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Tata Group: टाटा ट्रस्ट्स सदस्यों के बीच मतभेद तेज?, दो खेमों में बंटा 156 साल पुराना ग्रुप, आखिर क्या है विवाद

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: October 8, 2025 18:18 IST

Tata Group: खुली छूट मिली है कि हजारों करोड़ का नुकसान होने के बावजूद न तो फोरेंसिक जांच होती है और न ही कोई जवाबदेही तय की जाती है।

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ठळक मुद्देआज वही घराना संकट के सबसे बड़े दौर से गुजर रहा है।व्यक्ति की चालबाज़ी और तानाशाही के बोझ तले दफ्न हो जाएगी? नोएल एन टाटा किसके इशारे पर काम कर रहे हैं?

नई दिल्लीः टाटा संस में करीब 66 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले टाटा ट्रस्ट्स के सदस्यों के बीच निदेशक मंडल में नियुक्ति और कंपनी संचालन से संबंधित मुद्दों को लेकर आपसी मतभेद उभर आए हैं। सूत्रों ने जानकारी दी। सूत्रों ने कहा कि टाटा ट्रस्ट्स के भीतर एक तरह से दो गुट बन गए हैं। टाटा घराना… भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक साम्राज्य, जिसकी पहचान ईमानदारी, पारदर्शिता और अनुशासन से की जाती रही है। रतन टाटा जैसे महानायक ने इस साम्राज्य को वह ऊंचाई दी कि दुनिया के हर कोने में टाटा नाम सुनते ही भरोसा पैदा हो। पर आज वही घराना संकट के सबसे बड़े दौर से गुजर रहा है।

 

सवाल यह है कि क्या टाटा जैसी साख अब एक व्यक्ति की चालबाज़ी और तानाशाही के बोझ तले दफ्न हो जाएगी? क्या जिस समूह ने भारत की छवि को दुनिया में मज़बूत किया, वही अब भारत की शर्म का कारण बन जाएगा? आरोपों के केंद्र में हैं नोएल एन टाटा। रतन टाटा के चचेरे भाई, जिन्हें कभी पारिवारिक मजबूरी में समूह का हिस्सा बनाया गया था।

लेकिन अब उन पर गंभीर आरोप हैं कि वे नियमों को दरकिनार कर, ट्रस्टियों को अंधेरे में रखकर और अपनी मनमानी से टाटा समूह पर कब्ज़ा करने की साजिश रच रहे हैं। सवाल ये उठता है कि आखिर नोएल एन टाटा किसके इशारे पर काम कर रहे हैं? और क्यों उन्हें इतनी खुली छूट मिली है कि हजारों करोड़ का नुकसान होने के बावजूद न तो फोरेंसिक जांच होती है और न ही कोई जवाबदेही तय की जाती है।

टाटा ट्रस्ट… जो इस पूरे समूह की रीढ़ है, जहां ट्रस्टियों को हर बड़े फैसले में शामिल होना चाहिए, वहां पर आज ट्रस्टी हाशिये पर धकेल दिए गए हैं। टाटा संस का अनुच्छेद 121 ए साफ कहता है कि बड़े फैसलों के लिए ट्रस्ट का अप्रूवल ज़रूरी है, और ट्रस्ट का मतलब है सभी ट्रस्टी, न कि सिर्फ़ नामित निदेशक। लेकिन यहां हो क्या रहा है?

नामित निदेशक अपने मन से अरबों-खरबों के फैसले कर रहे हैं और बाकी ट्रस्टी को अंधेरे में रख दिया गया है। यह नियमों का खुला उल्लंघन है, यह भारत की कॉर्पोरेट गवर्नेंस के चेहरे पर तमाचा है। नोएल एन टाटा पर आरोप है कि उन्होंने अपनी अगुवाई में टाटा इंटरनेशनल लिमिटेड को 3000 करोड़ रुपये के घाटे में धकेल दिया। सोचिए, तीन हज़ार करोड़ रुपया!

