कबीर: सांच ही कहत और सांच ही गहत है, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग

By गिरीश्वर मिश्र | Published: June 24, 2021 05:56 PM2021-06-24T17:56:41+5:302021-06-24T18:00:33+5:30

सत्य के लिए साहस की जरूरत के दौर में कबीर का स्मरण आश्वस्ति देने वाला है, जिन्होंने कहा था, ‘सांच ही कहत और सांच ही गहत है.’

sant Kabir Das created roles devotee poet social reformer difficult challenge mold is the saying deep Girishwar Mishra's blog | कबीर: सांच ही कहत और सांच ही गहत है, गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग

भक्त, कवि और समाज-सुधारक की भूमिकाओं से निर्मित कबीर को पकड़ना और समझना मुश्किल चुनौती होती है.

Highlightsसंत कबीरदास ने समय के अंतर्विरोधों को महसूस करते हुए एक कठिन राह अपनाने का साहस दिखाया था. दुनियादारी में व्यस्त सब लोग तो आगा-पीछा देखे बगैर बेखबर खाते-पीते मस्त रहते हैं.सुखिया सब संसार है खाए और सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे.

आज जब सत्य और अस्तित्व के प्रश्न नित्य नए-नए विमर्शों में उलझते जा रहे हैं और जीवन की परिस्थितियां विषम होती जा रही हैं, सत्य की पैमाइश और भी जरूरी हो गई है.

यह इसलिए भी जरूरी है कि अब ‘सबके सच’ की जगह किसका सच और किसलिए सच के प्रश्न ज्यादा निर्णायक होते जा रहे हैं. इनके विचार सत्ता, शक्ति और वर्चस्व के सापेक्ष्य हो गए हैं. इनके बीच सत्य अब कई-कई पर्तो के बीच जिंदा (या दफन!)  रहने लगा है और उस तक पहुंचना असंभव होता जा रहा है. शायद अब के यथार्थप्रिय युग में सत्य होता नहीं है सिर्फउसका विचार ही हमारी पहुंच के भीतर रहता है.

सत्य की यह मुश्किल किसी न किसी रूप में पहले भी थी जब तुलनात्मक दृष्टि से सत्य-रचना पर उतने दबाव न थे जितने आज हैं. सत्य के लिए साहस की जरूरत के दौर में कबीर का स्मरण आश्वस्ति देने वाला है, जिन्होंने कहा था, ‘सांच ही कहत और सांच ही गहत है.’

आज से लगभग छह सौ साल पहले के जन कवि और संत कबीरदास ने समय के अंतर्विरोधों को महसूस करते हुए एक कठिन राह अपनाने का साहस दिखाया था. दुनियादारी में व्यस्त सब लोग तो आगा-पीछा देखे बगैर बेखबर खाते-पीते मस्त रहते हैं पर चैतन्य की आहट पाने वाले कबीर के हिस्से जागना और दुखी होना ही आता है : सुखिया सब संसार है खाए और सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे.

अपने समय का पर्यालोचन करते हुए कबीर प्रश्न उठाते हैं और विवेक, प्रेम तथा अध्यात्म की त्रिवेणी बहाते हुए सारी सीमाओं को तोड़ते हुए सत्य की तलाश करते हुए अपने समय का अतिक्रमण करते हैं. भक्त, कवि और समाज-सुधारक की भूमिकाओं से निर्मित कबीर को पकड़ना और समझना मुश्किल चुनौती होती है.

वे सगुण का निषेध करते हुए, पर सहृदय संप्रेषणीयता के साथ मनुष्य की मुक्ति का आह्वान करते हैं. इसके लिए संवाद करने में वे लोकजीवन के बिंबों का खूब उपयोग करते हैं लुहार, धोबी, कुम्हार, भिखारी आदि के जीवन के संदर्भ उनकी कविता में भरे पड़े हैं. धर्मों से परे और कुरीतियों के विरुद्ध और भाषा, जाति, शिक्षा आदि के भेदों को ढहाते और पाखंडों को अनावृत करते हुए वे जीवन-मूल्यों की कसौटी पर साधु मत को स्थापित करते हैं जिसका आधार वाक्य (या सीधी शर्त)  है ‘हरि  को भजे सो हरि का होई.’

आडंबरहीन और क्रांतिकारी दृष्टि वाले कबीर सबसे ग्रहण करने वाले विद्यार्थी भी हैं और गहन स्थापना करने वाले गुरु भी. वे हद और बेहद दोनों को पार करते चलते हैं. सांसारिक ढकोसलों की नि:सारता देख कबीर सहज की ओर आकृष्ट होते हैं : ‘संतो सहज समाधि भली है.’  आजकल की भाषा में कहें तो वे गैरसांप्रदायिक सहिष्णुता के पक्षधर हैं.

यद्यपि कबीर के कई तरह के पाठ होते रहे हैं पर उनका एक प्रमुख सरोकार या ध्येय आध्यात्मिक लोक-जागरण लाना प्रतीत होता है जिसमें उनका कवि एक भक्त के ह्रदय और एक तार्किक के दिमाग के साथ संवाद करता चलता है. उनकी सर्जनात्मकता अनेक स्तरों पर प्रचलित मतांधता से टकराती चलती है.

वे ज्ञान के तीव्र वेग से सभी भ्रमों को तोड़ने को तत्पर दिखते  हैं : ‘संतों आई ज्ञान की आंधी रे, भ्रम की टाटी सबै उड़ानी माया रही न बांधी रे.’ फक्कड़ कबीर स्वभाव में आंतरिक बदलाव को संभव तो मानते हैं पर नकली और ऊपर से सिर्फदिखावटी बदलाव उनको तनिक भी पसंद नहीं है. वे पूछताछ करते हैं,  भेद लेते हैं और सफाई भी मांगते हैं.

मृत्यु तय है आसन्न है, फिर झूठ-फरेब के आश्रय की क्या जरूरत है? ‘मन रे तन कागद का पुतरा. लागे बूंद बिनिस जाई छिन में गर्व करे क्या इतरा.’ वे बखूबी जानते हैं कि यह शरीर नश्वर है : ‘साधो यह तन ठाठ तंबूरे का.’ तभी वह कहते हैं कि ऐसे हाल में ऊपरी बदलाव किसी काम का नहीं : ‘मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा, दढ़िया बढ़ाए जोगी बन गैले बकरा.’  

वे बड़े नि:संग भाव से इस जगत को कागज की पुड़िया मानते हैं. कबीर में इस छल-प्रपंच वाले जगत से मुक्ति की इच्छा प्रबल है. ‘रहना नहीं देस बिराना है’, ‘उड़ि जाएगा हंस अकेला’, ‘अवधूता जनम जनम हम योगी’ या फिर ‘रेन गई मत दिन भी जाय’ जैसे पद जीव की मुक्ति की छटपटाहट को ही दर्शाते हैं.

उनको पता है कि ‘माया महा ठगिनी’ है और तरह-तरह से मुग्ध करती रहती है. अंतर्यात्ना की तड़प के बीच कबीर को स्मरण है कि सृष्टि में मनुष्य जीवन से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है. इसलिए विवेक-बुद्धि के बिना कुछ करने से जीवन में मिला अवसर व्यर्थ हो जाएगा : ‘मानुष तन पायो बड़ भाग अब बिचारि के खेलो फाग.’  इसलिए सतर्कता और सजगता के साथ जीना जरूरी है.

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