'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'करो या मरो' जैसे नारों से एकजुट हुए थे लोग, जानिए स्वतंत्रता संग्राम के इन नारों का इतिहास

By मेघना सचदेवा | Published: August 11, 2022 11:57 AM2022-08-11T11:57:53+5:302022-08-11T11:58:23+5:30

भारत की आजादी के लिए लोगों को एकजुट करने में कई जोशीले नारों ने भी बड़ी अहम भूमिका निभाई। जय हिंद, करो या मरो या तुम मुझे खून दो..मैं तुम्हें आजादी दूंगा जैसे नारों के पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है।

Independence Day: ‘Jai Hind’ and 'Do or Die' , know the history of these popular slogans | 'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'करो या मरो' जैसे नारों से एकजुट हुए थे लोग, जानिए स्वतंत्रता संग्राम के इन नारों का इतिहास

'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'करो या मरो' जैसे नारों से एकजुट हुए थे लोग, जानिए स्वतंत्रता संग्राम के इन नारों का इतिहास

Highlightsनेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के अभिवादन के लिए जय हिंद का इस्तेमाल किया था।'वंदे मातरम' नारे को बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के गीत ले लिया गया, बाद में ये गीत राष्ट्रीय गीत बनाया गया।8 अगस्त 1942 में महात्मा गाधी ने मुंबई में लोगों को संबोधित करते हुए करो या मरो का मंत्र दिया।

अंग्रेजों से आजादी के लिए भारत में कई आंदोलन हुए। इन आंदोलनों में जोश से भर देने वाले नारों का भी इस्तेमाल हुआ। चाहे 'जय हिंद' की बात कर ली जाए या 'वंदे मातरम'....ये नारे न सिर्फ आम जनता को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ एकजुट करने का जरिया बने बल्कि इन्ही नारों ने भारत की राजनीति भी बदल कर रख दी। इनमें से कई नारों का इस्तेमाल तो पिछले कुछ सालों में भी खूब हुआ है। इन नारों का इतिहास क्या है इन्हें किसने बनाया और कब-कब इनका इस्तेमाल हुआ, जानिए

'जय हिंद' -  नेताजी सुभाष चंद्र बोस 

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सैनिकों के अभिवादन के लिए जय हिंद का इस्तेमाल किया था। हालांकि कुछ जानकार मानते हैं कि ये नारा नेताजी ने सबसे पहले नहीं दिया था।

इंडियन एक्स्प्रेस ने अपनी एक रिपोर्ट में 2014 की किताब 'लेन्जेनडोट्स ऑफ हैदराबाद' का हवाला देते हुए बताया है कि सिविल सेवा में रहे नरेंद्र लूथर के अनुसार यह नारा हैदराबाद के एक कलेक्टर के बेटे जैन उल आबिदीन हसन ने सबसे पहले इस्तेमाल किया था। हसन अध्ययन करने के लिए जर्मनी गए थे। वहां उनकी बोस से मुलाकात हुई। उस वक्त हसन ने आईएनए में शामिल होने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी। उनके भतीजे अनवर अली खान ने बाद में इस बारे में लिखा कि खान को बोस द्वारा आईएनए के सैनिकों के लिए एक सैन्य अभिवादन देखने का काम सौंपा गया था। जिसके बाद उन्हें एक नारा देना था जो जाति या समुदाय विशिष्ट नहीं था।

नरेंद्र लूथर की किताब में इस बात का भी जिक्र है कि हसन ने शुरुआत में हेलो को अभिवादन के तौर पर इस्तेमाल करने की बात कही लेकिन नेताजी ने उस पर सहमति नहीं जाहिर की। अनवर अली खान के मुताबिक हसन को 'जय हिंद' का विचार तब आया जब वो जर्मनी में थे। उस दौरान उसने दो राजपूत सैनिकों को जय रामजी की के नारे बोलते हुए सुना। इससे उनके दिमाग में पहले 'जय हिंदुस्तान' की का विचार आया और फिर इसे जय हिंद कर दिया गया। जय हिंद का अर्थ होता है 'लॉन्ग लिव इंडिया'। 

'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आजादी दूंगा'- नताजी सुभाष चंद्र बोस 

'सुभाष चंद्र बोस'- राष्ट्रवादी और कमांडर, किताब के अनुसार इस नारे का इतिहास 4 जुलाई 1944 से जुड़ा है। नेताजी ने म्यांमार में एक भाषण दिया था। नेताजी ने अपने भाषण में कहा था कि अंग्रेज एक विश्वव्यापी संघर्ष में लगे हुए हैं इस संघर्ष के दौरान उन्हें कई मोर्चों पर हार का सामना करना पड़ा है। उन्होंने कहा कि दुश्मन काफी कमजोर हो गया है जिससे स्वतंत्रता के लिए हमारी लड़ाई पांच साल पहले की तुलना में आसान हो गई है। आगे उन्होंने कहा कि ऐसा अवसर सदी में एक बार आता है। पूर्वी एशिया में भारतीयों के लिए एक आधुनिक सेना बनाने के लिए हथियार प्राप्त करना संभव हो गया है।

उन्होंने कहा आज मैं आपसे एक चीज की मांग करता हूं । मैं आपसे खून की मांग करता हूं। यह खून ही है जो दुश्मन द्वारा बहाए गए खून का बदला ले सकता है, जो आजादी की कीमत चुका सकता है 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा'। 