इतनी बड़ी रकम डूब जाती है और कंपनी के भीतर से न कोई आवाज़ उठती है, न किसी तरह की छानबीन होती है। सवाल है कि ये रकम गई कहां? क्या इसके पीछे कोई बैकएंड डीलिंग है? क्या ये घाटा दिखाकर किसी और की जेब भरी गई? जब किसी आम कंपनी में कुछ करोड़ का भी गड़बड़झाला होता है तो सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स सब पीछे पड़ जाते हैं।

लेकिन जब नोएल एन टाटा जैसे लोग हजारों करोड़ डुबो देते हैं तो कोई सवाल नहीं पूछता। क्यों? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वे टाटा नाम का सहारा लेकर बैठे हैं? इससे भी हैरान करने वाली बात यह है कि घाटे के बाद भी नोएल एन टाटा ने टाटा संस से 1000 करोड़ रुपये की मांग की। और वह रकम भी उन्हें अनुच्छेद 121 ए के तहत पारित कर दी गई। सोचिए, जिन्हें सिर्फ़ नामित निदेशक की हैसियत से बैठना चाहिए।

वे खुद ही बड़े फैसले ले रहे हैं और अपने ही लिए अरबों की रकम मंज़ूर कर रहे हैं। इसे अगर हितों का टकराव यानी कनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? और सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इस मंजूरी की जानकारी बाकी ट्रस्टियों तक पहुंचाई तक नहीं गई। यानी जिस संस्थान ने हमेशा पारदर्शिता का दावा किया, वहां पर आज जानकारी को छिपाने की साजिश रची जा रही है।

सवाल ये है कि आखिर नोएल एन टाटा को इतनी छूट किसने दी? क्यों जब वे टाटा इंटरनेशनल लिमिटेड को 3000 करोड़ के घाटे में ले जाते हैं, तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती? क्यों उनकी जवाबदेही तय नहीं की जाती? और जब वही शख्स टाटा संस से 1000 करोड़ की और रकम मांगता है, तो बिना किसी आपत्ति के वह रकम उन्हें दे दी जाती है।

अगर यह किसी और कॉर्पोरेट हाउस में हुआ होता, तो अब तक शेयरधारक अदालत का दरवाज़ा खटखटा चुके होते। लेकिन यहां? यहां सब खामोश है। क्या वजह है इस खामोशी की? वजह यही है कि टाटा संस के नामित निदेशक, जिनकी हैसियत सिर्फ़ सूचना पहुंचाने की है, उन्होंने अपने लिए ही सारे दरवाज़े खोल लिए।

टाटा संस का नियम साफ कहता है कि नामित निदेशक खुद से बड़े फैसले नहीं ले सकते। लेकिन जब नियम ताक पर रख दिए जाएं, जब ट्रस्टियों को अंधेरे में रखकर अरबों-खरबों का खेल किया जाए, तो समझ लेना चाहिए कि अब साख दांव पर लग चुकी है। आज सबसे बड़ा सवाल यही है कि टाटा समूह की छवि बचाएगा कौन?

जिस संस्थान को रतन टाटा ने अपनी मेहनत, ईमानदारी और त्याग से इस मुकाम तक पहुंचाया, क्या वह अब नोएल एन टाटा और उनके साथियों के लालच की बलि चढ़ जाएगा? क्या सचमुच टाटा घराना अब सिर्फ़ नाम का रह जाएगा और उसकी असली आत्मा, उसकी साख, उसकी नैतिकता कहीं खो जाएगी?

स्वतंत्र निदेशक हरीश मनवानी ने भी इस अंधेरगर्दी पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि साइकिल और जूते बेचने के कारोबार में टाटा इंटरनेशनल को शामिल करने का कोई व्यावसायिक तर्क ही नहीं है। मतलब साफ है – बिज़नेस मॉडल से ज़्यादा यहां कमीशन का खेल है। घाटा जितना बड़ा, बैकएंड में कमीशन उतना बड़ा। तो सवाल उठता है कि यह कमीशन किसे जा रहा है?

क्या यह खेल सिर्फ़ नोएल एन टाटा तक सीमित है या इसके पीछे और भी बड़े खिलाड़ी छिपे हुए हैं? टाटा संस की मिनिट्स में साफ लिखा है कि 1000 करोड़ रुपये की रकम जो दी गई है, वह कोई ऋण नहीं है। क्योंकि उसके पीछे कोई अंडरलाइंग असेट नहीं है। यानी सीधी बात है कि यह पैसा डूब चुका है।

