हेमधर शर्मा ब्लॉग: अनसोशल बनाती सोशल साइट्‌स से बचपन को बचाने की चुनौती

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 4, 2024 07:16 IST2024-12-04T07:16:11+5:302024-12-04T07:16:16+5:30

कॉमिक्स पढ़ने में वे इतने तल्लीन हो जाते थे कि खाना-पीना तक भूल जाते थे. आज अपने दौर के बच्चों के लिए हमने क्या इंतजाम किया है?

Challenge of saving childhood from social sites making it unsocial | हेमधर शर्मा ब्लॉग: अनसोशल बनाती सोशल साइट्‌स से बचपन को बचाने की चुनौती

हेमधर शर्मा ब्लॉग: अनसोशल बनाती सोशल साइट्‌स से बचपन को बचाने की चुनौती

ऑस्ट्रेलियाई संसद ने सोलह वर्ष तक के बच्चों को कथित सोशल मीडिया/साइट्‌स से दूर रखने वाला अपना बहुचर्चित विधेयक पारित कर दिया है. विशेष बात यह है कि इसके पालन की जिम्मेदारी सोशल कही जाने वाली साइट्‌स पर ही डाली गई है अर्थात किसी बच्चे ने अगर इन पर अपना अकाउंट बना लिया तो इन कंपनियों को सैकड़ों करोड़ रुपए का जुर्माना भरना होगा. ऑस्ट्रेलिया अकेला नहीं है, बहुत सारे देशों ने इस तरह का प्रतिबंध लगा रखा है, लेकिन इतना सख्त आर्थिक दंड लगाने वाला वह पहला देश है. देखना दिलचस्प होगा कि इसके नतीजे क्या निकलते हैं. यह विडम्बना ही है कि जिसे हम सोशल मीडिया कहते हैं, उसने हमें अनसोशल ही बनाया है. सुदूर बैठे लोगों से हम आभासी तौर पर जुड़ जाते हैं लेकिन निकट के लोगों से वास्तविक दूरी पैदा हो जाती है.

हममें से अधिकांश लोग इस गलतफहमी में होते हैं कि बच्चों को हम जो सिखाते हैं, वे वही सीखते हैं; जबकि हकीकत यह है कि वे हमारे क्रियाकलापों का अनुकरण करते हैं. इसलिये कथित सोशल मीडिया से बच्चों को दूर करने से पहले क्या हम बड़ों को ही इससे दूर नहीं होना चाहिए? अगर हमें पता है कि सोशल के मुखौटे में यह अनसोशल है तो खुद भी दूर रहकर हम इसे हतोत्साहित क्यों नहीं करते?

सोशल मीडिया/साइट्‌स से दूर रखकर हम बचपन को बदसूरत बनने से रोकने की कोशिश तो कर रहे हैं लेकिन उसे खूबसूरत बनाने के लिए क्या कर रहे हैं? पुराने जमाने में हमारे देश में पंचतंत्र-हितोपदेश जैसे ग्रंथों का निर्माण बच्चों को संस्कार देने के लिए ही किया गया था. एक समय था जब बच्चों में चंपक, चंदामामा, पराग जैसी बाल पत्रिकाओं के लिए दीवानगी रहती थी. कॉमिक्स पढ़ने में वे इतने तल्लीन हो जाते थे कि खाना-पीना तक भूल जाते थे. आज अपने दौर के बच्चों के लिए हमने क्या इंतजाम किया है? छोटे-छोटे बच्चे भी मोबाइल में रील्स देखने के इतने आदी हो गए हैं कि मोबाइल छुड़ाने की कोशिश करो तो जमीन-आसमान एक कर देते हैं. थोड़ा बड़े बच्चों को ऑनलाइन गेम की इतनी लत लग जाती है कि मैदानी खेलों के अभाव में कमजोर होते जाते हैं.

क्या हम कभी इस बात की फिक्र करते हैं कि बच्चों के लिए स्वस्थ साहित्य का सृजन हो, उन्हें खेलने के लिए पर्याप्त मैदान उपलब्ध हों, उनकी जिज्ञासाओं को हम शांत करें, उन्हें किस्से-कहानियां सुनाएं?

सच तो यह है कि हम आज इतने व्यस्त हो गए हैं कि बच्चों को मोबाइल देकर उनके अंतहीन सवालों से पीछा छुड़ा लेना हमें ज्यादा आसान लगता है. कहते हैं पुराने जमाने में अगर कोई बच्चा ज्यादा रोता या परेशान करता था तो कुछ माता-पिता उसे सरसों के दाने के बराबर अफीम चटा देते थे, जिससे बच्चा नशे में सो जाता था. अफीम का नशा तो फिर भी कुछ घंटों बाद उतर जाता था लेकिन बच्चों को हम मोबाइल का जो नशा लगा रहे हैं, क्या वह जिंदगीभर कभी उतरेगा?

इसीलिए बच्चों को कथित सोशल मीडिया के घातक नशे से बचाने के लिए ऑस्ट्रेलिया जैसे देश जो गम्भीर प्रयास कर रहे हैं वह बहुत सराहनीय है. लेकिन उसे हटाने पर बच्चों के जीवन में जो खाली स्थान पैदा होगा, उसे भरने के लिए हम क्या तैयारी कर रहे हैं?

Web Title: Challenge of saving childhood from social sites making it unsocial

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