'वन्दे मातरम्'-  बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय

इस नारे का मतलब है मातृभूमि के लिए सम्मान की भावना। 1870 में बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने एक गीत लिखा जिसे काफी सराहा गया हालांकि इसी गीत को सांप्रदायिक रूप से अलग करने वाले गीत के तौर पर भी देखा गया। वहीं, स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वंदे मातरम के कुछ हिस्सों का इस्तेमाल काफी हुआ। 

जानकारी के मुताबिक ब्रिटिश राज खत्म होने के बाद इसे राष्ट्रगान बनाने को लेकर विवाद हुआ लेकिन बाद में वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत बनाया गया। 

'इंकलाब जिंदाबाद'- मौलाना हसरत मोहानी 

इंकलाब जिंदाबाद का सबसे पहले इस्तेमाल 1921 में मौलाना हसरत मोहानी ने किया था। मोहानी का जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहन नाम के कस्बे में हुआ था। वो एक क्रांतिकारी उर्दू कवि के रूप में जाने गए हैं। हसरत नाम ही उनकी राजनीतिक पहचान बन गई थी। वो 1925 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे।

भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन में भी शामिल होने के बाद मोहानी ने 1921 में पहली बार कांग्रेस के अहमदाबाद सत्र में पूर्ण स्वराज की मांग उठाई। बाद में उन्हें संविधान सभा का सदस्य चुना गया। इंकलाब जिंदाबाद का नारा देने के पीछे उनका मकसद था सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को दूर करना और और उनके खिलाफ लड़ना। 

1920 के दशक से ही यह नारा भगत सिंह और हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की तरफ से इस्तेमाल किया जाने लगा। भगत सिंह ने सदियों पुरानी भेदभावपूर्ण प्रथाओं को तोड़ने के लिए एक सामाजिक क्रांति का भी आह्वान किया। 8 अप्रैल 1929 को जब उन्होंने और बटुकेश्वर दत्त ने विधानसभा में बम गिराए तो जमकर इन नारों की गूंज सुनाई पड़ी। 

'सरफरोशी की तमन्ना'- बिस्मिल अजीमाबादी

'सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है, देखना है जोर कितना बाजू ए कातिल में है'। पंजाब के अमृतसर में 1921 के जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद बिहार के एक स्वतंत्रता सेनानी और कवि बिस्मिल अजीमाबादी की कविता की ये पहली दो लाइन हैं। हालांकि इन लाइनों को क्रांतिकारी राम प्रसाद बिस्मिल ने लोकप्रिय बनाया। बिस्मिल एक उर्दू कवि और क्रांतिकारी थे। वो काकोरी ट्रेन डकैती की घटना में भी शामिल थे। काकोरी कांड एक ऐसा ऑपरेशन था जिसमें ब्रिटिश सामान और धन से भरी एक ट्रेन को आजादी के लिए लड़ने वालों ने हथियार खरीदने के लिए लूट लिया था।

'करो या मरो' - महात्मा गांधी

भारत छोड़ो आंदोलन के पीछे की सबसे बड़ी वजह थी 1942 का ही क्रिप्स मिशन। जैसे जैसे दूसरे विश्व युद्ध के हालात बन रहे थेए वैसे-वैसे ही परेशान ब्रिटिश हुकूमत को भारतीयों के सहयोग की जरूरत भी महसूस होने लगी थी। इसी को ध्यान में रखते हुए मार्च 1942 में स्टैफ़ोर्ड क्रिप्स ने एक विशेष योजना बनायी जिसे क्रिप्स मिशन नाम दिया गया।

स्टैफोर्ड क्रिप्स भारत में कांग्रेस नताओं और मुस्लिम लीग से मुलाकात करने पंहुचे थे। मिशन का मकसद था कि भारतीयों को स्वशासन दिया जाए और बदले में उनका सहयोग लिया जाए। हालांकि ऐसा हुआ नहीं और क्रिप्स मिशन के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार ने भारत को डोमिनियन का अधिकार देने की बात कही। भारत को आजादी नहीं मिली और तो और अब भारत के बंटवारे का भी प्रस्ताव रखा गया जो कि कांग्रेस को नामंजूर था। 

क्रिप्स मिशन की असफलता ने महात्मा गांधी को इस बात का अहसास करा दिया कि अब देश की आजादी के लिए भारतीयों को जी जान एक कर लड़ना होगा। शुरुआत में इस तरह के आंदोलन से गुरेज किया जा रहा था पर आखिर में 'करो या मरो' के नारे के साथ देशवासियों ने अंग्रेजों का सामना करने की ठानी। जुलाई 1942 में वर्किंग कमेटी की बैठक में ये तय हुआ कि अब इस आंदोलन को धार दी जाए। 

8 अगस्त 1942 में महात्मा गाधी ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में लोगों को संबोधित किया। उन्होंने ये मंत्र दिया कि करो या मरो। देश को आजाद कराओ या कोशिश करते-करते जान दे दो। किसी भी स्थिति में गुलामी की बेड़ियों से लड़ने के इस मंत्र ने लोगों में जोश भर दिया। 

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