आगाज तो अच्छा ही हुआ था, लेकिन कारवां न बन सका
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 15, 2018 08:14 AM2018-07-15T08:14:33+5:302018-07-15T08:14:33+5:30
वह शायद नौ या दस अगस्त 1947 की शाम थी। लाहौर में रह रहे शायर जगन्नाथ आजाद को दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना ने चाय का न्यौता भेजा। चाय पर मुलाकात के दौरान जिन्ना ने कहा, आजाद साहब! पाकिस्तान बन रहा है। आप इस मुल्क के लिए पहला कौमी तराना लिख दीजिए। आजाद ने हैरत से उन्हें ताका। जिन्ना ताड़ गए। बोले, क्या सोच रहे हैं? आपसे क्यों कह रहा हूं? अरे भाई !
- राजेश बादल
वह शायद नौ या दस अगस्त 1947 की शाम थी। लाहौर में रह रहे शायर जगन्नाथ आजाद को दोस्त मोहम्मद अली जिन्ना ने चाय का न्यौता भेजा। चाय पर मुलाकात के दौरान जिन्ना ने कहा, आजाद साहब! पाकिस्तान बन रहा है। आप इस मुल्क के लिए पहला कौमी तराना लिख दीजिए। आजाद ने हैरत से उन्हें ताका। जिन्ना ताड़ गए। बोले, क्या सोच रहे हैं? आपसे क्यों कह रहा हूं? अरे भाई ! जब हिंदुस्तान का सबसे मकबूल कौमी तराना - सारे जहां से अच्छा एक मुसलमान लिख सकता है तो पाकिस्तान का कौमी तराना हिंदू क्यों नहीं लिख सकता ? आजाद ने हां कर दी। बारह अगस्त को आजाद ने यह तराना - ऐ सर जमीने पाक।।।लिखा। जिन्ना ने मंजूर किया और चौदह अगस्त, उन्नीस सौ सैंतालीस की आधी रात को यह तराना पूरे पाकिस्तान ने सुना। करीब दो बरस यह पाकिस्तान का राष्ट्रगीत बना रहा। जब जिन्ना का निधन हो गया तो 1950 में इसे हटा दिया गया। आजाद साहब को लाहौर में धमकियां मिलने लगीं तो बेचारे जम्मू आकर बस गए। उन्हें उम्दा शायरी के लिए पाकिस्तान का प्रेसिडेंशियल अवार्ड भी मिला था।
ग्यारह अगस्त को पाकिस्तान की संविधान सभा में अपने भाषण में जिन्ना ने कहा , ‘पाकिस्तान में अब आप आजाद हैं। अपने मंदिरों में जाने के लिए आजाद हैं, मस्जिदों में जाने के लिए आजाद हैं, पूजा के किसी भी स्थल पर जाने के लिए आजाद हैं। आप किसी भी धर्म, जाति या नस्ल के हों, इससे इस देश को फर्क नहीं पड़ता। संविधान सभा की बहस का सारांश जस्टिस मोहम्मद मुनीर ने कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया- जिन्ना पाकिस्तान में एक धर्मनिरपेक्ष, चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार चाहते थे ताकि पाकिस्तान की राष्ट्रीयता किसी व्यक्ति विशेष की नस्ल और मजहब के आधार पर संचालित न हो। जिन्ना ने कहा था, ‘मैं नहीं जानता कि मजहब आधारित देश का मतलब क्या होता है। मुसलमानों ने तो 1300 साल पहले ही लोकतंत्न सीख लिया था।’ जाहिर था कि यह उन कट्टरपंथियों के लिए बड़ा झटका था जो मजहबी आधार पर ही पाकिस्तान के अस्तित्व को मानते थे और जिनके लिए लोकतंत्न का कोई मतलब नहीं था। संविधान सभा में जिन्ना के भाषणों से यह वर्ग इतना खफा हुआ कि उनके भाषणों के ये अंश ज्यादातर अखबारों में नहीं छपे। जिन्ना के बंगले में हथियारबंद मुस्लिम घुस गए। पकड़े जाने पर कहा कि वे जिन्ना की हत्या करने आए थे। ग्यारह सितंबर 1947 को लाहौर में सड़कों पर जिन्ना मुर्दाबाद के नारे लगे और उनका पुतला जला। उनकी हत्या के चार प्रयास नाकाम हो गए। उनके जीवित रहते ही करीबी दोस्त
डॉक्टर मोहम्मद अयूब खुहरो ने सार्वजनिक तौर पर जिन्ना की निंदा की और उन्हें कायदे आजम मानने से इनकार कर दिया, उन्हें काफिरे आजम कहा। समारोहों में उन्हें खुलेआम काफिर कहा जाने लगा। बात यहीं समाप्त नहीं होती। जब 11 सितंबर उन्नीस सौ अड़तालीस को जिन्ना का निधन हुआ तो जमाय इस्लामी के नेता मौलाना मौदूदी ने उनके नमाजे जनाजा का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया और जिन्ना की मौत पर सार्वजनिक तौर पर खुशियां मनाईं। मौत से पहले जिन्ना इतने अकेले थे कि 23 जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को पेशावर के फ्रंटियर पोस्ट में जिन्ना के कथन को लियाकत अली खां के हवाले से छापा, ‘मैंने अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है। अब अगर मुङो मौका मिलता है तो मैं फौरन दिल्ली जाऊंगा और जवाहरलाल से कहूंगा कि अतीत की मूर्खता पूर्ण गलतियों को भूल जाएं।’
लेकिन अब क्या हो सकता था। दस लाख से भी ज्यादा लोगों के संहार पर बना यह देश जिन्ना के बाद धीरे-धीरे लोकतंत्न की गलियों को भूलने लगा। पाकिस्तान की गाड़ी पटरी से उतर गई। हिंदुस्तान के लौह पुरुष सरदार पटेल को पाकिस्तान के भविष्य को लेकर कोई शंका नहीं थी। उन्होंने 3 जनवरी उन्नीस सौ अड़तालीस को कलकत्ता (आज का कोलकाता) में अपने भाषण में कहा था, ‘मैं पाकिस्तान से कहना चाहूंगा कि तुमने मुल्क हासिल कर लिया है। अब इसका आनंद लो। केवल जब तुम्हारे दांत खट्टे हो जाएंगे तो तुम हिंदुस्तान के पास आओगे। पाकिस्तान के अधिकारी कह रहे हैं कि उनके दुश्मन पाकिस्तान को तबाह करने की साजिश कर रहे हैं। मैं उनसे कहना चाहूंगा कि पाकिस्तान के दुश्मन पाकिस्तान के बाहर नहीं, बल्कि उसके भीतर ही हैं।’
जिन्ना के बाद देश में एक तरह से अंधकार युग सा आया। देश को चलाने के लिए कोई संविधान नहीं बन पाया था। जब भारत में संविधान लागू हो रहा था तो पाकिस्तान की संविधान सभा की बैठकें जारी थीं। पहला संविधान जिन्ना की मौत के आठ साल बाद यानी उन्नीस सौ छप्पन में मंज़ूर हुआ लेकिन इन आठ सालों ने पाकिस्तान की लोकतांत्रिक सेहत को बहुत नुकसान पहुंचा दिया था। अचानक पाकिस्तान के शिखर पर शून्य उभर आया। अनेक महत्वाकांक्षी नेताओं ने इस शून्य में अपना सपना पलते देखा। एक तरह से बंदरबांट की शुरुआत।
(राजेश बादल वरिष्ठ पत्रकार हैं)