कंबोडिया से मंगोलिया तक फैला था भारतीय दवाइयों का इतिहास
By मेघना सचदेवा | Published: August 4, 2022 07:00 PM2022-08-04T19:00:50+5:302022-08-05T17:49:04+5:30
पूणे भंडारकर शोध संस्थान ने भारतीय दवाओं के इतिहास से जुड़ी कई बातों को साझा किया है। सबसे पुरानी चिकित्सकीय पाण्डुलिपियों में से एक की तस्वीर भी साझा की।
आप सभी बीमारियों को दूर करने के लिए दवा लेते होंगे। कोई एलोपैथिक दवाऐं लेता है तो कोई होम्योपैथिक लेकिन भारतीय दवाईयों का इतिहास क्या है इस पर शायद ही आपने कभी गौर किया हो।
प्राचीन ग्रीस से जापान और चीन तक,कंबोडिया से मंगोलिया,रूस तक भी भारतीय दवाइयों का इतिहास फैला हुआ है। 500 ईसा पूर्व से 1200 ईस्वी के वक्त से जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों पर पूणे के भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने प्रकाश डाला है। आईए जानते हैं...
भारतीय दवाइयां प्राचीन भारत में निर्यात की जाती थी
भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने सबसे पहले इस बात का जिक्र किया है कि भारतीय सभ्यता ने प्राचीन समाज के लोगों से कुछ 1000 साल पहले ही संर्पक बनाया था। जैसे जैसे वक्त बीतता गया और प्राचीन समाज के लोगों में समझ बढ़ी तो उन्होंने भारतीय सभ्यता के साथ नए सोच विचारों का अदान प्रदान करना शुरू कर दिया।
विज्ञान,गणित, खगोल और चिकित्सकीय विषयों में नए विचारों को साझा किया गया। उस वक्त हर समाज और सभ्यता का दवाइयां बनाने का तरीका अलग अलग था। हर विषय पर सबका नजरिया भी कुछ अलग था। हालांकि भारतीय दवाइयां तब भी प्राचीन भारत में निर्यात की जाती थी।
फिलोजत के लेख में भारतीय दवाइयों के बारे में क्या लिखा है ?
भंडारकर प्राच्य शोध संस्थान ने जीन फिलोजत के एक लेख का जिक्र किया है। ये लेख भारतीय दवाईयों के विदेश में बढ़ते कदमों के बारे में है। बता दें कि 1964 में ये लेख दुनिया की संस्कृति और सोच में भारत का योगदान में छपा था।
जानकारी के मुताबित प्राचीन यूनानी और प्राचीन भारत के दवाईयां बनाने का तरीका काफी समानांतर था। इसके कुछ उदाहरण भी दिए गए हैं। जैसे की हिप्पोक्रेटिक शपथ और आयुर्वेदिक ग्रंथ में साँस का जिक्र है। जिसे हम संस्कृत में प्राण कहते हैं जबकि ग्रीक में इसे नूम कहा जाता है।
वातावरण में यही हवा का रूप ले लेती है जबकि शरीर में सांस बन कर पूरे शरीर के मूवमेंट में मदद करती है। ये कहना गलत होगा कि ये हिप्पोक्रेटिक शपथ और आयुर्वेदिक ग्रंथां में लिखी बातें एक दूसरे से ही ली गई हैं। लेकिन अगर हम फिलोजत के लेख का जिक्र करें तो उसमें प्राचीन भारत के दवाईयों को बनाने का तरीका कैसे बाकी सभ्यताओं को प्रभाति कर रहा था उसके भी कई उदाहरण है।
प्लेटो के संवादों में से एक तिमियस और आयुर्वेद के त्रिदोष विज्ञानम् को अगर देंखे तो दोनों में लिखी बातों में समानता मिलेगी। प्लेटो ने तिमियस में जो विचार साझा किए हैं वो ग्रीक संस्कृति से अलग हैं। सांस जो कि हवा का रूप है, पित्त जिसे में अग्नि मान रहे हैं और बलगम जिसे हम पानी मान रहे हैं। प्लेटो के तिमियस में लिखे गए विचारों के मुताबिक स्वास्थय इन्ही तीनों चीजों से जुड़ा है।
ये बातें त्रिदोष विज्ञानम् में पहले से मौजूद हैं यानी ये बातें भारत ने प्लेटो के संवाद से तो नहीं ली। हालांकि अगर हम बात करते हैं ग्रीस की तो जब ग्रीस में ईरानी शासन था तब विज्ञान से जुड़ी बातों का अदान प्रदान और मेल जोल काफी बेहतर और आसान था।
खास कर भारत और कई देशों के बीच के संबध अच्छे थे। माना जाता है उस वक्त भारत का प्रभाव काफी ज्यादा था। खास कर प्लेटो की लिखी बातों से भी यही लगता है। हिप्पोक्रेटिक कलेक्शन की बात की जाए तो भारत में बनने वाली दवाओं और उसके तरीके जैसी बहुत सी जानकारी मिल जाती है।
मध्य एशिया में कैसे बढ़ा भारत की दवाईयों का प्रभाव ?
