हृषिकेश मुखर्जी विशेष: ऐसा धाकड़ फिल्म डायरेक्टर, जिससे अमिताभ-धर्मेंद्र भी डरते थे
By जनार्दन पाण्डेय | Published: September 30, 2018 07:37 AM2018-09-30T07:37:05+5:302018-09-30T07:37:05+5:30
हिन्दी सिनेजगत में हृषिकेश के अविस्मरीय योगदान के लिए 1999 में उन्हें दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड से नवाजा गया।
फिल्म डायरेक्टर हृषिकेश मुखर्जी की रविवार को 96वीं जयंती है। हृषिकेश का जन्म 30 सितंबर, 1922 को हुआ था। वह कोलकाता (तब कलकत्ता) से थे। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से ही रसायन विज्ञान में स्नातक किया था। पढ़ने में वे तेज-तर्रार थे। पढ़ाई पूरी के बाद कुछ दिनों तक वह क्षेत्र में ही गणित और विज्ञान पढ़ाते रहे थे। लेकिन, पढ़ने-पढ़ाने से ज्यादा उन्हें थिएटर अपनी ओर खींचता था।
फिल्मफेयर की एक खबर के अनुसार हृषिकेश मुखर्जी कोलकाता से मुंबई आई उस जमात में शामिल हो गए थे, जिसमें बिमल रॉय समेत कई सृजनात्मक लोग अपनी सिनेमाई जमीन तलाशने वहां से यहां आए थे। लेकिन रोजी-रोटी के लिए हृषिकेश ने मुंबई में न्यू थियेटर बतौर कैमरामैन काम शुरू कर दिया।
इसी जद्दोजहद में उनकी मुलाकात फिल्म एडिटर सुबोध मित्र से हुई। फिल्मों में जाने की ललक में उन्होंने सुबोध से सीखकर फिल्म एडिटिंग की अच्छी समझ बना ली। इसके बाद उन्होंने फिर से बिमल रॉय का साथ थामा और तब बनी रही दो फिल्में 'दो बीघा जमीन' और 'देवदास' में असिस्टेंड डायरेक्टर के तौर पर जुड़ गए।
बाद में ये दोनों ही फिल्म कल्ट क्लासिक साबित हुईं। इन फिल्मों ने हृषिकेश के लिए काम के दरवाजे खोले। इसके बाद हृषिकेश ने मुड़कर कभी नहीं देखा। उनके नजरिए से निकली सिनेमा की नई धार, आनंद, गोलमाल, चुपके-चुपके, मिली, सत्यकाम, अनुपमा ने वह लकीर बनाई जिसकी कमान आज राजकुमार हिरानी, सुजित सरकार सरीखे निर्देशक-लेखक संभाल रहे हैं।
हिन्दी सिनेजगत में हृषिकेश के अविस्मरीय योगदान के लिए 1999 में उन्हें दादा साहेब फाल्के अवार्ड से नवाजा गया। भारत सरकार ने उन्हें देश का दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से भी नवाजा था। उन्होंने फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड के चेयरमैन पद को सुशोभित किया था।
फिल्म जगत में उन्हें शूटिंग से पहले सीन ना बताने वाले, कड़क और सुपरस्टारों की अकड़ ना झेलने वालों निर्देशकों में गिना जाता है। हालांकि उन्हें अमिताभ बच्चन, जया बच्चन (तब जया भादुड़ी), धर्मेंद्र, अमोल पालेकर सरीखे कलाकारों को इंडस्ट्री में स्थापित करने के लिए भी पहचाना जाता है। उन्हें सुपरस्टारों के अंदर से कलाकार को निकालने के भी पहचाना जाता है। जिसके लिए खुद बड़े स्टार कई साक्षात्कारों में कह चुके हैं, हृषि दा ना होते तो बड़े पर्दे पर कई रूप दिख ही नहीं पाते।
