Happy Birthday Gulzar जो लफ़्ज़ों से करते हैं अहसासों की मीनाकारी
By रंगनाथ | Published: August 18, 2018 07:24 AM2018-08-18T07:24:05+5:302018-08-18T08:48:52+5:30
Gulzar journey as an Indian writer: गुलजार का 18 अगस्त 1934 को अविभाजित भारत के झेलम में हुआ था। उनकी जन्मभूमि दीना अब पाकिस्तान में स्थित है।
एक शायर जो पिछले 58 सालों से लिख रहा हो, लोगों का प्यारा बना हुआ हो उसके बारे में कुछ भी कहने में कई मुश्किलें हैं. कुछ भी कह दो, बहुत कुछ छूट ही जाएगा. तबीयत और तरबीयत से शायर ये शख्श हिन्दी सिनेमा को मिल तो गया, लेकिन उतने में उसकी समाई न हुई. जी हाँ हम बाद कर रहे हैं गुलजार की। आज 18 अगस्त को हम सबके प्यारे गीतकार और शायर गुलज़ार का जन्मदिन है।
गुलजार साहित्य में भी उतनी ही दखल रखते हैं जितना सिनेमा में। वो उतने ही उम्दा निर्देशक हैं, जितने उम्दा लेखक। शायर संपूरण सिंह कालरा देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से मुंबई आये और पहले गुलज़ार दीनवी बने और फिर हमेशा के लिए गुलज़ार हो गये।
बंटवारे का दंश झेलने और अपनी जन्मभूमि दीना से बेदर-बेघर होने के बावजूद वो एक नरम मिजाज और नाजुक महीन अहसासों के शायर बने रहे।
अस्सी के होने से चंद साल पहले वो लिख रहे थे, 'दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी'
गुलजार ने 1963 में 'आँखों की ख़ुशबू' को महसूस करके हिन्दी सिनेमा में अपनी आमद दर्ज करायी। बंदिनी फिल्म का यह गीत आज 55 साल बाद भी लोकप्रिय है-
'हमने देखी है उन आंखों की महकती ख़ुशबू, हाथ से छूकर इसे रिश्तों के इल्ज़ाम न दो।'
उस दौर के कई शायरों को लगा कि ये नया शायर थोड़ा बेअदब है।।।जो आंखों की गहराई, रोशनी, चमक, की जगह उनमें ख़ुशबू ढूंढ रहा है, लेकिन वो शायर तो कुछ ऐसा ही था, जिसने शायद हिन्दी सिनेमा में पहली बार एक स्त्री मन को पढ़ा, आधुनिक स्त्री मन को।
वरना, उससे पहले किसने स्त्री की मनोरचना में किसी पुरुष के कांधे के एक तिल की जगह को किसने पहचाना था? उससे पहले के शायर तो स्त्रियों के ही तिल निहारते आ रहे थे।
गुलज़ार से पहले हिन्दी शायरी (चाहे फ़िल्मी हो ग़ैर-फ़िल्मी) बड़ी ही मर्दवादी किस्म की शायरी थी। शायद ही किसी ने स्त्री मन को इतनी बारीकी से पढ़ा होगा, जितना इस एक शायर ने पढ़ा है। पढ़ा कहना शायद ग़लत होगा, इस शायर ने स्त्री मन को सबसे अधिक महसूस किया है।
गुलजार के सिवा नायिका की इतनी ही ख्वाहिश को इसे सादगी से कौन शब्द दे सकता था-
बोलो क्या तुम बस इतना सा मेरा काम करोगे
मेरे जिस्म पर उंगली से अपना नाम लिखोगे
इसके बावजूद, वो कहते हैं, “मैं कोई फ़िलोसॉफ़र नहीं हूं। मेरे दिमाग़ में बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन दिल में है, इसलिए महसूस ज़्यादा करता हूं और सोचता कम हूं।”
हमेशा चौड़े पांयचे वाला सफ़ेद पायजामा और कुर्ता पहनने वाले गुलजार कभी ऊबते नहीं। उन्हें हमेशा एक ही तरह के कपड़ों में देखकर ख़्याल आता है कि ऐसी भी क्या सादादिली, लेकिन अगर वो इतने सादादिल न होते तो, शायद गुलज़ार न होते।
वो चाहे जितने भी नामवर-नामचीन हो गये हों, ख़ुद को लेकर हमेशा एक सायास एहसास-ए-कमतरी बनाए रखते हैं। ये उनकी शाइस्तगी ही है कि सार्वजनिक मंच पर वो कह सकते हैं, "मेरी वाइफ कहती हैं कि अगर तुम शायर न होते तो बड़े ही आर्डिनरी आदमी होते।"
उनके पास अपने हर एहसास को कहने का एक बड़ा ही नर्म लहज़ा है। अगर वो तल्ख़ भी होते हैं तो भी बहुत ही तहजीब के साथ। वो अदब जीते हैं इसलिए उन्हें बेअदबी नहीं सुहाती।
फ़िल्मी दुनिया में एक वही है जो एक बेस्ट सेलर लेखक को शब्दों के शऊर-बेशऊरी पर सरेआम डांट सकते हैं।
वो बच्चों के लिए कहानियाँ लिखते हैं। ऑस्कर, ग्रैमी, पदम पुरस्कार, राष्ट्रीय पुरस्कार और न जाने कौन कौन से दूसरे इनाम-ओ-इकराम जीत चुके हैं।
हिन्दी-उर्दू-बांग्ला-पंजाबी समेत कई भाषाएँ उनकी रगों में बहती हैं। वो खुद कहते हैं कि मैं ग़ालिब की पेंशन खा रहा हूँ। वो ख़ुद कहते हैं मेरे उस्ताद शैलेंद्र जो कुर्सी छोड़ गए थे, मैं उसके बगल में खड़ा हूँ, बैठने की हिम्मत नहीं होती।
लेकिन उनका सबसे साफ़ अक्स उभरता है उसकी खुद की बनाई फ़िल्मों में। मन के भूगोल का यह सैलानी उसके कोने-कोने क़तरे-क़तरे से वाक़िफ दिखता है।
हिन्दी सिनेमा में आज भी ग़ालिब, शैलेंद्र, बिमल रॉय, एसडी बर्मन की विरासत को अपने कंधे पर उठाए यह सफ़ेद लिबास शफ़्फ़ाफ़ ख्याल शायर जो भी लिखता है उससे पिछले 58 सालों से उसके चाहने वालों को, 'शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा।