पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लॉगः आम चुनाव के लिए कांग्रेस की व्यूह रचना
By भाषा | Published: February 12, 2019 06:13 PM2019-02-12T18:13:44+5:302019-02-12T18:13:44+5:30
जहां तक हिंदुत्व की बात है तो जनेऊधारी तो हम भी हैं. लेकिन दुनिया भर में डंका पिटने के बावजूद मोदी का राष्ट्रवाद गरीबों के लिए कुछ नहीं कर रहा है, ये सिर्फ कॉर्पोरेट हित साध रहा है.
2019 के चुनाव की दौड़ में नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी अगुवाई कर रहे हैं तो अगुवाई करते नेता के पीछे खड़े क्षत्नप की एक लंबी फौज है जो अपने-अपने दायरे में खुद की राजनीतिक सौदेबाजी के दायरे को बढ़ा रहे हैं. इस कड़ी में ममता, मायावती, अखिलेश, चंद्रबाबू, के. चंद्रशेखर राव, कुमारस्वामी, तेजस्वी, हेमंत सोरेन, नवीन पटनायक सरीखे क्षत्नप हैं. लेकिन जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा है वैसे-वैसे तस्वीर साफ होती जा रही है कि राजनीतिक बिसात बनेगी कैसी.
ध्यान दें तो नरेंद्र मोदी की थ्योरी राष्ट्रवाद को लेकर रही है इसलिए वह चार मुद्दों को उठा रहे हैं - पहला, विदेशों में मोदी की वजह से भारत का डंका बज रहा है. दूसरा, डोकलाम में चीन को पहली बार मोदी की कूटनीति ने ही आईना दिखा दिया. तीसरा, सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए पाकिस्तान को धूल चटा दी और चौथा हिंदुत्व के रास्ते सत्ता चल रही है. इसके लिए वह नार्थ-ईस्ट में बांग्लादेशियों को खदेड़ने के लिए कानून बनाने से भी नहीं चूक रही है. लेकिन राहुल गांधी की थ्योरी खुद को राष्ट्रवादी बताते हुए अब मोदी के राष्ट्रवाद की थ्योरी तले की इकोनॉमी के अंधेरे को उभार रही है. राहुल गांधी का कहना है राष्ट्रवादी तो हम भी हैं.
जहां तक हिंदुत्व की बात है तो जनेऊधारी तो हम भी हैं. लेकिन दुनिया भर में डंका पिटने के बावजूद मोदी का राष्ट्रवाद गरीबों के लिए कुछ नहीं कर रहा है, ये सिर्फ कॉर्पोरेट हित साध रहा है. यानी 2019 की तरफ बढ़ते कदम मोदी की व्यूह रचना में राहुल की सेंध को ही इस तरह जगह दे रहे हैं, जैसे एक वक्त की कांग्रेस की चादर अब भाजपा ने ओढ़ ली है और गरीब-गुरबों का जिक्र कर कांग्रेस में समाजवादी-वामपंथी सोच विकसित हो गई है.
यानी 2019 की बनती तस्वीर में क्षत्नपों के सामने संकट पारंपरिक जाति और धर्म के मुद्दे के हाशिये पर जाने से उभर रहा है. कांग्रेस के कदम एकला चलो या फिर लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़कर अपनी संख्या को बढ़ाने के फार्मूले की तरफ बढ़ चुके हैं. ये सब कैसे हो रहा है ये देखना बेहद दिलचस्प है क्योंकि राहुल और प्रियंका एक साथ जब चुनाव प्रचार के लिए उतरेंगे तो इसका मतलब साफ है कि यूपी, बिहार, झारखंड, बंगाल, आंध्र प्रदेश और ओडिशा को लेकर साफ थ्योरी होगी कि क्षत्नपों को राज्यों में अगुवाई की बात कहकर लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीट खुद लड़े.
इसलिए कांग्रेस ने बंगाल में ममता बनर्जी के साथ तो आंध्र में चंद्रबाबू के साथ मिलकर चुनाव न लड़ने का फैसला किया है. यानी कांग्रेस इस हकीकत को बाखूबी समझ रही है कि लोकसभा चुनाव में जिसके पास ज्यादा सीट होगी उसकी दावेदारी ही चुनाव के बाद पीएम के उम्मीदवार के तौर पर होगी. इसके लिए जरूरी है अपने बूते चुनाव लड़ना. तो ऐसे में प्रियंका की छवि कैसे नरेंद्र मोदी के आभामंडल को खत्म करेगी, इस पर कांग्रेस का ध्यान है क्योंकि 2014 में नरेंद्र मोदी जिस हंगामे और तामझाम के साथ आए ये कोई कैसे भूल सकता है.