गोटमार मेला: दुनिया में सबसे विलक्षण, एक-दूसरे को पत्थर से मारना, क्या है इसका इतिहास, जानें सबकुछ

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: September 6, 2021 02:59 PM2021-09-06T14:59:18+5:302021-09-06T15:00:18+5:30

Gotmar mela: मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित पांढुर्णा में होने वाला गोटमार मेला दुनिया में सबसे विलक्षण है.

Gotmar mela most unique world throwing stones each other 1623 love marriage what history madhya pradesh maharashtra | गोटमार मेला: दुनिया में सबसे विलक्षण, एक-दूसरे को पत्थर से मारना, क्या है इसका इतिहास, जानें सबकुछ

सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुर्णा के लड़के से प्रेम हो गया था.

Highlightsनगर पांढुर्णा और सावरगांव में बंटा हुआ है.सावरगांव अति प्राचीन बस्ती है. इसे पुराना पांढुर्णा के नाम से भी जाना जाता है.बुजुर्ग बताते हैं कि सन् 1623 से गोटमार मेले की शुरुआत हुई.

भारत की संस्कृति बहुआयामी है. यहां के रीति-रिवाज, भाषाएं, परंपरा और प्रथाएं इसके  परस्पर संबंध महान विविधताओं का एक अद्वितीय उदाहरण पेश करते हैं.

भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि हजारों वर्षों के बाद भी यह अपने मूल स्वरूप में जीवित है. देश में हमारे त्यौहार हमारी साझा संस्कृति की अनमोल धरोहर हैं. ये त्यौहार ही हमें एक-दूसरे की परंपराओं को जोड़े हुए हैं. इन त्योहारों से ही देश में एकता और भाईचारा कायम है. ऐसे ही हमारे देश में भादो माह की अमावस्या तिथि को पोला के दिन बैलों की पूजा की जाती है और दूसरे दिन छोटे बच्चों के लिए लकड़ी के बैल बनाकर उसे सजाया जाता है. देश के कई राज्यों में भिन्न-भिन्न तरीके से यह त्यौहार मनाया जाता है लेकिन महाराष्ट्र में इस त्योहार को विशेष ढंग से मनाया जाता है.

महाराष्ट्र के विदर्भ प्रांत में बुराई के प्रतीक काली-पीली मारबत और बड़ग्या बनाकर उनका जुलूस निकाला जाता है. लोग उनको संबोधित करते हुए हाल ही की महामारी, बुराइयों को लेकर जाने के नारे लगाते हैं. इससे भी हटकर सबसे बड़ी विचित्र परंपरा जो चली आ रही है, वह है गोटमार. मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में स्थित पांढुर्णा में होने वाला गोटमार मेला दुनिया में सबसे विलक्षण है.

यह नगर पांढुर्णा और सावरगांव में बंटा हुआ है. सावरगांव अति प्राचीन बस्ती है. इसे पुराना पांढुर्णा के नाम से भी जाना जाता है. स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि सन् 1623 से गोटमार मेले की शुरुआत हुई. इसे चंडीमाता का त्योहार भी कहते हैं. इतिहास में इस घटना का जिक्र नहीं है लेकिन सदियों से परंपरागत ढंग से चला आ रहा यह गोटमार मेला अपने आप में अद्धितीय है.

किंवदंती है कि सावरगांव की एक आदिवासी कन्या का पांढुर्णा के लड़के से प्रेम हो गया था. दोनों ने चोरी-छिपे प्रेम विवाह कर लिया था. लड़का जब लड़की को भगाकर अपने साथ ले जा रहा था, तब सावरगांव के लोगों को पता चला और उन्होंने लड़के व उसके साथियों पर पत्थरों से हमला शुरू कर दिया. यह बात जब पांढुर्णा पक्ष के लोगों को पता चली तब उन्होंने भी जवाब में पथराव शुरू कर दिया.

जब लड़का-लड़की जाम नदी से गुजर रहे थे तब पांढुर्णा और सावरगांव के बीच हो रही पत्थरों की बौछार से दोनों प्रेमियों की जाम नदी के बीच में ही मौत हो गई. दोनों प्रेमियों की मृत्यु हो जाने पर दोनों पक्षों को पश्चाताप हुआ. दोनों प्रेमियों के शवों को उठाकर मां चंडिका के मंदिर में ले जाकर रखा और पूजा-अर्चना करने के बाद उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया.

इस घटना की याद में सावरगांव के लोग पलाश का एक पेड़ काटकर नदी के बीचोबीच गाड़ देते हैं. यह झंडा प्रतीक पेड़ पांढुर्णा के लोग काटकर मां चंडीमाता की पूजा-अर्चना कर चढ़ा देते हैं, ऐसी प्रथा है. लेकिन यह पेड़ इतनी आसानी से नहीं लाया जा सकता है. नदी के दोनों किनारों पर एक तरफ सावरगांव वाले और दूसरी तरफ पांढुर्णा वाले इस पेड़ को हासिल करने के लिए प्रयास करते हैं.

दूसरा पक्ष वहां तक न पहुंचे, इसलिए एक -दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं. इसमें कई लोग जख्मी होते हैं. कई बार मौत भी हो जाती है. गोटमार का यह सिलसिला शाम तक चलता है. झंडा न तोड़ पाने की स्थिति में शाम साढ़े छह बजे प्रशासन द्वारा आपस में समझौता कराकर गोटमार बंद कराया जाता है.

इस मेले को बंद कराने का प्रशासन ने कई बार  प्रयास किया लेकिन लोगों ने कहा कि मां चंडिका नाराज होंगी, हम इसे बंद नहीं कर सकते. इसलिए प्रशासन के चुस्त बंदोबस्त के बीच यह मेला सुचारु रूप से हर साल मनाया जाता है. यह अनोखा मेला देखने दूर-दूर से लोग आते हैं.  - डॉ. मधुकर हुरमाडे  लोकमत संदर्भ विभाग, नागपुर

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