अब आप सोचिए – अगर यही रकम किसी आम कंपनी में डूब जाती, तो मीडिया से लेकर रेगुलेटरी एजेंसियां तक सब सवालों की बौछार कर देते। लेकिन यहां? यहां चुप्पी है। चुप्पी क्यों है? क्या यह चुप्पी खरीद ली गई है? और यही सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि टाटा समूह केवल एक कंपनी नहीं है। यह लाखों निवेशकों का विश्वास है। यह भारत की छवि है।

यह भारत की आर्थिक रीढ़ का एक बड़ा हिस्सा है। और अगर इस पर ही सवाल उठने लगे, अगर इसमें ही पारदर्शिता गायब हो जाए, तो फिर निवेशकों का भरोसा कहां जाएगा? क्या विदेशी निवेशक भारत की ओर उसी भरोसे से देखेंगे? नोएल एन टाटा पर लगे आरोप सिर्फ़ अरबों के घाटे तक सीमित नहीं हैं।

आरोप यह भी हैं कि उन्होंने टाटा संस के अन्य ट्रस्टियों को पूरी जानकारी से वंचित रखा। जबकि अनुच्छेद 121 ए साफ कहता है कि हर ट्रस्टी को बराबर का अधिकार है। लेकिन यहां ट्रस्टियों को अंधेरे में रखकर तीन नामित निदेशकों ने ही फैसले ले लिए। यह न सिर्फ़ नियमों का उल्लंघन है बल्कि यह सीधे-सीधे लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन है।

सोचिए, जिन ट्रस्टियों को सबसे ज़्यादा ताक़त दी गई है, उन्हें ही दरकिनार किया जा रहा है। क्या यही है गुड गवर्नेंस? क्या यही है टाटा समूह की परंपरा? रतन टाटा ने कभी अपने जीवनकाल में ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने हमेशा पारदर्शिता को प्राथमिकता दी। फिर क्यों अब उनके चचेरे भाई उसी संस्था की आत्मा को बेचने पर तुले हुए हैं?

यहां सवाल सिर्फ़ नोएल एन टाटा पर नहीं है। यहां सवाल उन सब पर है जो इस खेल का हिस्सा हैं। विजय सिंह और वेणु श्रीनिवासन के नाम पर भी गंभीर आरोप हैं। विजय सिंह 77 साल की उम्र में भी टाटा संस के निदेशक बने रहना चाहते हैं। क्यों? क्या सिर्फ़ इसलिए कि वहां बैठकर वे नियमों को ताक पर रख सकें?

आरोप हैं कि जानकारी छिपाकर और नियमों को दरकिनार कर उनका कार्यकाल बढ़ाया गया। अगर यह सच है, तो यह न सिर्फ़ नैतिकता के खिलाफ़ है, बल्कि यह कंपनी लॉ के सिद्धांतों के भी खिलाफ़ है। वेणु श्रीनिवासन का मामला भी कम चौंकाने वाला नहीं है। वे अपनी कंपनी टीवीएस से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। सत्य साईं बाबा ट्रस्ट से भी इस्तीफ़ा दे चुके हैं।

लेकिन टाटा संस और टाटा ट्रस्ट्स से वे अभी भी जुड़े हुए हैं। क्यों? क्या वजह है कि वे इस संस्थान से चिपके हुए हैं? क्या वजह है कि वे खुद को सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त करने के बजाय नियमों को मोड़-तोड़कर बने रहना चाहते हैं? ट्रस्टियों ने सवाल उठाया है कि क्या टाटा संस के नियमों में वाइस चेयरमैन का कोई प्रावधान है? अगर नहीं, तो फिर वेणु श्रीनिवासन किस आधार पर इस पद पर बने हुए हैं?

सिर्फ़ इसलिए कि कोई सर्कुलर घुमा दिया गया और अप्रूवल लिख दिया गया? अगर यही है, तो फिर टाटा संस का संविधान, उसके नियम और अनुच्छेद सिर्फ़ दिखावे के लिए हैं? ट्रस्टियों का गुस्सा अब फूट चुका है। उनका साफ कहना है कि जिस संस्था ने भारत के करोड़ों निवेशकों का विश्वास जीता, वहां आज कुछ चुनिंदा लोग निजी लालच में नियम तोड़ रहे हैं।

नोएल एन टाटा, विजय सिंह और वेणु श्रीनिवासन पर सीधे आरोप लगाए जा रहे हैं कि ये लोग टाटा समूह पर कब्ज़ा करने की सुनियोजित साजिश रच रहे हैं। और यह कब्ज़ा सिर्फ़ कुर्सी तक सीमित नहीं है, बल्कि अरबों-खरबों की उस विरासत पर है जिसे दशकों से लाखों लोग अपने खून-पसीने से बना चुके हैं।

