Interview: पराली से अब भारत में बनेंगी सड़कें, कैसी है ये तकनीक! पढ़ें सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट की निदेशक रंजना अग्रवाल का इंटरव्यू

By शरद गुप्ता | Published: August 17, 2022 08:13 AM2022-08-17T08:13:30+5:302022-08-17T08:13:30+5:30

सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट की निदेशक रंजना अग्रवाल से लोकमत मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर (बिजनेस एवं पॉलिटिक्स) शरद गुप्ता ने खास बातचीत की है। पढ़ें, इसके मुख्य अंश...

Central Road Research Institute CSIR CRRI directior Ranjana Aggarwal Interview | Interview: पराली से अब भारत में बनेंगी सड़कें, कैसी है ये तकनीक! पढ़ें सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट की निदेशक रंजना अग्रवाल का इंटरव्यू

सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट की निदेशक रंजना अग्रवाल

दुनिया में सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली एक तिहाई मौतें भारत में हो रही हैं. देश में अच्छी से अच्छी सड़कें बनने के बावजूद कुछ ही समय बाद उनमें गड्ढे पड़ जाते हैं. इन्हीं मुद्दों पर सेंट्रल रोड रिसर्च इंस्टीट्यूट की निदेशक रंजना अग्रवाल से लोकमत मीडिया ग्रुप के सीनियर एडिटर (बिजनेस एवं पॉलिटिक्स) शरद गुप्ता ने बात की. प्रस्तुत हैं मुख्य अंश...

- भारत की सड़कों को मौत का कुआं क्यों माना जाता है? इनको हम सुरक्षित क्यों नहीं बना सकते?

हमारा संस्थान सड़कों पर रिसर्च करने वाला देश ही नहीं दुनिया में भी अकेला संस्थान है. इसमें भी सड़कों की डिजाइन और सुरक्षा को लेकर हमारा अलग विंग है. इसमें हम प्रशिक्षण और ऑडिट करते हैं. हमने हजारों किलोमीटर सड़कों का निरीक्षण कर ब्लैक स्पॉट पहचाने हैं और नेशनल हाईवे अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एनएचएआई) या राज्यों के सड़क प्राधिकरण के जरिये उन्हें ठीक कराया है.

- सड़कों का यह ऑडिट आपसे कौन कराता है और क्या आप की रिपोर्ट पर कार्रवाई होती है?

अधिकतर एनएचएआई ही हमें अपनी सड़क का ऑडिट करने को कहता है. हम अपनी रिपोर्ट उसे ही सौंपते हैं. कई बार सीएजी भी हमें किसी सड़क का ऑडिट करने को कहते हैं. हमारी रिपोर्ट पर कार्रवाई होती है. इस पर सीबीआई की जांच भी बैठी है. यह ऑडिट दो तरह के होते हैं - एक स्ट्रक्चरल ऑडिट यानी सड़क निर्माण की गुणवत्ता को जांचना व परखना और दूसरा रोड सेफ्टी ऑडिट यानी यह देखना कि सड़क सुरक्षित है या नहीं.

- क्या आप किसी भी सड़क की गुणवत्ता और सुरक्षा का ऑडिट अपने आप कर सकते हैं?

नहीं, हम कोई पुलिस जैसी एजेंसी नहीं हैं जो अपने आप किसी भी सड़क की गुणवत्ता जांचें. हम तभी जांच करते हैं जब हमें एनएचएआई जैसी संस्था किसी सड़क की जांच करने को कहती है. हम उनसे इसकी फीस लेते हैं. हम सड़क ऑडिटर्स का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाते हैं. इस पर क्लासरूम से लेकर फील्ड तक का प्रशिक्षण शामिल है.

- लेकिन सड़कों के बनने के एक वर्ष के अंदर ही उनमें गड्ढे क्यों बन जाते हैं? क्या हमारी तकनीक में खामी है या ईमानदारी की कमी है?

मैं तकनीक की कमी तो नहीं कहूंगी. सड़क बनाने की सभी तकनीक जांची परखी हुई है. हां सड़क बनाने वालों की मंशा जरूर कभी-कभी ठीक नहीं होती. हम हर चीज ईमानदारी और निष्ठा से क्यों नहीं कर सकते?

- क्या सड़कों की डिजाइन में भी कमी के कारण गड्ढे बनते हैं?

