रहीस सिंह का ब्लॉग: बीजिंग-इस्लामाबाद-काबुल संबंधों के समझने होंगे निहितार्थ
By रहीस सिंह | Published: October 18, 2021 01:32 PM2021-10-18T13:32:53+5:302021-10-18T13:41:36+5:30
काबुल पर कट्टरता और आतंकवाद की विजय का सीधा सा अर्थ है 2001 में आतंकवाद के खिलाफ शुरू हुए युद्ध की असफलता और एक अनिश्चित वातावरण का उदय जिसका फायदा पाकिस्तान और चीन जैसे देश उठाना चाहेंगे.
काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद दक्षिण एशिया जिस संक्रमण के दौर में प्रवेश कर गया है, उससे पूरी दुनिया को चिंतित होना चाहिए था लेकिन ऐसा दिख नहीं रहा है.
काबुल पर कट्टरता और आतंकवाद की विजय का सीधा सा अर्थ है 2001 में आतंकवाद के खिलाफ शुरू हुए युद्ध की असफलता और एक अनिश्चित वातावरण का उदय जिसका फायदा पाकिस्तान और चीन जैसे देश उठाना चाहेंगे.
महमूद-ए-गजनी की मजार पर अनस हक्कानी का जाना और वहां पर इतिहास की पृष्ठभूमि पर टिप्पणी करना किसी सामान्य कथन के रूप में नहीं देखा जा सकता. तो क्या हमें इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर में हुए आतंकवादी हमले इसकी प्रतिध्वनियां ही हैं?
इस बीच, भारत और चीन के बीच वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर जारी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए सीनियर सैन्य कमांडर स्तर की 13वें दौर की वार्ता का विफल होना क्या दर्शाता है? कहीं यह बीजिंग-इस्लामाबाद-काबुल कनेक्ट का प्रभाव तो नहीं है?
10 अक्टूबर को भारतीय सेना और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) वेस्टर्न थिएटर कमांड के सीनियर अधिकारियों के बीच 13वें दौर की वार्ता हुई. इसकी असफलता पर चीन का कहना है कि भारत पूरे मामले में अनुचित और अवास्तविक मांग रख रहा है जबकि सच यह है कि भारत की रचनात्मक मांग को मानने के लिए चीन तैयार नहीं है.
यहां पर सबसे पहला सवाल यह उठता है कि चीन भारत के ऊपर यह आरोप क्यों लगा रहा है? क्या वह यह संदेश देना चाह रहा है कि भारत अड़ियल और समझौताविहीन रुख अपना रहा है? या फिर वह नई दिल्ली के साथ प्रेशर डिप्लोमेसी के जरिये आगे बढ़ना चाह रहा है?
चीन का यही चरित्र उसे संदिग्ध बनाता है, इसलिए यह भी संभव है कि वह इस प्रेशर डिप्लोमेसी के एक इंस्ट्रूमेंट के रूप में तालिबान का भी इस्तेमाल करे. यदि ऐसा हुआ तो भारत की पश्चिमी सीमा पर होने वाली किसी भी आतंकी घटना के छोर किसी न किसी रूप में बीजिंग तक पहुंच सकते हैं.
एक और बात, चीन अभी भी 1962 की लड़ाई के चश्मे से ही भारत को देख रहा है. लेकिन आज का भारत एक उभरती हुई आर्थिक ताकत है, एक कांटिनेंटल अथवा एक मैरीटाइम पॉवर है, जिसे न केवल एशियाई बल्कि शेष दुनिया के देश भी उम्मीदों की नजर से देखते हैं.
अब जरा काबुल की ओर देखें, जहां तालिबान मध्यकाल की स्थापना कर रहे हैं. यह बात तो सभी जानते हैं कि उनके पीछे कौन खड़ा है और क्यों खड़ा है? यहां अहम बात यह है कि तालिबान हो या हक्कानी, इनका पोषण पाकिस्तान से होता है.
दो युद्धों में मिली पराजय के बाद पाकिस्तान भारत के साथ प्रत्यक्ष युद्ध लड़ने की हैसियत में नहीं है. दूसरी ओर उसकी अर्थव्यवस्था संकट से गुजर रही है और तीसरी बात है कि उसके पास अमेरिका जैसा दानदाता आका भी नहीं है. वह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भी अलग-थलग पड़ चुका है और उसकी साख निरंतर गिर रही है.
यह स्थिति तालिबान और पाकिस्तान आधारित आतंकी संगठनों के जरिये भारत के खिलाफ पाकिस्तान के प्रॉक्सी वार को हवा देती रहेगी.
जहां तक चीन का प्रश्न है तो चीन इस समय भारत के साथ 'लव-हेट गेम' की परिधि से निकलकर हेट गेम पर पहुंच चुका मालूम पड़ता है. इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए शायद कुछ स्थितियां भी उसे प्रेरित करती हैं या ताकत देती हैं.
पहली है-अमेरिका में ट्रम्प शासन का समापन. दूसरी है-डेमोक्रेट्स शासन का नेतृत्व जो बाइडेन को मिलना जो अभी अनिश्चितता और शिथिलता का शिकार लग रहे हैं. तीसरी है-सितंबर माह में इंडो-पैसिफिक में अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया द्वारा 'ऑकस' का गठन और उसमें भारत को शामिल न किया जाना.
ध्यान रहे कि ऑकस एक रणनीतिक गठबंधन (स्ट्रेटेजिक एलायंस) है जबकि ट्रम्प काल में इसी क्षेत्र में निर्मित 'क्वाड' एक औपचारिक समूह (फॉर्मल अरेंजमेंट) है. भारत क्वाड का सक्रिय साङोदार है.
ऐसे में यह सवाल उठना तो लाजिमी है कि अमेरिका द्वारा ऑकस में भारत को शामिल न करना कहीं नई दिल्ली और वाशिंगटन में बढ़ती दूरी का परिणाम तो नहीं है?
चूंकि वैश्वीकरण की शुरुआत के साथ ही भारत का झुकाव उदारवाद और बाजारवाद के साथ-साथ अमेरिकावाद की तरफ रहा, जाहिर है नई दिल्ली-मॉस्को की पुरानी बॉन्डिंग कमजोर पड़ी होगी. वह जितनी कमजोर पड़ी उतनी ही मॉस्को-बीजिंग बॉडिंग मजबूत हुई. ये बदलाव चीन को प्रेशर डिप्लोमेसी के लिए स्पेस प्रदान करते हैं.