Israel Iran: भयावह युद्ध की आग में झुलसता मध्य-पूर्व, क्या ईरान काबू में आ जाएगा?

By रहीस सिंह | Updated: June 20, 2025 05:54 IST2025-06-20T05:54:48+5:302025-06-20T05:54:48+5:30

Israel Iran: इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ‘ऑपरेशन राइजिंग लॉयन’ को उचित ठहरा रहे हैं और ईरान अपने ‘ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस’ को.

Israel Iran Middle East burning fire terrible war Iran come under control blog Rahees Singh | Israel Iran: भयावह युद्ध की आग में झुलसता मध्य-पूर्व, क्या ईरान काबू में आ जाएगा?

सांकेतिक फोटो

Highlightsअब प्रश्न यह उठता है कि इस संघर्ष के लिए दोषी किसे माना जाए?क्या यही 21वीं सदी की विशेषता होनी चाहिए? क्या अब समझौते और संधियों की कोई महत्ता नहीं रह गई?

Israel Iran: 13 जून 2025 को इजराइल ने ‘ऑपरेशन राइजिंग लॉयन’ के तहत ईरान पर प्री-एम्पटिव स्ट्राइक की.  इसके बाद से दोनों देशों के बीच हमले और जवाबी हमले का क्रम अभी भी जारी है. वैसे जिस प्रकार से ईरानइजराइल के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से बयान आ रहे हैं, उससे लगता है कि यह संघर्ष अभी रुकने वाला नहीं है. अब प्रश्न यह उठता है कि इस संघर्ष के लिए दोषी किसे माना जाए?

क्या यह संघर्ष रोका नहीं जा सकता था? क्या इसे मध्य-पूर्व में एक नए युद्ध की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है? प्रथम दृष्टया तो मध्य-पूर्व में एक और युद्ध छेड़ने के लिए इजराइल ही दोषी लगता है लेकिन वैदेशिक विषय जैसे दिखते हैं वैसे होते नहीं हैं. इसलिए इसे निष्कर्ष मानना उचित नहीं होगा.

अगर कुछ विदेशी, विशेषकर अमेरिकी अखबारों पर नजर डालें तो कुछ दिन पहले से ही यह संकेत मिलने लगा था कि इजराइल ईरान पर हमला करने वाला है. अमेरिकी प्रशासन को नेतन्याहू की मंशा पता थी, इसके बावजूद हमला हुआ है तो इसके निहितार्थ भी होंगे. यानी बात केवल तेल अवीव तक सीमित नहीं है, इसका वाशिंगटन कनेक्शन भी है.

अमेरिका के पास इजराइल का कोई विकल्प नहीं है. दूसरे शब्दों में कहें कि अमेरिका को यदि मध्य-पूर्व में अपने हितों की रक्षा करनी है तो उसे इजराइल का सहयोग करना ही होगा. यह कार्य अमेरिका ही नहीं, यूरोप के देश भी कर रहे हैं. एक प्रश्न यह भी है कि किसी भी देश की तरफ से ऐसी कार्रवाई जायज कैसे हो सकती है?

हम यह नहीं कह सकते कि कौन सही है और कौन गलत, लेकिन यह सवाल कर सकते हैं कि वह संस्था कहां है जिसे 1945 में स्थापित किया गया था, वैश्विक शांति के लिए. वही संयुक्त राष्ट्र संघ, जो हर समय गहरी नींद में दिखता है. अंतरराष्ट्रीय कम्युनिटी कहां है? इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू ‘ऑपरेशन राइजिंग लॉयन’ को उचित ठहरा रहे हैं और ईरान अपने ‘ऑपरेशन ट्रू प्रॉमिस’ को.

क्या यही 21वीं सदी की विशेषता होनी चाहिए? क्या अब समझौते और संधियों की कोई महत्ता नहीं रह गई? या फिर दुनिया के पास ऐसी लीडरशिप ही नहीं रह गई है जिसके नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय कम्युनिटी शांति के लिए संयुक्त प्रयास कर सके? क्या यह बढ़ते हुए कट्टर राष्ट्रवाद का परिणाम है (जैसे कि मेक अमेरिका ग्रेट अगेन) या फिर हथियारों पर बैठी दुनिया के नए ढंग का परिणाम है जहां सब कुछ लड़ाई से हासिल होने का दंभ पाल लिया गया है?  इजराइल यह कह सकता है कि ईरान ने इतने बड़े पैामने पर यूरेनियम को एनरिच कर लिया है कि उससे इजराइल के लिए चिंताजनक हालात निर्मित हो गए हैं.

