहर से जुड़े लोगों पर आधारिक पुस्तक है।

हमारे गांव में एक आनंदी बाबा थे। हम उन्हें हमेशा अनंदी बाबा बुलाते थे। किस्सा खूब सुनाते थे। बचपन के वो दिन अब भी याद हैं जब आनंदी बाबा सर्दियों के दिनों में अलाव तापते वक्त किस्से-कहानियां सुनाते थे और हम बच्चे उनका खूब लुत्फ लेते थे। कभी-कभी लुत्फ हमें लोटपोट कर देता था या भावुक कर देता था। मतलब, उनके किस्से बाल मन में ठहर जाते थे और उनमें से कई आज भी याद हैं। अच्छा, हर किस्से में कोई न कोई संदेश छिपा रहता था और आनंदी बाबा किस्सा खत्म होने पर उसे उकेर भी देते थे।

युवा लेखक हिमांशु बाजपेयी की किताब 'किस्सा किस्सा लखनउवा का टाइटल पढ़ते वक्त भी मुझे वैसी ही किस्सागोई की उम्मीद थी। किताब में पप्पू खां के किरदार वाले पहले किस्से ने यह उम्मीद बनाए रखी लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ा वह धराशायी होने लगी।

पहले किताब की नाकारात्मक बातें 

खूबसूरत और दिलचस्प शीर्षक वाली किताब के ज्यादातर किस्से प्रोफाइलिंग में दम तोड़ते नजर आए।

प्रोफाइल बताना अच्छी बात है लेकिन किस्सा उसी में खत्म होने जैसा लगे तो वह किस्सा नहीं रह जाता।

किताब के कवर पर लिखा गया है- 'लखनऊ के अवामी किस्से।' मुझे ये आवामी कम, दरबारी किस्से ज्यादा लगे।

किस्से लखनऊ के हैं तो इसका मतलब यह नहीं उन्हें हिंदुस्तानी जबान में लिखा या बयां नहीं किया जा सकता है। मेरी व्यक्तिगत समझ कहती है कि बाजपेयी जी ने किस्सों में उर्दू का बेजा इस्तेमाल किया है। ऐसा लगता है कि जैसे यह किताब उर्दू में पीएचडी कर रहे या कुछ विशेष उर्दू पाठकों के लिए लिखी गई हो क्योंकि इतनी उर्दू तो लखनऊ के आमजनमानस में भी चलन में नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि समझने लायक भाषा में किस्सों की तासीर खत्म हो जाती, बल्कि वे और रोचक लगते।

यह दावा नहीं किया जा सकता है कि इन किस्सों को पढ़ लेने के बाद आप लखनऊ को सही से जान लेंगे।

किताब की सकारात्मक बातें

कुछ किस्से आवामी और दिलचस्प लगे जैसे कि 'तुम्हारे बस की नहीं!', लखनऊ के रिक्शेवाले', 'किस्सा सब्जी वालों का', 'किस्सा हिंदू मौलवी का', 'हकीम बन्दा मेहदी का करिश्माई पुलाव', 'पहले आप और रेल का सफर', 'आरजू है मौज के साहिल से टकराने का नाम', 'असहमति के सम्मान की पराकाष्ठा मुद्राराक्षस'।

'विलायत खां ने गन्ने का रस बेचा' और 'मरना है, तो तान पूरी करके मरो' किस्से भी दिलचस्प लगे।

ये किस्से दिलचस्प तो हैं ही, साथ ही सही से पढ़ लेने पर इनका नैतिक संदेश भी स्पष्ट होता है जो शख्सियत को निखारने में सहायक हो सकता है।

लखनऊ के खानदानी संगीत घराने से जुड़े कलाकारों के बारे में जानकारी मिलती है और उनकी प्रतिभा से भी रूबरू होते हैं। 

बाजपेयियों के बारे में एक दिलचस्प किस्सा है। 

किताब का कवरपेज किसी को भी इसे उठाने के लिए मजबूर कर सकता है।

तकनीकी गलती

दो अलग-अलग किस्सों में एक ही टाइटल दिया गया है। वह है- 'हश्र में भी खुसरवाना शान से जाएंगे हम'।

चूंकि, किसी किताब को उठाने पर उसे पूरा पढ़ लेने की मेरी आदत है तो मैं इसे पढ़ गया। तमाम खामियों के बावजूद भी कुछ किस्से मुझे रोचक लगे लेकिन उनमें बलबलाती उर्दू ने मजा किरकिरा कर दिया। कायदे से बाजपेयी जी को पुस्तक के कवर या कहीं पर यह साफ कर देना चाहिए था कि उर्दू का इस्तेमाल कितना है।

Web Title: Kissa Kissa Lakhnauaa Book Review: Here is why Readers should read Himanshu Bajpai Stories on Lucknow

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