विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: अब चुनाव सिर्फ सत्ता के लिए लड़े जाते हैं
By विश्वनाथ सचदेव | Published: March 12, 2021 11:39 AM2021-03-12T11:39:07+5:302021-03-12T11:42:18+5:30
हमारे नेताओं का दायित्व बनता है कि वे अपने आचरण के प्रति जागरूक हों और नैतिकता की मिसाल पेश करें।
चुनाव इस बात का प्रतीक और प्रमाण दोनों है कि जनतंत्र में असली राजा मतदाता होता है. मतदाता ही अपने लिए ‘शासक’ चुनता है और वही यह भी तय करता है कि कौन-सी पार्टी या कौन-सा नेता उपयुक्त या अनुपयुक्त है.
जनतंत्र में चुनावों को पवित्र यज्ञ की संज्ञा दी गई है.चुनाव तो हर पांच साल बाद होते ही थे, और फिर जब राजनीति के चक्कर में राज्यों में अलग-अलग समय पर होने लगे तो चुनावों की गूंज अक्सर सुनाई दे जाती थी, पर पिछले पांच-सात सालों में तो लग रहा है जैसे हम साल-दर-साल चुनावों में ही जी रहे हैं.
वैसे, इसमें भी गलत कुछ नहीं है- जिस जनतांत्रिक व्यवस्था को हमने अपने लिए स्वीकार किया है, उसमें चुनाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं. चुनाव इस बात का प्रतीक और प्रमाण दोनों है कि जनतंत्र में असली राजा मतदाता होता है.
मतदाता ही अपने लिए ‘शासक’ चुनता है और वही यह भी तय करता है कि कौन-सी पार्टी या कौन-सा नेता उपयुक्त या अनुपयुक्त है. जनतंत्र में चुनावों को पवित्र यज्ञ की संज्ञा दी गई है, और पचास साल पहले तक मतपत्र की तुलना तुलसीदास से की जाती थी. अब यह सबकुछ बीते कल की बात लगने लगा है.
चुनाव पहले भी सत्ता के लिए लड़े जाते थे पर अब, लग रहा है, चुनाव सिर्फ सत्ता के लिए ही लड़े जाते हैं. और यह भी मान लिया गया है कि युद्ध और प्रेम की तरह ही चुनाव में भी सबकुछ जायज होता है. अब चुनाव यज्ञ नहीं, लड़ाई है और किसी भी कीमत पर जीत ही इसका एकमात्र लक्ष्य हो गया है.
शायद इसी का परिणाम है कि हमारी स्वतंत्रता भी सीमित होती जा रही है. अमेरिका की संस्था ‘फ्रीडम हाउस’ द्वारा हर साल किए जाने वाले एक वैश्विक सर्वेक्षण के अनुसार दुनिया के 162 देशों में स्वतंत्रता सूचकांक (फ्रीडम इंडेक्स) की दृष्टि से हमारा स्थान 111 वां है.
इसी तरह, प्रेस की स्वतंत्रता के संदर्भ में इस सर्वेक्षण में हमारी स्वतंत्रता को भी ‘आंशिक’ बताया गया है. दुनिया के 180 देशों में हमारा स्थान 142वां है. ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ से ‘आंशिक स्वतंत्रता’ तक की हमारी यह यात्रा उस हर भारतीय के लिए चिंता और पीड़ा की बात होनी चाहिए जो स्वतंत्रता और जनतांत्रिक मूल्यों में विश्वास और श्रद्धा रखता है, जिसे इस बात पर गर्व है कि उसका देश दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र है और जो यह मानता है कि समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के आदर्शों पर आधारित हमारे देश का संविधान मानवीय स्वतंत्रता की उत्कृष्ट परिभाषा है.
कहने को कहा जा सकता है कि हमें ‘फ्रीडम हाउस’ जैसे विदेशी संस्थानों के प्रमाणपत्र की आवश्यकता क्यों हो? पर किसी विदेशी पत्रिका के मुखपृष्ठ पर चित्र छप जाने से पुलकित हो जाने वाले हमारे राजनेताओं को इस सवाल का जवाब तो देना ही होगा कि हम उन-मानकों पर अपने आपको कितना खरा पाते हैं जो जनतांत्रिक मूल्यों को सार्थक बनाते हैं? आखिर क्या मतलब है आंशिक स्वतंत्रता का? लगभग एक सदी पहले रावी नदी के पवित्र तट पर कांग्रेस पार्टी ने अपने लाहौर अधिवेशन में ‘पूरी आजादी’ की शपथ ली थी.
‘पूरी आजादी’ का मतलब था एक ऐसे देश और व्यवस्था का निर्माण जिसमें हर भारतीय गर्व से सिर ऊंचा करके कह सकेगा कि मैं भारत हूं. यह सवाल हममें से हर एक को अपने आप से पूछना चाहिए कि कैसा बना दिया है मैंने अपने भारत को. किसी दल को या किसी नेता को दोषी ठहराया जा सकता है, पर वह समस्या का समाधान नहीं होगा.
समस्या यह है कि आजादी पा लेने के 74 साल बाद भी, न तो हम स्वतंत्रता के आदर्शों-मूल्यों के प्रति स्वयं को समर्पित पा रहे हैं और न ही हम वह समाज बना पाये हैं जो स्वतंत्रता को अर्थ देता है.
आज भी हम धर्मों, जातियों, वर्गों में बंटे हुए हैं. धर्म और जाति के नाम पर वोट मांगना और वोट देना हमारे संविधान के प्रति भले ही एक अपराध हो, पर हमारे नेता धर्म के नाम पर हमें बांटने में न कोई संकोच करते हैं और न ही धर्म के नाम पर वोट देने में हमें यानी मतदाता को किसी प्रकार की लज्जा का अनुभव होता है.
‘जयश्री राम’ जो कभी हमारी श्रद्धा और आस्था की अभिव्यक्ति हुआ करता था, अब एक युद्ध-घोष में बदल गया है. चुनावी सभाओं में हमारा बड़े से बड़ा नेता भी इसी उद्देश्य के साथ वोट मांगता है. बहुधर्मी, बहुभाषी भारत में धर्म की इस राजनीति का क्या मतलब है?
फ्रीडम हाउस की इस रिपोर्ट में ऐसी बहुत-सी बातें हैं. इसे ‘विदेशी हस्तक्षेप’ कह कर या ‘भारत-विरोधी ताकतों की साजिश’ कहकर नकार नहीं दिया जाना चाहिए. सच पूछें तो इस तरह के अवसर हमारे आत्मान्वेषण के अवसर होने चाहिए.
हमारे नेताओं का दायित्व बनता है कि वे अपने आचरण के प्रति जागरूक हों, अपनी कथनी-करनी से अपनी जनतांत्रिक चिंताओं को प्रकट करें. पर हमारे नेता, चाहे वे किसी भी रंग के झंडे वाले हों, एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ही लगे दिखते हैं.
क्या हमें अपने नेताओं से यह नहीं पूछना चाहिए कि हमारी ‘पूरी आजादी’ को ‘आंशिक आजादी’ तक पहुंचना उनके लिए चिंता का विषय क्यों नहीं है? ‘पोरिवोर्तोन’ और ‘आसोल पोरिवोर्तोन’ के नारे का आखिर मतलब क्या है?