शहरों और कस्बों में सड़कों के किनारे पानी की निकासी का ठीक इंतजाम न होने से भी सड़कें टूटने लगती हैं. कई बार अतिक्रमण के कारण नालियां जाम हो जाती हैं और सड़कों पर पानी भर जाता है. इसमें सड़क निर्माण संस्थान के बजाय नगर पालिका की जिम्मेदारी होती है.

- क्या ओवरलोडिंग भी इसके लिए जिम्मेदार है?

बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. हमारी सड़कें 10.5 टन के एक्सल लोड के लिए बनती हैं. अभी 2 दिन पहले एक स्टडी में हमने पाया कि अधिकतर सड़कों पर 24 टन एक्सल लोड के वाहन चल रहे हैं. इसीलिए सड़क कहीं से दबती है तो कहीं उभर जाती है. इन जगहों में पानी रुकता है और उसकी वजह से गड्ढे बन जाते हैं.

- क्या हम हर टोल प्लाजा पर वाहन का भार जांचने का यंत्र नहीं लगा सकते, वैसे ही जैसे वाहन की गति नापने के यंत्र लगे हैं? टोल शुल्क के साथ ही अधिक भार का जुर्माना क्या नहीं वसूला जा सकता?

आप ठीक कह रहे हैं. ऐसा होने से ओवरलोडिंग पर कुछ रोक तो लगेगी. वैसे अब हम स्टील के कचरे (स्लैग) से बजरी बनाकर सड़कें बना रहे हैं. उसमें भार सहने की अधिक क्षमता है. मौसम और अत्यधिक बरसात का भी उस पर अधिक असर नहीं होता है. कुछ जगहों पर प्लास्टिक का भी इस्तेमाल सड़क निर्माण में किया जा रहा है.

- स्टील स्लैग से सड़कें बनाने की तकनीक क्या परीक्षण के स्तर पर है?

गुजरात में हजीरा से सूरत आने वाली सड़क हमेशा भारी वाहनों के चलने से खराब स्थिति में रहती थी. इसका एक किलोमीटर का हिस्सा हमने पूरी तरह स्टील स्लैग से बनाया. उसका हर तरह का टेस्ट हो चुका है. वह 28 टन एक्सल लोड उठाने में सफल पाया गया है.

- इसके अलावा भी आपका संस्थान कोई और रिसर्च कर रहा है?

जी हां. धान और गेहूं को काटने के बाद बचने वाली पराली के निस्तारण के लिए हम तकनीक विकसित कर रहे हैं. उसे बहुत अधिक तापमान पर ले जाकर चारकोल की तरह ही ईंधन की तरह इस्तेमाल करने लायक बना रहे हैं. उससे बायो-एथेनॉल और बायो-बिटुमेन बना रहे हैं. हम कोशिश कर रहे हैं कि बिटुमेन में 30 प्रतिशत तक पराली से बनाया हुआ बायो-बिटुमेन मिलाकर सड़कें बनाएं. इनका सड़क निर्माण में इस्तेमाल किया जा रहा है. एक अन्य संस्थान ने धान की पराली से प्लायबोर्ड बनाने में सफलता पाई है.

- तो इस तकनीक को कमर्शियल स्तर पर उतारने में क्या समस्या है?

अब हम इन तकनीक का कॉस्ट एनालिसिस कर रहे हैं. कौन सी तकनीक फील्ड में सबसे सस्ती, सुलभ और बेहतर होगी, इस पर परीक्षण चल रहा है. यदि किसी स्थान पर प्लायबोर्ड की फैक्ट्री 500 किलोमीटर दूर है तो पराली को इतनी दूर ले जाना कितना उचित होगा? क्या उसका इस्तेमाल वहीं पर बायो-एथेनॉल बनाने के लिए करना बेहतर नहीं होगा? पराली से बायोएथेनॉल बनाना सस्ता पड़ेगा या दूसरे कृषि उत्पादों से? अब इन्हीं बातों पर रिसर्च की जा रही है.

- पराली का व्यावसायिक इस्तेमाल कब तक शुरू हो पाएगा?

इसमें हमें अभी काफी सफलता मिल चुकी है. उम्मीद है खेती से निकलने वाले पराली जैसे बेकार उत्पाद का व्यावसायिक इस्तेमाल अगले छह महीने में होने लगेगा.

Web Title: Central Road Research Institute CSIR CRRI directior Ranjana Aggarwal Interview

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