विकास से परहेज करते देश के पिछड़े राज्य
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: September 30, 2018 10:30 AM2018-09-30T10:30:21+5:302018-09-30T10:30:21+5:30
नई रिपोर्ट में बताया गया था कि जहां भारत ने पिछले दस वर्षो में यानी 2005-06 से 2015-16 तक अपनी गरीबी (55 प्रतिशत से 28 प्रतिशत) आधी खत्म कर ली वहीं कुछ राज्य जैसे बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश अभी भी घिसटते हुए चल रहे हैं।
(एन. के. सिंह)
विश्व बैंक ने एक नया शब्द -समूह बनाया है --- रिफ्यूजिंग-टु-डेवलप-कंट्रीज (आरडीसीज) यानी हिंदी में कहें तो ‘विकास से परहेज करने वाले देश’ (विपद)। इसका प्रयोग बैंक ने दक्षिण एशियाई देशों की विकास के प्रति स्पष्ट संभावनाएं रहते हुए भी उदासीनता को लेकर विगत सोमवार को जारी अपनी एक रिपोर्ट में किया है। अगर भारत के विकास विश्लेषक इसका प्रयोग करना चाहें तो उत्तर भारत के कम से कम चार बड़े राज्यों के लिए, जिनमें से कुछ के लिए एक जमाने में अर्थशास्त्नी आशीष बोस ने ‘बीमारू’ राज्य शब्द -संक्षेप गढ़ा था, कर सकते हैं। यानी ‘विकास से परहेज करने वाले क्षेत्न’ (विपक्ष)।
इस रिपोर्ट के 72 घंटे पहले संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्र म (यूएनडीपी) ने भी एक रिपोर्ट जारी की जो दुनिया के देशों के अलावा भारत के राज्यों में लोगों की गरीबी-जनित अभाव की स्थिति को लेकर है जिसे बहु-आयामी गरीबी सूचकांक (मल्टी -डायमेंशनल पावर्टी इंडेक्स एमपीआई) कहते हैं। दरअसल इस सूचकांक को सन् 2010 में मानव विकास सूचकांक के सभी तीन पैरामीटर्स-–जीवन-स्तर, शैक्षणिक और स्वास्थ्य-संबंधी-- और उनसे पैदा हुए अभाव के कुल दस पैरामीटर्स को लेकर बनाया गया है।
इसके अनुसार जहां केरल हमेशा की तरह अव्वल रहा है वहीं बिहार हमेशा की तरह सबसे नीचे के पायदान पर। शायद विंस लोम्बार्डी के उस मशहूर कथन को चरितार्थ करते हुए- ‘विनिंग इज अ हैबिट, अनफॉर्चुनेटली सो इज लूजिंग’’ (जीतना एक आदत होती है , दुर्भाग्य से हारना भी)।
इस नई रिपोर्ट में बताया गया था कि जहां भारत ने पिछले दस वर्षो में यानी 2005-06 से 2015-16 तक अपनी गरीबी (55 प्रतिशत से 28 प्रतिशत) आधी खत्म कर ली वहीं कुछ राज्य जैसे बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश अभी भी घिसटते हुए चल रहे हैं और इनमें देश के कुल गरीबों का आधे से ज्यादा हिस्सा (19।60 करोड़) शाश्वत गरीबी और तज्जनित अभाव के गर्त से निकलने की आस में तिल-तिल कर मर रहा है।
यूएनडीपी के वे दस पैरामीटर्स हैं : पोषण, बाल मृत्यु, स्कूल जाने का काल, स्कूल में उपस्थिति, खाना बनाने वाले ईंधन की उपलब्धता, स्वच्छता, पेयजल, बिजली की उपलब्धता, घर और संपत्ति। रिपोर्ट के अनुसार, इन दस पैरामीटर्स में से सात में बिहार, दो में झारखंड (और उनमें से एक में मध्य प्रदेश भी साथ में )और एक में उत्तर प्रदेश सबसे नीचे हैं जबकि ठीक इसके उलट केरल दस में से आठ में, एक में दिल्ली और एक में पंजाब सबसे ऊपर हैं।
आखिर वजह क्या है इस हिंदी पट्टी के कुछ राज्यों के शाश्वत उनींदेपन की या यूं कहें कि विकास न करने की जिद की? मॉब लिंचिंग (भीड़ न्याय) में तो यही राज्य भारत में सबसे अव्वल हैं? अर्थात इन समाजों में सामूहिक चेतना जबरदस्त है जो अचानक सड़क पर ही न्याय कर डालती है फिर जो हाथ किसी को मारने के लिए उठते हैं वही बच्चे को पोषक भोजन खिलाने के लिए क्यों नहीं उठते या उस ठेकेदार के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो उसके गांव से निकलने वाली सड़क ऐसी बनाता है जो एक बरसात के बाद तालाब में तब्दील हो जाती है, या उस व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के खिलाफ आवाज उठाने में क्यों नहीं जो महीनों और सालों अनाथ आश्रम में मासूम बच्चियों से बलात्कार करते रहे हैं?
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चौथा चक्र) की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए बिहार के समाज कल्याण विभाग ने भी माना है कि प्रदेश में पैदा होने वाला हर दूसरा बच्चा (48।3 प्रतिशत) कुपोषण-जनित ठूंठपन (नाटा) या कम वजन का हो रहा है यानी भविष्य में एक बीमार नागरिक के रूप में रहेगा—शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी। विकास से परहेज का एक और उदाहरण देखें।
प्रधानमंत्नी फसल बीमा योजना अपनी पूर्ववर्ती तीन योजनाओं के मुकाबले एक बेहद अच्छी योजना है लेकिन बिहार एक अकेला राज्य था जिसने शुरू से ही इसका विरोध किया किसी न किसी बहाने। राज्य की अपनी स्वयं की योजना अमल के अभाव में दम तोड़ रही है। नतीजा यह कि हाल में नाबार्ड द्वारा जारी किसानों की आय संबंधी रिपोर्ट के अनुसार झारखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सबसे नीचे हैं वहीं पंजाब और हरियाणा सबसे ऊपर।
परिवार नियोजन के अमल में पिछले कई दशकों से पूरी तरह असफल या आपराधिक रूप से उदासीन रहने वाला कोई राज्य है तो वह है बिहार। आज बिहार का आबादी घनत्व 1105 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी राष्ट्रीय औसत से तीन गुना ज्यादा है जबकि उत्तर प्रदेश का लगभग दूना। दशकों से सरकारों की तरफ से जागरूकता अभियान के अभाव में बिहार में हर आठवां बच्चा 18 साल से कम की मां द्वारा पैदा होता है। यही वजह है कि बाल- एवं जननी- मृत्यु दर भी ज्यादा है।