अब ईरान को रोकने के लिए कठोर कदम उठाना जरूरी हो गया था. इजराइल यह भी कह सकता है कि चूंकि ईरान इजराइल को मध्य-पूर्व की देह पर कैंसर की तरह मानता है जिसे मिटाने के लिए वह प्रतिबद्ध है, इसलिए उस पर प्रथम प्रहार उसका अधिकार बनता है. चूंकि आईएईए भी यह मान चुकी है कि ईरान ने यूरेनियम को 60 प्रतिशत तक एनरिचमेंट करने में सफलता हासिल कर ली है,

इसलिए यह कहना उचित होगा कि ईरान परमाणु बम बनाने के बहुत करीब पहुंच गया है. ईरान की इस हैसियत को इजराइल ही नहीं बल्कि अमेरिका सहित पश्चिमी दुनिया भी स्वीकार नहीं कर पाएगी. और तो और, सुन्नी इस्लामी दुनिया भी यह स्वीकार नहीं कर पाएगी कि शिया लीडर मध्य-पूर्व में परमाणु ताकत बन कर उभरे और उनके लिए खतरा बन जाए.

यानि ईरान को अकेले जायनिस्ट इजराइल ही नहीं बल्कि पश्चिमी ईसाई दुनिया और मध्य-पूर्व की सुन्नी दुनिया भी रोकना चाहेगी. अब अगर इजराइल इस अर्थमेटिक्स को समझ रहा है तो उसे अमेरिकी प्रशासन की सहमति की जरूरत नहीं रह जाती. उसे मालूम है कि उसके पीछे खड़ा होना इन सबकी मजबूरी है. इसीलिए मध्य-पूर्व एक और युद्ध की चपेट में है.

दरअसल इस्लामी दुनिया शिया-सुन्नी में बंटी हुई है. जब पाकिस्तान ने परमाणु बम बनाया तो इसके काउंटर में ईरान भी बम बनाना चाहता था. वह उसके करीब पहुंच भी गया था लेकिन जुलाई 2015 में ब्रिटेन, चीन, फ्रांस, जर्मनी, ईरान, रूस और अमेरिका ने ज्वाइंट कंप्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन पर हस्ताक्षर कर इस पर अल्पविराम लगा दिया था.

2018 में अमेरिका ने यूनिलैटरली बाहर होने की घोषणा कर दी. उस समय ट्रम्प प्रशासन को लगा था कि ईरान घुटनों के बल आ जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति हसन रूहानी ने यह माना था कि नए अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण देश की हालत 1980-88 के बीच इराक से हुए युद्ध से भी बदतर हो गई है.

फिर भी ईरान झुका नहीं. इसके बाद ईरान ने यूरेनियम संवर्धन की जो सीमा करार में 3.67 प्रतिशत तय की गई थी उसे तोड़कर 2021 की शुरुआत में 20 प्रतिशत तक चला गया, तत्पश्चात उसने 60 प्रतिशत की सीमा भी पार कर दी. अब संभवतः वह इससे बहुत आगे बढ़ चुका है. अमेरिका धमकी और युद्ध जैसी युक्ति का इस्तेमाल एक साथ करके ईरान को काबू में लाना चाहता है.

क्या ईरान काबू में आ जाएगा ? वैसे इसका उत्तर अभी नहीं बल्कि तब मिल पाएगा जब चीन और रूस अपने पत्ते खोल देंगे. अभी बहुत कुछ छुपा हुआ है. जो भी हो, मध्य-पूर्व दुनिया का वह हिस्सा है जहां वैश्विक शक्तियां प्रायः गेम खेलती रही हैं. यह भी एक गेम है जिसके नियम तय नहीं हैं.  

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