गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: गोस्वामी तुलसीदास की लोकदर्शी दृष्टि आज भी समाज के लिए प्रासंगिक

By गिरीश्वर मिश्र | Published: July 27, 2020 01:04 PM2020-07-27T13:04:03+5:302020-07-27T13:04:03+5:30

एक विशाल मानवीय चेतना की परिधि में भक्ति के विचार को जन-जन के हृदय तक पहुंचाते हुए गोस्वामीजी हमारे सामने एक लोकदर्शी दृष्टि वाले कवि के रूप में उपस्थित होते

Girishwar Mishra's blog: Goswami Tulsidas's public vision is still relevant to society | गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: गोस्वामी तुलसीदास की लोकदर्शी दृष्टि आज भी समाज के लिए प्रासंगिक

गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: गोस्वामी तुलसीदास की लोकदर्शी दृष्टि आज भी समाज के लिए प्रासंगिक

Highlightsपिछली पांच सदियों से भारतीय लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का सतत योगदान अविस्मरणीय है.लोक भाषा की इस सशक्त रचना द्वारा सांस्कृतिक जागरण का जैसा कार्य संभव हुआ

पिछली पांच सदियों से भारतीय लोक जीवन में मूल्यगत चेतना के निर्माण में गोस्वामी तुलसीदास के ‘रामचरितमानस’ का सतत योगदान अविस्मरणीय है. लोक भाषा की इस सशक्त रचना द्वारा सांस्कृतिक जागरण का  जैसा कार्य संभव हुआ, वैसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता है. ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कर हित होई’  की प्रतिज्ञा के साथ कविता को जन-कल्याणकारिणी घोषित करते हुए गोस्वामीजी ने काव्य के प्रयोजन को पहले की शास्त्नीय परम्परा से अलग हट कर एक नया आधार दिया.

एक विशाल मानवीय चेतना की परिधि में भक्ति के विचार को  जन-जन के हृदय तक पहुंचाते हुए गोस्वामीजी हमारे सामने एक लोकदर्शी दृष्टि वाले कवि के रूप में उपस्थित होते हैं. वे जनसाधारण की ‘भाखा’ अवधी और भोजपुरी का उपयोग करते हुए जीवंत भंगिमा और ग्राम्य परिवेश के बीच जीवन के सत्य की एक असाधारण और अलौकिक, पर हृदयग्राही छवि उकेर सके थे. उनके शब्द-चयन में एक ऐसी दुर्निवार किस्म की संगीतात्मकता और ऐसी लय है कि पढ़िए तो (बिना अर्थ समङो भी!) उसे गाने और झूमने का मन करने लगता है.

पारिवारिक जीवन, मित्नता, सत्संगति, सामाजिक जीवन और राजनय जैसे विषयों को समेटते हुए लोक में रमते हुए तुलसीदासजी ने लोकोत्तर का जो संधान किया उसमें एक ओर यदि  दर्शन की ऊंचाई दिखती है तो दूसरी ओर रस की गहरी और स्निग्ध तरलता भी प्रवाहित होती मिलती है. विष्णु के अवतार श्रीराम के लीला-काव्य में सशक्त भाषा और शब्द-प्रयोग का यह अद्भुत जादू ही है कि उनके दोहे और चौपाइयां शिक्षित और गंवार सभी तरह के लोगों की जुबान पर आज भी छाए हुए हैं और प्रमाण तथा व्याख्या के रूप में उद्धृत होते रहते हैं.

यह गोस्वामीजी की रचनात्मक प्रतिभा ही थी कि अनेक वृत्ताें में अनेक वक्ताओं द्वारा कही गई जन्म-जन्मांतरों को समेटती हुई राम-कथा ऐसे मनोरम ढंग से प्रस्तुत हुई कि वह जन-मन के रंजन के साथ ही भक्ति की धारा में स्नान कराने वाली पावन सरिता  भी बन गई. मानस में पहले से चली आ रही राम-कथा में कई प्रयोग भी किए गए हैं और ब्योरे में जाएं तो उसकी प्रस्तुति पर देश-काल की अमिट छाप भी पग-पग पर मिलती है. कई-कई तरह के संवादों के बीच से गुजरती हुई राम-कथा काव्य शास्त्रियों के लिए इस अर्थ में चुनौती भी देती है कि वह प्रबंधकाव्य के स्वीकृत रचना विधान का अतिक्रमण करती है.

राममय होने के लिए तुलसीदासजी ने रामलीला का आरंभ किया और तद्नुरूप जरूरी दृश्य विधान को अपनाते हुए ‘रामचरितमानस’ की प्रेषणीयता को सहज साध्य बना दिया है. पूरी रचना में कवि सूत्नधार की तरह आता रहता है और पाठक को संबोधित भी करता रहता है और यह सब बिना किसी व्यवधान के स्वाभाविक प्रवाह में  होता है. ऐसा इसलिए भी हो पाता है क्योंकि तुलसीदासजी सिर्फ पुराण की कथा को पुन: प्रस्तुत ही नहीं करते बल्कि उसमें कुछ और भी शामिल कर नई रचना के रूप में उसे अधिक संवेदनीय बना कर पहुंचाते हैं.

Web Title: Girishwar Mishra's blog: Goswami Tulsidas's public vision is still relevant to society

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