ज्ञानदेव प्रभाकर वारे : नौकरी नहीं आत्मसंतुष्टि के लिए करते हैं लावारिस शवों का अंतिम संस्कार

By भाषा | Published: May 16, 2021 10:57 AM2021-05-16T10:57:47+5:302021-05-16T10:57:47+5:30

Gyandev Prabhakar Vare: do not do the job for the complacency of unclaimed dead bodies | ज्ञानदेव प्रभाकर वारे : नौकरी नहीं आत्मसंतुष्टि के लिए करते हैं लावारिस शवों का अंतिम संस्कार

ज्ञानदेव प्रभाकर वारे : नौकरी नहीं आत्मसंतुष्टि के लिए करते हैं लावारिस शवों का अंतिम संस्कार

नयी दिल्ली, 16 मई कब्रिस्तान या श्मशान घाट का नाम सुनते ही या उसके आसपास से गुजरने पर मन सिहर सा जाता है, कभी इन जगहों पर जाना पड़े तो मन शोक और वितृष्णा से भर जाता है, ऐसे में मुंबई पुलिस के हेड कांस्टेबल ज्ञानदेव प्रभाकर वारे के बारे में आप क्या कहेंगे जो हर दिन ऐसे लोगों को उनके आखरी सफर पर पूरे सम्मान के साथ रवाना करने का बीड़ा उठाए हैं, जो पुलिस और अस्पताल के रिकार्ड में ‘लावारिस’ के तौर पर दर्ज हैं। पिछले दो दशक में वह 50 हजार से ज्यादा लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करवा चुके हैं, जिनमें 50 कोरोना संक्रमित शामिल हैं।

बुजुर्गों से सुनते हैं कि किन्हीं अच्छे लोगों की नेकियों के कारण यह दुनिया आज तक टिकी है। ज्ञानदेव वारे को भी ऐसे ही लोगों में शुमार किया जाना चाहिए, जो पिछले 20 बरस से भी अधिक समय से लावारिस शवों को श्मशान घाट या कब्रिस्तान तो पहुंचाते ही हैं, पूरे विधि विधान से उनके दाह संस्कार अथवा कफन दफन का बंदोबस्त भी करते हैं।

वर्ष 1995 में मुंबई पुलिस बल में शामिल हुए ज्ञानदेव ने पांच बरस तक पुलिस की नियमित ड्यूटी की। वर्ष 2000 में उन्हें विभाग का शव वाहन चलाने का काम सौंपा गया। उसके बाद से वह हर दिन मुंबई पुलिस का यह लाल और नारंगी धारी वाला काले रंग का वाहन लेकर सायन, जेजे, नायर, जीटी, सेंट जार्ज या सेवरी के टीबी अस्पताल जाते हैं और वहां से लावारिस शवों को लेकर उन्हें पूरे सम्मान के साथ उनके अंतिम सफर पर भेजने का इंतजाम करते हैं।

अपने इस उल्लेखनीय योगदान के लिए पिछले दिनों पुलिस विभाग द्वारा सम्मानित किए गए ज्ञानदेव बताते हैं कि शुरू में यह उनके लिए आसान नहीं था। उन्हें कभी क्षत विक्षत शवों को तो कभी खून से लथपथ या अंगभंग वाले शवों को अस्पताल पहुंचाना पड़ता था। शवों को उनके गंतव्य तक पहुंचाकर जब वह घर पहुंचते तो हलक से निवाला नहीं निगला जाता था, रात रात भर सो नहीं पाते थे। फिर धीरे धीरे उन्हें लगा कि ईश्वर ने उन्हें पुण्य के इस कार्य के लिए चुना है और अपने लोगों के बगैर अपने अंतिम सफर पर निकले लोगों का अपना बनकर उन्हें विधि विधान से रवाना करके वह अपना मानव धर्म निभा सकते हैं। तब से वह इसे नौकरी नहीं मानते और हर दिन कुछ अच्छा करने की तसल्ली के साथ घर जाते हैं।

सामान्य प्रक्रिया के अनुसार किसी दुर्घटना, बीमारी अथवा किसी अन्य कारण से मरने वाले व्यक्ति का यदि कोई सगा संबंधी न हो तो उसके शव को 15 दिन तक अस्पताल के मुर्दाघर में रखकर उसकी शिनाख्त की कोशिश की जाती है। यदि इस दौरान उसकी पहचान नहीं हो पाती तो उसे लावारिस मानकर पुलिस उसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करती है। यह पुलिस के सामान्य कार्य का हिस्सा है, लेकिन ज्ञानदेव इसमें भी एक कदम आगे रहते हैं वह मरने वाले का धर्म मालूम होने पर किसी अपने की तरह पूरे विधि विधान से उसका अंतिम संस्कार करते हैं।

ज्ञानदेव बताते हैं कि अपने 52 वर्ष के जीवन और 26 बरस के पुलिस कार्यकाल के दौरान उन्होंने कई त्रासदियां देखीं और सुनी हैं, लेकिन पूरी मानव जाति के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाने वाली इस कोरोना महामारी ने दुनियाभर की पिछली एक सदी की तमाम घटनाओं, दुर्घटनाओं को बौना कर दिया है। उन्होंने इस कोरोना काल में ऐसे 50 लोगों का अंतिम संस्कार कराया, जो कोरोना से संक्रमित थे। कुछ मामलों में तो उनके सगे संबंधी होते हुए भी कोई उनके अंतिम संस्कार के लिए आगे नहीं आया।

वारे बताते हैं कि आम तौर पर शव वाहन चलाने वालों का पांच वर्ष में तबादला कर दिया जाता है, लेकिन वह पिछले 20 बरस से अधिक समय से यह काम कर रहे हैं और सेवानिवृत्त होने तक यही करना चाहते हैं। उनका कहना है कि उन्हें यह काम करके तसल्ली मिलती है। हालांकि उनकी पत्नी, पुत्र और पुत्री को उनकी खैरियत की चिंता रहती है, लेकिन इस बात का गर्व भी है कि ज्ञानदेव ने लावारिस शवों के अंतिम संस्कार का जिम्मा उठाकर इंसानियत को जिंदा रखा है।

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Web Title: Gyandev Prabhakar Vare: do not do the job for the complacency of unclaimed dead bodies

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