पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉग: बैंको की साख नहीं बचेगी तब सियासी अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी साहब
By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: April 17, 2018 08:08 PM2018-04-17T20:08:39+5:302018-04-17T20:08:39+5:30
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से बरस दर बरस के हालात को देखें तो बैंको को चूना लगाने की रकम में कमी नहीं बल्कि बढ़ती गई।
आंकड़े रिजर्व बैंक के हैं जो बताते हैं कि देश के 21 सरकारी बैंको ने बीते तीन बरस में 2,72,558 करोड़ रुपये बांटे पर वसूली सिर्फ 29,343 करोड़ रुपये की ही कर पाये। यानी महज 10 फीसदी। यानी बैंको में जमा जनता को भरोसा कैसे हो कि उनका रुपया बैंक में सुरक्षित है। या फिर सरकार अगर दिल खोल कर लूटे गये रुपये को बट्टे खाते में डाल रही है तो फिर देश की इकोनॉमी जिस रास्ते पर हैं उसमें क्या महज जीडीपी ग्रोथ यानी विकास दर देखी जाये या जनता का बैकिंग प्रणाली उठते भरोसे को देखे। या फिर जनता के पैसे से रईसो को रुपया बांटने का विकास खेल।
यह दोनो सवाल क्यो महत्वपूर्ण है इससे जानने से पहले देश के डाप मोस्ट 10 बैको का हाल देख लिजिये किसने कितना रुपया बांट दिया और कितनी वसूली की । रिजर्व बैक के ही मुताबिक 2014 से दिसबंर 2017 तक यानी तीन बरस में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने 1,02,587 करोड रुपये दिये पर वसूले सिर्फ 10,396 करोड। दूसरे नंबर पर पीएनबी है जिसने 27,814 करोड रुपये बांटे और वसूले सिर्फ 6,270 करोड रुपये। बैक आफ इंडिया ने 17,790 करोड बरुपये बांट पर वसूली सिर्फ 1,099 करोड। आईडीबीआई ने 16,568 करोड रुपये बांटे पर वसूली सिर्फ 479 करोड रुपये की ही हुई तो केनरा बैंक ने 13,971 करोड बांटे पर वसूली की सिर्फ 3,348 करोड रुपये की। कारपोरेशन बैंक ने 10,790 करोड रुपये बांटे पर वसूले सिर्फ 562 करोड रुपये। इसी तरह बैक आफ बडौदा ने 10,571 करोड बांटे पर वसूले सिर्फ 915 करोड। इंडयन ओवरसीज बैंक ने 10,470 करोड बांटे और वसूले सिर्फ 10 करोड रुपये।
पर सबसे खास तो यूको बैक है। जिसने 6,087 करोड रुपये कर्ज के तौर पर दे तो दिये पर वसूली अघन्नी भी नहीं कर पायी। यानी जीरो वसूली। ऐसे में अगला सवाल यही है कि सरकार अगर बैकिंग सर्विस को ठीक रखने के लिये कर्जदारो के कर्ज माफ कर तमाम रकम बट्टे खाते में डाल रही है। तो फिर इक्नामी में जनता की भागेदारी है कहा। रईसो पर कोई रोक-टोक नहीं है तो असमान होते हालात पर रोक कैसे लगेगी। और सबसे बडा सवाल तो यही है कि क्या देश का सोशल इंडकेक्स उसी पूंजी पर जा टिका है जिसे एक तबका बैक से कर्ज लेकर दुनिया के बाजार में सबसे रईस कंज्यूमर बन जाता है और जीडीपी ग्रोथ का बेस एक फिसदी भारतीयो के इक्नामी हो जाती है। जिसने देश की समूची अर्थव्यवस्था पर कब्जा कर लिया है।
शायद इसीलिये शहर दर शहर अगर एटीएम से पैसे निकल नहीं रहे तो फिर कैश खत्म ना हो जाये ये डर तो हर खातेदार में समाया ही होगा। पर पहली बार सवाल महज खातेदारो का नहीं बल्कि बैकिंग सर्विस के आसरे चल रही उस इकनामी का है जिसमें सरकार खुद ही कह रही है कि लगातार कर्ज बढते गये। तो सवाल कई है। पहला, बैको का जो मतलब जनता के लिये है अलग है रईसो के लिये अलग। दूसरा, बैक की सुविधा सत्ता के जरीये रईसो के लिये अलग है जनता के लिये अलग। तीसरा , जनता को कम इंटरेस्ट देकर रईसो को ज्यादा इंटरेस्ट पर ना लौटाने वाला कर्ज दिया जाता है । चौथा, सरकार एक वक्त के बाद रईसो की रकम माफ कर बैक चलाये रखने की इक्नामी पर काम करने लगती है।
जाहिर है ये ऐसे सवाल है जिनका जवाब कैश की कमी से देश में मची अफरा तफरी तले ध्यान ही नहीं दिया रहा है। और रुपये की लूट का सिलसिला अगर लगातार जारी है तो फिर देश की इक्नामी का मतलब सत्ता की नीतियो से बैकिंग सर्विस को बनाये रखने से आगे जाती भी नहीं है । क्योकि खुद वित्त राज्य मंत्री ने ही 27 मार्च को संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि 2014-15 में 49,018 करोड रुपये बट्टे काते में डाले गये। 2015-16 में 57,585 करोड बट्टे खाते में डाले गये। 016-17 में 81,683 करोड बट्टे खाते में डाले गये। 2017-18 में 84,272 करोड बट्टे काते में डाले गये।
यानी मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से बरस दर बरस के हालात को देखे तो बैको को चूना लगाने की रकम में बढतरी कमी नहीं बल्कि बढती गई। और सरकार भी जितनी रकम बट्टे खाते में लगा रही है वह भी लगातार बढ रही है। यानी बैकिंग सर्विस का रास्ता कर्जदारो की माफी पर जा टिका है। इक्नामी बट्टे में डाले जा रहे रकम की भरपाई कैसे करती है इस सवाल का जवाब कोई नही देता। और दूसरी तरफ जनता से लिये गये सेस की रकम जो 1,62,000 करोड से ज्यादा की है उसका कोई हिसाब किताब नहीं है।
ये सारे सवाल इसलिये क्योकि बरस दर बर कर्ज वसूली की कोई नीति कोई कानून काम ही नहीं करता ये खुल कर उभर रहा है। मसलन 2016-17 में 8,680 करोड की वसूली हुई तो 2017-18 में 7,106 करोड की ही वसूली हुई। यानी जिस दौर में देश में बहस तेज हो रही है कि इक्नामी डावाडोल है। और राजनीति ही सारे पैसे लेकर फुर्र हो जा रही है तब भी कर्जदारो से वसूली कम हो जाती है। तो क्या ये तरीके 2019 के चुनाव से आगे के हालात भी से बताने लगे है कि सत्ता चाहे जिसके पास आये पटरी पर हालात 2019 में भी आ नहीं पायेगें।