ये चुप्पी एक दिन इस देश के विनाश का तमाशा इसी ख़ामोशी से देखेगी!
By राहुल मिश्रा | Published: June 18, 2018 03:18 PM2018-06-18T15:18:44+5:302018-06-18T15:33:18+5:30
आपकी चुप्पी इन्हें नजर आ रही है। यही वो लोग हैं जो निहारते रहते हैं आपके चेहरे की तल्खियां, मुस्कुराहटें और लोकतांत्रिक तर्कों पर होठों तक सिमटती विजयी मुस्कान!
वो सभी लोग चुप हैं, बहुत ज़्यादा चुप। पश्चिम बंगाल में हत्याएं लेकिन सरकार चुप! केरल में हत्याएं लेकिन सरकार चुप! देशभर में महिलाओं के साथ रेप लेकिन सरकार चुप! कश्मीर के बिगड़ते हालात लेकिन सरकार चुप! देश में महंगाई अपने चरम पर है लेकिन सरकार चुप! पेट्रोल डीजल के दामों में बेतहाशा वृद्धि हुई है लेकिन सरकार चुप! यकीन मानिए ऐसी चुप्पी बड़ी खतरनाक है।
इन मुद्दों पर सरकार की बात छोड़िये! बाकी मुद्दों पर आइए तो अफजल पर भाव विह्वल होने वाले और घर-घर से अफजल निकालने वाले औरंगजेब पर बोलने के लिए तैयार नहीं है! यकीन मानिए ऐसी चुप्पी भी बड़ी खतरनाक है। उस शहीद औरंगजेब की गलती क्या थी जो मोर्चे से छुट्टी लेकर ईद मनाने अपने घर आ रहा था और रास्ते से अपहरण कर लिया गया।
इस गौरवशाली देश में एक मुख्यमंत्री हैं, महबूबा मुफ़्ती। अपने राज्य को राज्य भी कहती हैं और उसे राज्य रहने भी नहीं देतीं। आखिर कहें भी क्यों ना, उन्हें केंद्र में विराजमान भारतीय जनता पार्टी से समर्थन जो हासिल है। वही भारतीय जनता पार्टी जो पिछले 4 सालों में कश्मीर मसले को एक इंच नहीं सुलझा पाई। वही भारतीय जनता पार्टी जो राम मंदिर पर वोट तो मांगती है लेकिन 4 सालों में कुछ ऐसा नहीं कर सकी जिससे कि मंदिर निर्माण की नींव तक रखी जा सके।
महबूबा मुफ़्ती की ही बात करें तो न जाने उनके अंदर क्या कारामात हैं, दिल्ली से जाते हैं महानुभाव और दुआ-सलाम के बाद लौट आते हैं। कश्मीर ऐसे ही सुलगता रहता है, हर रोज किसी माँ का लाल शहीद होता रहता है. सामने आती है तो बस चुप्पी और निंदा बाण, जिसे समय समय पर पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उनके मंत्रियों द्वारा छोड़ा जाता है!
मैडम (महबूबा) का इंसानी प्रेम भी कई बार झलकता है और अमूमन वो इंसानी मोहब्बत में कह जाती हैं, "गोली के बीच बातचीत नहीं हो सकती।" एक दिन फिर अचानक पत्थरबाजों की मोहब्बत में कहती हैं, "भारत का झंडा हम नहीं उठा पाएँगे। मानो भारत का झंडा उन्होंने ही उठा रखा है।''
देखा जाए तो सही मायने में डिप्लोमेसी इसे ही कहते हैं। जहां ईमानदारी जैसी बेमतलब की बातें कहीं होती ही नहीं। बस गद्दी संभल जाए किसी तरह और ताज्जुब की बात है कि गद्दी संभल भी जा रही है। भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से कश्मीर में की राजगद्दी पर बैठीं 'महबूबा' आतंकियों की मौतों पर और जवानों की शहीदी पर एक ही तरह की संवेदना व्यक्त करती दिखाई दे जाती हैं। लेकिन क्या यहां केंद्र सरकार का फर्ज़ नहीं बनता कि वो महबूबा को आँख दिखाएँ लेकिन ऐसा हो नहीं सकता? उन्हें डर है कि कांग्रेस मुक्त भारत के सपने से कहीं एक राज्य कम न हो जाए। अब इसके लिए कुछ और निंदा बाण छोड़ने पड़ें तो वो भी छोड़ देंगे।
देशभर में तमाशे ख़ूब किये जा रहे हैं, हम तमाशबीन बने देख भी रहे हैं, पर वक़्त भी एक नहीं रहा है कभी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मौनी बाबा कहते थे, लेकिन सत्ता में आने पर वह भी कई अहम मामलों पर मौन साध कर चुप रहे। हालांकि प्रधानमंत्री बोलते तो हैं लेकिन सिर्फ अपने मन की बात, देश के मन में क्या है उससे उन्हें शायद ही फ़र्क पड़ता है। मेरे लिहाज़ से ऐसे कई मौके थे जब प्रधानमंत्री की चुप्पी ने देश के सामने कई तरह के सवाल खड़े किए।
नीरव मोदी पीएनबी घोटाला, नोटबंदी के बाद 100 मौतें, न्यायपालिका में हस्तक्षेप, दादरी का अखलाक हत्याकांड, व्यापम घोटाले में मौतें, राफेल डील का विवाद, चीन के साथ डोकलाम विवाद, दिल्ली में किसानों का प्रदर्शन, किसानों की आत्महत्या, सीमा पर हर रोज शहीद होते जवान, जय शाह की संपत्ति, बीजेपी नेताओं की बयानबाजी, देश में दुष्कर्म, विदेश यात्रा में किये गए खर्च, चुनाव प्रचार में बीजेपी का बेशुमार खर्च ऐसे कई मुद्दे थे जिनपर चुप्पी पर देश नरेंद्र मोदी से सवाल पूछ रहा है।
हाल ही में एक हत्या हुई, एक प्रबुद्ध पत्रकार की लेकिन कहीं कोई हलचल नहीं हुई और इस देश के शीर्ष निष्पक्ष पत्रकारों से लेकर छोटे-बड़े नेता, मंत्री और सरकारें सभी चुप हैं, सिर्फ निंदा कर अपना काम पूरा कर दिया गया। सरकारों को छोड़िए, अपने ही पेशे से जुड़े, अपनी ही विचारधारा के लोगों के लिए भी कोई संवेदना नहीं?
