दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख स्वाति मालीवाल ने धारा 497 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बताया 'महिला विरोधी'
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 27, 2018 05:13 PM2018-09-27T17:13:21+5:302018-09-27T17:37:51+5:30
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पाँच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को बहुमत से निर्णय किया कि शादी से बाहर विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना " दण्डनीय अपराध" नहीं है।
नई दिल्ली, 27 सितंबर: दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख स्वाति मालीवाल ने गुरुवार को भारतीय दण्ड संहिता (IPC) की धारा 497 पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से असहमति जताते हुए इसे महिला विरोधी फैसला बताया।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के नेतृत्व वाली पाँच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को बहुमत से निर्णय किया कि शादी से बाहर विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना " दण्डनीय अपराध" नहीं है। CJI दीपक मिश्रा ने साफ किया कि विवाह से बाहर शारीरिक सम्बन्ध बनाने के आधार पर पति या पत्नी तलाक ले सकता है लेकिन किसी भी महिला को विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने के लिए 'सज़ा' नहीं दी जा सकती।
आम आदमी पार्टी की नेता स्वाति मालीवाल ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ट्वीट किया, "एडल्टरी (विवाहेत्तर) पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पूरी तरह असहमत हूँ। उन्होंने शादीशुदा जोड़ों को विवाहेत्तर सम्बन्धों का लाइसेंस दे दिया है। ऐसे में विवाह की पवित्रता का क्या होगा?"
मालीवाल ने लिखा है, "धारा 497 को पुरुष और महिला दोनों पर लागू होने का कानून बनाकर इसे न्यूट्रल बनाने के बजाय उन्होंने (सुप्रीम कोर्ट) ने गैर-आपराधिक बना दिया! यह महिला विरोधी फैसला है।"
क्या है धारा 497 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला?
CJI दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए. एम. खानविलकर, न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन, न्यायमूर्ति डी. वाई चन्द्रचूड़ और न्यायमूर्ति इन्दु मल्होत्रा की पीठ ने गुरुवार को अपने फैसले में ब्रिटिश कालीन धारा 497 को असंवैधानिक करार दिया। जस्टिस दीपक मिश्रा ने अपना और जस्टिस खानविलकर का साझा फैसला पढ़ते हुए कहा, "‘हम विवाह के खिलाफ अपराध से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 497 और सीआरपीसी की धारा 198 को असंवैधानिक घोषित करते हैं।"
CJI दीपक मिश्रा ने फैसले में कहा कि कानून के समक्ष समानता का अधिकार भारतीय संविधान में का मुख्य सिद्धांत है और पति पत्नी का स्वामी नहीं होता है। जस्टिस मिश्रा ने कहा, "जो कानून महिला के साथ गैरसमानता का बर्ताव करता है, वह असंवैधानिक है और जो भी व्यवस्था महिला की गरिमा से विपरीत व्यवहार या भेदभाव करती है, वह संविधान के कोप को आमंत्रित करती है। व्यभिचार-रोधी कानून एकपक्षीय, मनमाना है।"
संविधान पीठ में शामिल जस्टिस न्यायमूर्ति नरीमन ने धारा 497 को पुरातनपंथी कानून बताते हुए न्यायमूर्ति मिश्रा और न्यायमूर्ति खानविलकर के फैसले के साथ सहमति जतायी। उन्होंने कहा कि धारा 497 समानता का अधिकार और महिलाओं के लिए समान अवसर के अधिकार का उल्लंघन करती है।
Totally disagree with SC on adultery. They've given license to married couples 4 adulterous relationships. What's sanctity of marriage then?
— Swati Maliwal (@SwatiJaiHind) September 27, 2018
Instead of making 497 gender neutral, criminalising it both for women and men they have decriminalised it totally! Anti women decision.
धारा 497 रद्द करके क्या सुप्रीम कोर्ट ने दे दी है शादी से बाहर सम्बन्ध की खुली छूट?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ कहा है कि अगर कोई महिला या पुरुष अपने पार्टनर को धोखा देता है तो इस आधार पर पीड़ित पक्ष तलाक ले सकता है।
अदालत के फैसले से साफ हो गया है कि शादी से बाहर सम्बन्ध विवाह अदालत का मामला होगा न कि क्रिमिनल कोर्ट का। यानी पति या पत्नी को धोखा देने के लिए अब किसी को जेल या जुर्माना या दोनों नहीं दिया जाएगा।
अदालत ने साफ कहा है कि अगर पति या पत्नी में से किसी एक ने अपना साथी के विवाहेत्तर सम्बन्दों से आजिज आकर आत्महत्या कर ली तो उसके पार्टरन पर "आत्महत्या के लिए उकसाने" का मामला बन सकता है।
अदालत के फैसले से साफ है कि शादी से बाहर सम्बन्ध बनाना भले ही सजा पाने लायक कृत्य न हो लेकिन शादी तोड़ने के लिए यह पर्याप्त कारण होगा और कोई पुरुष या स्त्री अपने साथी के ऐसे बरताव से आत्महत्या करने तक पहुँच जाता है तो धोखा देने वाले पर भी कानून की तलवार लटकती रहेगी।
क्या थी IPC की धारा 497?
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 के अनुसार अगर कोई विवाहित पुरुष किसी विवाहित महिला से उसके पति की मर्जी के खिलाफ सम्बन्ध बनाता है तो उस महिला का पति अपनी पत्नी के प्रेमी पर धारा 497 के तहत मुकदमा कर सकता था।
धारा 497 के तहत दोषी पाये जाने पर पाँच साल तक की जेल या जुर्माना या दोनों की सजा दी जा सकती थी। धारा 497 के तहत मामला जमानती अपराध था। अब सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को खत्म कर दिया है।