लाइव न्यूज़ :

बुजुर्गों और पुरखों की दुआओं से बरसती हैं रहमतें, प्रो.संजय द्विवेदी का ब्लाॉग 

By प्रो. संजय द्विवेदी | Updated: September 25, 2021 13:25 IST

श्राद्ध एक विज्ञान ही है, जिसके पीछे तार्किक आधार हैं और आत्मा की अमरता का विश्वास है. श्रद्ध कर्म करके अपने पितरों को संतुष्ट करना वास्तव में पीढ़ियों का आपसी संवाद है.

Open in App
ठळक मुद्देपितृ ऋण है, जिससे मुक्त होने के लिए हम सारे जतन करते हैं.परिवार के बुजुर्गों को सम्मान से जीने की स्थितियां भी बहाल नहीं कर पा रहा है. भारतीय संस्कृति के उन उजले पन्नों को पढ़ने की जरूरत है जो हमें अपने बड़ों का आदर सिखाते हैं.

बुजुर्गों की दुआएं और पुरखों की आत्माएं जब आशीष देती हैं तो हमारी जिंदगी में रहमतें बरसने लगती हैं. धरती पर हमारे बुजुर्ग और आकाश से हमारे पुरखे हमारी जिंदगी को रोशन करने के लिए दुआ करते हैं. उनकी दुआओं-आशीषों से ही पूरा घर चहकता है. किलकारियों से गूंजता है और जिंदगी भी हमारे साथ महक उठती है.  

यह फलसफा इतना आसान नहीं है. आत्मा से दुआ करके देखिए या आत्माओं की दुआएं लेकर देखिए. यह तभी महसूस होगा. आत्मा के भीतर एक भरोसा, एक आंच और जज्बा धीरे-धीरे उतरता चला जाता है. वह भरोसा आत्मविश्वास की शक्ल ले लेता है, और आप वह कुछ भी कर डालते हैं जिसके बारे में आपने सोचा न था. क्योंकि आपको भरोसा है कि आपके साथ बड़ों की दुआएं हैं.

क्रोमोजोम्स के जरिये वैज्ञानिक यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि नवजात शिशु में कितने गुण दादा व परदादा तथा कितने गुण नानामह और नाना के आते हैं. इसके मायने यह हैं कि पूर्वजों का हमसे जुड़ाव बना रहता है. श्रद्ध के वैज्ञानिक आधार तक पहुंचने में शायद दुनिया को अभी समय लगे किंतु हमारे पुराण और ग्रंथ इन रहस्यों को भली-भांति उजागर करते हैं.

हमारी परंपरा में श्राद्ध एक विज्ञान ही है, जिसके पीछे तार्किक आधार हैं और आत्मा की अमरता का विश्वास है. श्रद्ध कर्म करके अपने पितरों को संतुष्ट करना वास्तव में पीढ़ियों का आपसी संवाद है. यही परंपरा हमें पुत्न कहलाने का हक देती है और हमें हमारी संस्कृति का वास्तविक उत्तराधिकारी बनाती है. पितरों का सम्मान और उनका आशीष हमें हर कदम पर आगे बढ़ाता है.

उनका हमारे पास आना और संतुष्ट होकर जाना कपोल कल्पना नहीं है. यह बताता है कि किस तरह हम अपने पितरों से जुड़कर एक परंपरा से जुड़ते हैं, समाज के प्रति दायित्वबोध से जुड़ते हैं और अपनी संस्कृति के संरक्षण और उसकी जड़ों को सींचने का काम करते हैं. यही पितृ ऋण है, जिससे मुक्त होने के लिए हम सारे जतन करते हैं.

सवाल यह उठता है कि मृत्यु के पश्चात भी अपने पुरखों का इतना सम्यक विचार करने वाली संस्कृति का विचलन आखिर क्यों हो रहा है? हालात यह हैं कि आत्माओं के तर्पण की बात करने वाला समाज आज परिवार के बुजुर्गों को सम्मान से जीने की स्थितियां भी बहाल नहीं कर पा रहा है. जहां माता-पिता को भगवान का दर्जा हासिल है, वहां ओल्ड होम्स या वृद्धाश्रम बन रहे हैं.

यह कितने खेद का विषय है कि हमारी परंपरा के विपरीत हमारे बुजुर्ग घरों में अपमानित हो रहे हैं. उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा है. बाजार और अपसंस्कृति का परिवार नाम की संस्था पर सीधा हमला है. अगर हमारे समाज में ऐसा हो रहा तो पितृमोक्ष के मायने क्या रह जाते हैं. एक भटका हुआ समाज ही ऐसा कर सकता है.