यहां मैं सिर्फ सरकार की चुप्पी की ही बात नहीं करूँगा मैं उन लोगों की बात भी करूँगा, वो निष्पक्ष लोग जो तब ही मुखर होते हैं, जब आतंकियों की मौत होती है। मानवाधिकार, जीने के अधिकार, आज़ादी सब तभी उपयुक्त हैं जब मरने वाला आतंकी हो, बाकी तो सब जीते-मरते रहते हैं, चलते रहते हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की लोकतांत्रिक राज्य सरकार ने भी 'तृण' और 'मूल' की रक्षा कुछ इस तरह से ही की।
यहां एक दूसरा वर्ग भी है जो सुनता है, केवल सुनता है, द्रवित हो उठता है, सुर में सुर मिलाता है, इस डर से कि कहीं मैं पीछे न रह जाऊँ इस संवेदनशीलता की रेस में। देखा जाए यह वर्ग उस देश का है और उतना ही मिथकीय है जितने कि आपके रंग-बिरंगे, छोटे सच, बड़े सच, बहुत बड़े सच और बहुत छोटे झूठ के साथ बस थोड़ा और झूठ लिए खबरें, विश्लेषण और लेख और सरकारों की चुप्पी।
लेकिन सच ये है कि यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सरकारें भी ऐसी हैं जो जनता को मुर्ख समझती हैं, तो मूर्ख बन जाना भी फैशन है। लेकिन यहां बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि यही 'मूर्ख' चुनावों में वोट डालते हैं। आपकी चुप्पी इन्हें नजर आ रही है। यही वो लोग हैं जो निहारते रहते हैं आपके चेहरे की तल्खियां, मुस्कुराहटें, अतुलनीय लोकतांत्रिक तर्कों पर होठों तक सिमटती विजयिनी मुस्कान, जो शायद जल्द ही वास्तविकता में सिमट न जाए?
इस लोकतांत्रिक देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के सहारे ख़ूब बटोरिये शोहरतों के अधखुले चिट्ठे, चलते जाइये शतरंज की सधी चालें, बिठाते रहिये गोटियां और एन्जॉय कीजिये अपनी एक दमदार एजेंसी होने का अदृश्य पॉवर। अब लोकतंत्र है तो आप भी आप ही रहेंगे और हम तो जो हैं हम वही रहेंगे। अरे नहीं रुकिए...
ये तो शतरंज की बिसात है यहां चालें भले ही समझ नहीं आतीं लेकिन नजर जरूर आतीं है। आपके पास भले ही बजीर और बादशाह हो लेकिन प्यादे तो ये सवा सौ करोड़ लोग ही हैं। बस अब समझ जाइए! इतना सब लिखने के बाद कुछ याद आ रहा है, पढ़िए...
“तुम्हारी ये ना-मर्दानगी, बुझदिली एक दिन इस देश की मौत का तमाशा इसी ख़ामोशी से देखेगी। कुछ नहीं कहना मुझे तुम्हे, कुछ नहीं। तुम्हारी जिंदगी में कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। अँधेरे में रहने की आदत पड़ी है तुमको। गुलामी करने की आदत पड़ी है। पहले राजा महाराजाओं की गुलामी की, फिर अंग्रेजों की, अब चंद नेताओं और गुंडों की। धर्म के नाम पर ये तुम्हें बहकाते हैं, तुम एक दूसरे का गला काट रहे हो। काटो-काटो, ऊपर वाला भी ऊपर से देखता होगा तो उसे शरम आती होगी | सोचता होगा मैंने सबसे खूबसूरत चीज बनाई थी इंसान! इंसान, नीचे देखा तो सब कीड़े बन गए, कीड़े। रेंगते रहो-रेंगते रहो-सड़ते रहो, मरो। आये और गये, खेल खत्म। क्यों जिए मालूम नहीं? क्यों मरे मालूम नहीं?” - फिल्म क्रांतिवीर! याद तो होगी ही ना!