सोचिए, जब टाटा समूह पर ही सवाल उठ रहे हैं, तो भारत की कॉर्पोरेट गवर्नेंस पर दुनिया क्या सोच रही होगी? टाटा ग्रुप को हमेशा ईमानदारी का प्रतीक माना गया। विदेशी निवेशक टाटा नाम पर आंख बंद करके भरोसा करते थे। लेकिन अगर अब यह नाम भी धूमिल हो गया, तो भारत की साख पर कितना बड़ा आघात लगेगा?

नोएल एन टाटा पर आरोप है कि उन्होंने पारदर्शिता की पूरी रीढ़ तोड़ दी है। ट्रस्टियों को उनके अधिकारों से वंचित कर दिया गया है। बड़े-बड़े निर्णय सिर्फ़ तीन नामित निदेशकों ने कर लिए, बाकी को भनक तक नहीं लगी। 1000 करोड़ रुपये की रकम टाटा इंटरनेशनल लिमिटेड को दे दी गई, जबकि न तो यह ऋण था और न ही इसके पीछे कोई संपत्ति। यह सीधा-सीधा निवेशकों के साथ विश्वासघात है।

अब सवाल यह है कि अगर नोएल एन टाटा जवाबदेह नहीं हैं तो जवाबदेही किसकी है? क्या भारत के लाखों निवेशक यूं ही ठगे जाते रहेंगे? क्या सरकार की जिम्मेदारी नहीं बनती कि वह इस पर कठोर कार्रवाई करे? जब आम कंपनियों पर सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स का शिकंजा कसता है, तो टाटा ग्रुप जैसी बड़ी कंपनी पर क्यों नहीं? क्या बड़े नाम की आड़ में कानून से बच निकलना इतना आसान है?

याद कीजिए, रतन टाटा ने अपने जीवनकाल में कभी भी ट्रस्टियों को अंधेरे में नहीं रखा। उन्होंने हमेशा संस्थान को मजबूत करने के लिए पारदर्शिता को हथियार बनाया। लेकिन आज उनके ही नाम पर उनके रिश्तेदार पूरी व्यवस्था को नष्ट करने पर तुले हैं। यह सिर्फ़ टाटा घराने का नहीं, बल्कि भारत की छवि का अपमान है।

यहां सवाल सिर्फ़ घाटे का नहीं है। सवाल यह भी है कि इस घाटे से किसका फायदा हुआ? क्या कोई बैकएंड कमीशन का खेल खेला गया? क्या किसी ने इस घाटे के बहाने अपनी जेबें भरीं? अगर सब पारदर्शी था तो फोरेंसिक ऑडिट क्यों नहीं हुआ? क्यों ट्रस्टियों की मांग को नजरअंदाज कर दिया गया?

वहीं, टाटा संस के भीतर नियुक्तियों पर भी सवाल उठ रहे हैं। आरोप है कि संस्थान की गौरवशाली परंपरा को ताक पर रखकर नियुक्तियां की जा रही हैं। योग्य लोगों को किनारे कर अपने लोगों को आगे बढ़ाया जा रहा है। यह संस्थान के साथ छल है। यह उन लाखों लोगों के साथ धोखा है जो टाटा समूह पर गर्व करते थे।

आज हालात यह हैं कि टाटा ग्रुप पर न सिर्फ़ वित्तीय संकट का साया है, बल्कि नैतिक संकट भी गहराता जा रहा है। जिन सिद्धांतों पर यह साम्राज्य खड़ा था, वे आज नोएल एन टाटा और उनके साथियों की महत्वाकांक्षाओं के आगे बौने साबित हो रहे हैं। और यही वजह है कि आज टाटा घराने की साख खतरे में है।

आज सवाल सिर्फ़ टाटा ग्रुप की वित्तीय सेहत का नहीं है। सवाल यह भी है कि क्या भारत जैसे लोकतांत्रिक और क़ानून-व्यवस्था वाले देश में कोई भी व्यक्ति इतना ताक़तवर हो सकता है कि वह नियमों को धत्ता बताकर, ट्रस्टियों को किनारे कर, और करोड़ों-करोड़ रुपये के फैसले अकेले ले ले? अगर ऐसा है, तो फिर टाटा ग्रुप और बाकी कॉर्पोरेट हाउसेज़ में अंतर ही क्या रह जाएगा?