जो समाज अपने पुरखों के प्रति श्रद्धाभाव रखता आया, उनकी स्मृतियों को संरक्षित करता आया, उसका ही जीवित आत्माओं को पीड़ा देने का प्रयास कई सवाल खड़े करता है. ये सवाल ये हैं कि क्या हमारा दार्शनिक और नैतिक आधार चरमरा गया है? क्या हमारी स्मृतियों पर बाजार और संवेदनहीनता की इतनी गर्द चढ़ गई है कि हम अपनी सारी नैतिकता व विवेक गंवा बैठे हैं.

अपने पितरों की मोक्ष के लिए प्रार्थना में जुड़ने वाले हाथ कैसे बुजुर्गो पर उठ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है. पितृपक्ष के बहाने हमें यह सोचना होगा कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? कौन सा पाठ पढ़ रहे हैं और अपनी जड़ों का तिरस्कार कैसे कर पा रहे हैं? टूटते परिवारों, समस्याओं और अशांति से घिरे समाज का चेहरा हमें यह बताता है कि हमने अपने पारिवारिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ किया है.

अपनी परंपराओं का उल्लंघन किया है. मूल्यों को बिसराया है. इसके कुफल हम सभी को उठाने पड़ रहे हैं. आज फिर एक ऐसा समय आ रहा है जब हमें अपनी जड़ों की ओर झांकने की जरूरत है. बिखरे परिवारों और मनुष्यता को एक करने की जरूरत है. भारतीय संस्कृति के उन उजले पन्नों को पढ़ने की जरूरत है जो हमें अपने बड़ों का आदर सिखाते हैं.

जो पूरी प्रकृति से पूजा एवं सद्भाव का रिश्ता रखते हैं. जहां कलह, कलुष और अवसरवाद के बजाय प्रेम, सद्भावना और संस्कार हैं. पितृ ऋण से मुक्ति इसी में है कि हम उन आदर्श परंपराओं का अनुगमन करें, उस रास्ते पर चलें जिन पर चलकर हमारे पुरखों ने इस देश को विश्वगुरु बनाया था. पूरी दुनिया हमें आशा के साथ देख रही है.

हमारी परिवार नाम की संस्था, हमारे रिश्ते और उनकी सघनता-सब कुछ दुनिया में आश्चर्यलोक ही हैं. हम उनसे न सीखें जो पश्चिमी भोगवाद में डूबे हैं, हमें पूरब के ज्ञान-अनुशासन के आधार से एक नई दुनिया बनाने के लिए तैयार होना है. श्रवण कुमार, भगवान राम जैसी कथाएं हमें प्रेरित करती हैं, अपनों के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने की प्रेरणा देती हैं.

मां, मातृभूमि, पिता, पितृभूमि इसके प्रति हम अपना सर्वस्व अर्पित करने की मानसिकता बनाएं, यही इस समय का संदेश है. इस भोगवादी समय में हम ऐसा करने का साहस जुटा पाते हैं तो यह बात हमारे परिवारों के लिए सौभाग्य का टीका साबित होगी.

टॅग्स :पितृपक्ष
Open in App

संबंधित खबरें

पूजा पाठमहालया अमावस्या 2025: पितृपक्ष का अंतिम दिन, पितरों के लिए तर्पण, श्राद्ध और दान का विशेष महत्व

कारोबारGST New Rate: रहिए तैयार, केवल 15 दिन में घटेगा दाम?, हर घर की जरूरत, दिनचर्चा में प्रयोग, त्योहार से पहले मीडिल क्लास की जेब...

पूजा पाठPitru Paksha 2025: आज से शुरु हो रहा पितृ पक्ष, जानें पितरों के श्राद्ध का सही नियम और सबकुछ

भारतRohtas Road Accident: राजस्थान से गया जा रही बस की ट्रक से भीषण टक्कर, तीन की मौत; 15 घायल

पूजा पाठSarva Pitru Amavasya 2024 Date: कब है सर्व पितृ अमावस्या? कैसे करें पितृ विसर्जन, जानें विधि और महत्व

पूजा पाठ अधिक खबरें

पूजा पाठPanchang 15 December 2025: जानें आज कब से कब तक है राहुकाल और अभिजीत मुहूर्त का समय

पूजा पाठAaj Ka Rashifal 15 December 2025: आज इन राशि के जातकों को होगी आर्थिक तंगी, परिवार में बढ़ेगा क्लेश

पूजा पाठSaptahik Rashifal: आपके भाग्य में सफलता या निराशा, जानें अपना इस सप्ताह का भविष्यफल

पूजा पाठSun Transit Sagittarius 2025: सूर्य का धनु राशि में गोचर, 16 दिसंबर से बदल जाएगी इन 4 राशिवालों की किस्मत

पूजा पाठPanchang 14 December 2025: जानें आज कब से कब तक है राहुकाल और अभिजीत मुहूर्त का समय