'चुपके-चुपके' के इस दृश्य में हृषिकेश ने अमिताथ-धर्मेंद्र को लगाई थी डांट
एक इंटरव्यू में हृषिकेश मुखर्जी को याद करते हुए धर्मेंद्र बताते हैं कि वे अपने काम को लेकर बेहद सचेत रहते और किसी को उसमें दखलअंदाजी का मौका ना देते। ऐसी ही छोटा सा वाकया चुपके-चुपके के सेट पर घटा था। एक दृश्य की शूटिंग थी। असरानी फिल्म में ड्राइवर की भूमिका में थे वे आमतौर पर ड्राइवर की ही ड्रेस में रहते। लेकिन उस दिन सूट-बूट टाई में खड़े थे।
धर्मेंद्र सेट पर पहुंचे तो उन्हें ड्राइवर का कॉस्टूम पहनने को दिया गया। इस पर धर्मेंद्र असरानी से सवाल कर बैठे कि क्या चल रहा है। तभी सेट पर चेस सजाकर बैठे हृषिकेश ने आवाज लगाई- धरम कहानी काम मेरा है। तू एक्टिंग पर ध्यान दे। इसके आगे धर्मेंद्र कुछ ना बोल पाए।
कुछ वक्त सेट पर पहुंचे अमिताभ ने भी यही सवाल दाग दिया। इसपर हृषिकेश चिढ़ गए। उन्होंने धर्मेंद्र से अमिताभ को समझाने को कहा। उन्होंने फिर दोहराया अगर कहानी तुम्हें ही पता होती तो तुम फिल्म डायरेक्ट नहीं कर रहे होते। इसके बाद धर्मेंद्र और अमिताभ दोनों शांत होकर अपने सीन के तैयार हो गए।
'आनंद' में इस बात से नाराज होकर अमिताभ ने बंद कर दी थी हृषिकेश से बात
अपनी तमाम शख्तियों के बावजूद हृषिकेश मुखर्जी को कर्ठ बार स्टारों की टक्कर में फंसना पड़ा। एक ऐसा ही वाकया हर बताया जाता है कि आनंद फिल्म में आनंद का किरदार अमिताभ को मिलने वाला था। जबकि बाबू मोशॉय के किरदार में राजेश खन्ना नजर आने वाले थे।
लेकिन किसी तरह राजेश खन्ना को इसका अंदाजा हो गया कि फिल्म में आनंद का किरदार ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसके बाद वह आनंद का किरदार करने पर अड़ गए। हृषिकेश को बाद में यह बात माननी पड़ी। लेकिन जब अमिताभ को यह बात चली कि अमिताभ को बिन बताए हृषिकेश ने इतना बड़ा फैसला ले लिया तो वे नाराज हो गए। फर्स्ट पोस्ट की एक खबर के अनुसार इस वाकये के बाद अमिताभ ने कई दिनों तक हृषि दा से बातचीत बंद रखी थी।
लता मंगेशकर हृषिकेश मुखर्जी के बारे में ये है राय
लता मंगशकर ने अपने कई पत्रिकाओं और टीवी इंटरव्यू के दौरान हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों की तारीफ की है। उनका कहना है कि हृषिकेश, गुरुदत्त, शांताराम और बिमल रॉय सरीखे फिल्मकारों की सूची में शामिल थे, जिनकी जिनकी फिल्मों में असल हिंदुस्तान दिखता है। गांव और शहर की असल कल्पनाएं सामने आती हैं।
उनकी फिल्मकारी की सबसे अहम बात ये होती थी कि उनमें मनोरंजन का स्तर किसी कमर्शियल फिल्म से कम ना होता जबकि संजीदगी के मामले में किसी आर्ट फिल्म से कम ना हो। आज के फिल्मकारों में इस धारा की भारी जरूरत महसूस होती है। कुछ फिल्मकार इसे आगे भी ले जा रहे हैं।