ट्रस्टियों की तरफ़ से बार-बार यह मांग उठाई जा रही है कि नोएल एन टाटा और उनके साथियों पर लगे आरोपों की उच्च स्तरीय जांच हो। सवाल ये भी है कि क्या टाटा संस और टाटा ट्रस्ट्स अब सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों की निजी जागीर बनकर रह गए हैं? क्या यह संस्था अब उस पवित्रता से वंचित हो चुकी है, जिसे दशकों तक रतन टाटा ने अपनी मेहनत और ईमानदारी से बनाए रखा था?

विजय सिंह और वेणु श्रीनिवासन जैसे नामों पर भी गंभीर सवाल हैं। 77 साल की उम्र में विजय सिंह अब भी निदेशक बने हुए हैं, जबकि अन्य कंपनियों में लोग सम्मानपूर्वक सेवानिवृत्त हो चुके हैं। आरोप यह भी है कि जानकारी छुपाकर उनका कार्यकाल बढ़ाया गया। अगर यह सच है, तो यह सीधे-सीधे संस्थान की गरिमा पर चोट है।

वेणु श्रीनिवासन टीवीएस और सत्य साईं बाबा ट्रस्ट से तो हट चुके हैं, लेकिन टाटा संस से क्यों चिपके हुए हैं? क्या वजह है कि नियमों को तोड़कर वे वाइस चेयरमैन जैसे पद पर बने हुए हैं? और अगर टाटा संस के संविधान में वाइस चेयरमैन का पद ही नहीं है, तो फिर यह पद उन्हें दिया कैसे गया? क्या सिर्फ़ इसलिए कि कोई सर्कुलर पास कर दिया गया और बाकी ट्रस्टियों को भनक तक नहीं लगी?

यह सारे सवाल न सिर्फ़ टाटा घराने के लिए शर्मनाक हैं, बल्कि पूरे देश के लिए भी चिंता का विषय हैं। क्योंकि टाटा ग्रुप सिर्फ़ एक कंपनी नहीं है। यह भारत की पहचान है। यह वह नाम है, जिस पर करोड़ों भारतीयों को गर्व है। अगर इस पर ही धब्बा लग गया, तो दुनिया में भारत की छवि को कौन बचाएगा? आज जरूरत है सख्त कार्रवाई की।

जरूरत है कि इस पूरे मामले की फोरेंसिक जांच हो। जरूरत है कि हर एक रुपये का हिसाब लिया जाए। और जरूरत है कि नोएल एन टाटा और उनके साथियों से पूछा जाए कि आखिर किस अधिकार से उन्होंने इतने बड़े-बड़े फैसले अकेले लिए। अगर आज यह आवाज़ नहीं उठी, तो कल को हर बड़ा घराना इसी राह पर चल पड़ेगा। नियम किताबों में रह जाएंगे और लालच संस्थान की आत्मा पर कब्जा कर लेगा।

इसलिए ट्रस्टियों की मांग जायज़ है। इसलिए जांच होना अनिवार्य है। और इसलिए नोएल एन टाटा और उनके साथियों की जवाबदेही तय करना ही होगा। टाटा ने हमेशा भारत का मान बढ़ाया है। लेकिन अगर अब वही समूह देश की बदनामी का कारण बनने लगे, तो यह न सिर्फ़ निवेशकों का, बल्कि पूरे देश का विश्वासघात होगा। भारत की जनता को यह जानने का पूरा हक़ है कि टाटा जैसे समूह में हो क्या रहा है।

और अंत में सवाल वही है क्या नोएल एन टाटा जैसे लोग भारत की सबसे बड़ी औद्योगिक विरासत को अपनी निजी जागीर में बदल देंगे? या फिर देश की आवाज़ उठेगी, सच्चाई सामने आएगी और टाटा नाम एक बार फिर अपनी ईमानदारी और भरोसे के लिए जाना जाएगा? आज वक्त है कि देश यह तय करे कि टाटा समूह में नियम चलेगा या तानाशाही। पारदर्शिता बचेगी या लालच हावी होगा। यह फैसला सिर्फ़ टाटा ग्रुप का नहीं, यह फैसला भारत के भविष्य का भी है।

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