धर्मवीर भारती पुण्यतिथि विशेषः उत्तर नहीं हूं, मैं प्रश्न हूं तुम्हारा ही

By आदित्य द्विवेदी | Published: September 4, 2018 07:26 AM2018-09-04T07:26:46+5:302018-09-04T07:26:46+5:30

धर्मवीर भारती ने एक तरफ 'गुनाहों  का देवता' जैसे किशोरवय प्रेम का कालजयी उपन्यास लिखा और दूसरी तरफ धर्मयुग जैसी गंभीर साहित्यिक पत्रिका से संपादन के नए मानक स्थापित किए। आज पुण्यतिथि पर उनके व्यक्तित्व की सरलता और जटिलता को टटोलने की एक कोशिश...

Dr Dharamvir Bharati death anniversary: Personal life and work profile - Hindi Literature | धर्मवीर भारती पुण्यतिथि विशेषः उत्तर नहीं हूं, मैं प्रश्न हूं तुम्हारा ही

धर्मवीर भारती पुण्यतिथि विशेषः उत्तर नहीं हूं, मैं प्रश्न हूं तुम्हारा ही

धर्मवीर भारती के रचना कौशल का दखल तमाम विधाओं में था। उन्होंने कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, आलोचना, अनुवाद, रिपोर्ताज और कई विधाओं में शानदार लेखन किया है। लेकिन उनका हाथ अगर कहीं पर तंग हुआ तो अपनी आत्मकथा लिखने में।

कुछ मौके को छोड़ दिया जाए तो अपनी साहित्यिक और पत्रकारीय यात्रा में वो अपने बारे में लिखने से बचते रहे हैं। यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व को समझने के लिए उनकी रचनाओं पर आश्रित होना पड़ता है। लेकिन उनकी रचनाओं का फलक भी इतना व्यापक कि व्यक्तित्व की जटिलताओं में उलझकर ही रह जाएं।

एक तरफ तो उन्होंने 'गुनाहों का देवता' जैसा निश्छल प्रेम का उपन्यास रचा तो दूसरी तरफ अंधा युग जैसा नाटक, जो युद्ध के परिप्रेक्ष्य में आधुनिक जीवन की विभीषिका का जिक्र करता है। साहित्य सृजन से इतर उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में भी धर्मयुग जैसी पत्रिका दी। पुण्यतिथि पर हम उनके व्यक्तित्व के आयामों को टटोलने की कोशिश करते हैं। 

(*नीचे लेख में धर्मवीर भारती की लिखी एक चिट्ठी के कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत किए गए हैं। जिससे उनके व्यक्तित्व का अंदाजा मिलता है। यह चिट्ठी उन्होंने किसके नाम लिखी थी इसका ठीक-ठीक पता नहीं चल सका है। इसे हम गद्य कोश से साभार प्रकाशित कर रहे हैं।)

उत्तर नहीं हूं, मैं प्रश्न हूं तुम्हारा ही

मेरा जन्म 25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले के मकान में हुआ था। मेरे पिता जी का नाम श्री चिरंजीवलाल वर्मा और माता का नाम श्रीमती चंदा देवी था। परिवार का इतिहास यह था कि हमारा वंश मूलता शाहजहांपुर जिले के खुदागंज नाम के कस्बे का निवासी था। वहां हमलोगों की बड़ी जमींदारी थी। हम लोगों का खुदागंज जाना छूट गया उसका कारण यह था कि मेरे पिता एक प्रकास से अपने परिवार की सामंती जमींदारी परंपरा के विद्रोही थे। मैंने होश संभाला तो अतरसुइया की गली और आर्य समाजी वातावरण में।

यह भी अदा थी एक मेरे बड़प्पन की

बीमारी की फिक्र और कर्ज की फिक्र ने पिता को मन और शरीर से तोड़ दिया। पिता सख्त बीमार पड़े और शायद नवंबर 1939 में उनकी मृत्यु हो गई। तब मैं 13 वर्ष का था। 42 के आंदोलन में मैंने भाग लिया और सुभाष का बड़ा प्रशंसक बना। उन्हीं दिनों मैंने शेल, कीट्स, वर्डस्वर्थ, टेनीसन, एमिली डिकन्सन तथा अनेक फ्रेंच, जर्मन और स्पेनिश कवियों को अंग्रेजी अनुवाद में पढ़ा। माखनलाल चतुर्वेदी ने लिखने के लिए बहुत प्रोत्साहित किया। प्रगतिशील लेखक संघ का स्थानीय मंत्री भी रहा कुछ दिन, पर कम्युनिस्टों की कट्टरता तथा देशद्रोही नीतियों से मोहभंग हुआ। उन्हीं दिनों गुनाहों का देवता फिर प्रगतिवाद एक समीक्षा और सूरज का सातवां घोड़ा लिखा।

...क्योंकि सपना है अभी भी!

सन् 1955 के आसपास एक पंजाबी शरणार्थी लड़की से विवाह हुआ। संस्कारों के तीव्र वैषम्य के कारण वह विवाह असफल रहा और बाद में विच्छेद हो गया। सन् 1960 में बम्बई आ गया। उसके पहल सात गीत वर्ष, अंधा युग, कनुप्रिया, देशांतर प्रकाशित हो चुके थे। बम्बई आने के बाद पुष्पा भारती से विवाह हुआ, जिसने बहुत सुख, संतोष और शांति दी। केवल जीवन में ही नहीं वरन विचारों और साहित्य चिंतन के क्षेत्र में भी उनका सार्थक गहरा प्रेरणाप्रद साथ मिला। संक्षेप में जीवन और साहित्यिक प्रगति की यह रूपरेखा है।

जिंदगी की माप कैसे हो

पत्नी पुष्पा भारती के अनुसार 'डॉ. भारती कितना पढ़ते थे, इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उन्होंने काफी कम उम्र में बहुत कुछ पढ़ लिया था। उनकी आदत स्कूल से सीधे पुस्तकालय जाने की थी। डॉ. भारती का बचपन गरीबी में बीता था। मुफलिसी इतनी थी कि वह किसी पुस्तकालय का सदस्य नहीं बन सकते थे। लेकिन उनकी लगन देखकर इलाहाबाद के एक लाइब्रेरियन ने उन्हें अपने विश्वास पर पुस्तकें पाँच दिन के लिए देना शुरू कर दीं। इसके बाद तो उन्हें जैसे किताबी खजाना ही मिल गया।'

और अंत में धर्मवीर भारती की एक कविता...

उत्तर नहीं हूँ
मैं प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

नये-नये शब्दों में तुमने
जो पूछा है बार-बार
पर जिस पर सब के सब केवल निरुत्तर हैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

तुमने गढ़ा है मुझे
किन्तु प्रतिमा की तरह स्थापित नहीं किया
या
फूल की तरह
मुझको बहा नहीं दिया
प्रश्न की तरह मुझको रह-रह दोहराया है
नयी-नयी स्थितियों में मुझको तराशा है
सहज बनाया है
गहरा बनाया है
प्रश्न की तरह मुझको
अर्पित कर डाला है
सबके प्रति!

दान हूँ तुम्हारा मैं
जिसको तुमने अपनी अंजलि में बाँधा नहीं
दे डाला!

उत्तर नहीं हूँ मैं
प्रश्न हूँ तुम्हारा ही!

Web Title: Dr Dharamvir Bharati death anniversary: Personal life and work profile - Hindi Literature

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