जैसे जैसे वक्त बीता पूर्व की ओर भी मध्य एशिया में भारत का प्रभाव बढ़ता चला गया। उसके बाद चीन से लेकर एशिया के कई हिस्सों तक ये प्रभाव फैलता गया। इसी युग में बौद्ध धर्म के शुरू होने की बात भी कहा गई है।
कई भाषाओं में हुआ भारतीय शिक्षा का अनुवाद
फिलोजत ने आगे लिखा है कि मध्य एशिया में कई हस्तलिपियां मिली हैं। इनमें से कई संस्कृति में लिखी हैं। कई हस्तलिपि में बौद्ध धर्म के बारे में जानकारी है तो कई दवाईयों के विषय में संस्कृत में लिखी गई हस्तलिपि हैं। जिसको स्थानीय भाषओं में भी बदला गया है। इनमें से बोवर पाण्डुलिपि में चिकित्सा सम्बन्धी संस्कृत में लिखी गई बातें हैं। इसमें योगशतकं का भी जिक्र है।
भारत में इसके बारे में समझाया भी गया है। संस्कृत में लिखे गए शब्दों को स्थानीय भाषओं के साथ या तो बदल दिया गया है या उसी के साथ लिखा गया है। इसमें आयुर्वेद के अष्टांग के बारे में लिखा है। 7वीं सदी में चीन के तीर्थयात्रियों ने जो लिखा ये बिल्कुल उसके जैसा है। इन्ही शब्दों को फिर तिब्बती भाषा में भी तब्दील किया गया। जानकारी के मुताबिक 19वीं सदी में इसका इस्तेमाल श्रीलंका में किया जा रहा था।
अगर बात की जाए चीन,जापान और कोरिया जैसे देशों की तो इनके पास दवाई बनानें के अपने तरीके हैं । ये भारत के दवाई बनानें के तरीके से ज्यादा भारतीय दवाईया लेना पंसद करते थे। जापान में 8वीं सदी में कुछ भारतीय दवाईयों को संभाल के रखा गया।
कंबोडिया की बात करें तो कई शिलालेखों में संस्कृत में दवाइयों के बारे में लिखा गया है। तिब्बत में भी भारतीय दवाईयों को काफी लोकप्रियता मिली है। धीरे धीरे वहां पर भारतीय दवाईयों को पूरी तरह अपना लिया गया। कहा जाता है 8वीं सदी में भारत में लिखी गई अमृत हृदय को संस्कृत से तिब्बत में बदल दिया गया। इसके बाद इस लेख मे लिखी गई शिक्षाओं को भैषज्यगुरु कहा जाने लगा।
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि इसका संस्कृत से कोई संबध नहीं लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो इसमे सुश्रुत से ली हुई बातें हैं। इसके बाद इसे तिब्बत से मंगोलिया में अनुवाद किया गया फिर रूस में अनुवाद किया गया और वहां भी इन शिक्षाओं को अपनाया गया। मांगोलिया के संस्करण के साथ रूस में लिखी गई शिक्षाओं को कई जगह प्रकाशित किया गया।
फिरदोस उल हिकमत में है भारतीय दवाइयों की जानकारी
वहीं जब इस्लाम में विज्ञान के बारे मे चर्चा शुरू हुई तो आयुर्वेद से कई शिक्षाओं को फारसी और कई भाषाओं में अनुवाद कर दिया गया। अरबी में भारतीय शिक्षाओं का अनुवाद किया गया। 850 ईस्वी में एक फारसी चिकित्सक ने फिरदोस उल हिकमत लिखी जिसमें भारतीय दवाईयों के बारे में जानकारी थी।
भारत में बनाई गई दवाईयों पर कैसे कई सभ्याताऐं निर्भर थी उसकी ये प्रेरणादायक कहानी भारतीय दवाईयों के इतिहास को खंगालने का और उसे बनाने के तरीके को जानने का मौका देती है। हालांकि इसके बारे में जितना जाना जाए कम है। भंडारकर शोध संस्थान ने दुनिया की सबसे पुरानी चिकित्सकीय पाण्डुलिपियों में से एक की तस्वीर भी साझा की।
This is a brief but broad overview given by Jean Filliozat. It is an awe-inspiring journey, to say the least.
— Bhandarkar Oriental Research Institute (@BhandarkarI) August 3, 2022
The article also includes an image from one of the oldest medical manuscripts from the 6th-7th Century. pic.twitter.com/Swkr4vmFUT