'ए फॉर अंतरा', मन में पनपने वाली इनसिक्योरिटी को कैमरे में कैद करती एक शॉर्ट फिल्म
By आशीष कुमार पाण्डेय | Published: July 30, 2022 10:19 PM2022-07-30T22:19:02+5:302022-07-30T22:38:19+5:30
कई अर्थों में फिल्म 'ए फॉर अंतरा' देखने पर खर्च होने वाले समय को उस दौर के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। जब अर्धसत्य, निशांत, अंकुर और उस जैसी तमाम फिल्मों में समाज के जूझते हुए आम आदमी के संघर्ष को सैल्यूलाइड के पर्दे पर उतारा जाता था।
मुंबई: शॉर्ट फिल्म 'ए फॉर अंतरा' जिंदगी के कुल जमा 13 मिनट खर्च करने का नाम है। जहां फिल्मकारों ने दशकों से सिनेमा के जरिये संजीदा बातों को कहने पर चुप्पी साध ली है। जहां समानांतर सिनेमा कमर्शियल सिनेमा की चोट तले घायल होकर अतीत में गुम होने की कगार पर खड़ा है। जहां सिनेमा घरों के एक शो के टिकट का बजट निम्न घर के एक दिन के बजट से ज्यादा हो गया है तो ऐसे में लगता है कि सिनेमा होने के मायने या जन सरोकार की बातों पर बनने वाला सिनेमा आज खामोशी से अपनी कब्रगाह तलाश रहा है।
लेकिन कई अर्थों में 'ए फॉर अंतरा' देखने पर खर्च किये समय को उस दौर के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। जब अर्धसत्य, निशांत, अंकुर और उस जैसी तमाम फिल्मों में समाज के जूझते हुए आम आदमी के संघर्ष को, उसके अंतर्द्वंद्व को, उसकी आत्मअसुरक्षा की भावना, जिंदगी के हादसे को परिभाषित करते हुए सैल्यूलाइड के जरिये 70 एमएम के पर्दे पर बेहद बारीकी से उतारा जाता था।
यह कहते हुए आज अफसोस होता है कि मसखरेपन और सतही कथानक के कारण आज का सिनेमा अपनी उस गंभीरता को खो रहा है। जिसे कभी सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, मृणाल सेन, मणि कौल, अदूर गोपालकृष्णन से लेकर श्याम बेनेगल और सइद मिर्जा जैसे तमाम फिल्म निर्देशकों ने अपने तरीके से गढ़ा था।
खैर, बात करते हैं जिंदगी के कुल जमा 13 मिनट के खर्च होने पर यानी 'ए फॉर अंतरा' पर। फिल्म एक ऐसे स्ट्रगलर एक्ट्रेस अंतरा की कहानी बयां कर रही है, जो कई तरह के अंतर्द्वंद के गुजर रही है। एक पितृसत्तात्म समाज में अपनी हारी हुई बाजी के पलटने के लिए संघर्ष करने वाली अंतरा उम्र के साथ खोते जा रहे एक्टिंग के करियर को लेकर बेचैन है।
जब वक्त की धुंध इंसान की काबिलियत को चुपके से असफलता की चादर तले छुपाने लगती है तब एक अजीब की कसमसाहट होती है। दम घुटने के एहसास के बीच जिंदगी से लड़ने का माद्दा रख पाना वाकई आसान नहीं होता। फिल्म की शुरूआत से ही अंतरा के मन में कई तरह के द्वंद चल रहे हैं।
दरअसल अंतरा की कहानी हमारे समाज में हर उस लड़की की कहानी है, जो आजाद होकर घर की दहलीज नहीं लांघ सकती है। वो तमाम तरह की बंदिशों में जाने के लिए मजबूर है क्योंकि हमारे समाज की मर्दवादी सोच के बीच वो बार-बार सोचती है कि कहीं कम कपड़े पहनेगी तो उसका रेप हो जाएगा या फिर अगर उस पीड़ा से बच भी गई तो लोगों के ताने और छेड़खानियां तो उसके पीछे लगी ही रहेंगी।
कुछ-कुछ इसी तरह की मानसिकता या कहें की सोच को बयां करने वाली अंतरा की कहानी। करियर में सफ़ल टीवी एक्ट्रेस होने का बाद एक दिन अंतरा एक ऐसे हादसे का शिकार होती है, जो उसकी पूरी जिंदगी को बदल कर रख देता है। आखों के सामने हुई प्रेमी की हत्या उसके जीवन को ऐसा झंकझोरती है कि ख्वाब और सोच सामान्य नहीं रह जाते।
हर तरफ एक अजीब तरीके की कशमकश है। कोई उसे चैलेंज कर रहा है घर के बाहर क्रूर जिंदगी में मुकाम बनाने के लिए तो कुछ उसे दहलीज के भीतर कैद करना चाहते हैं। अंतरा अनंत में जाकर उस सीमा रेखा को लांघना चाहती है, जिसे आज के दौर में हर लड़की की तमन्ना कहा जा सकता है।
फिल्म अपने अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचकर भी प्रश्नवाचक बनी रहती है। इस 13 मिनट की फिल्म के लिए हर किसी का अलग-अलग परसेप्शन हो सकता है क्योंकि फिल्म अंत में खामोश होते हुए चिखती है।
कुल जमा 13 मिनट की इस फिल्म के डायरेक्टर अंशुमान चतुर्वेदी हैं। जामिया मिल्लिया के एमसीआरसी से डिग्री लेने के बाद दशकों से मुंबई में हैं। कई फिल्मों का निर्देशन करने के अलावा वो कई टीवी सिरियल्स भी लिख चुके हैं। फिल्म 'ए फॉर अंतरा' का निर्माण राहुल दत्ता ने किया है।
फिल्म में अंतरा की दमदार भूमिका मनुकृति पाहवा ने निभाई है। वहीं उनसे साथ फिल्म में शामिल सह कलाकारों का नाम नीलू डोगरा, आरिफ लाम्बा और सक्षम शुक्ला ने अपने एक्टिंग के तानेबाने से फिल्म को बखूबी बुनने का काम किया है। फिल्म 'ए फॉर अंतरा' डिज्नी हॉटस्टार पर उप्लब्ध है। (अस्वीकरण: फिल्म समीक्षा लेखक का अपना विचार है, इसका लोकमत समाचार से कोई संबंध नहीं है। लेखक इसके लिए स्वयं जिम्मेदार है)