जिस तरह टिकट खिड़की पर हर शुक्रवार को कोई न कोई फिल्म रिलीज होती है, वैसे ही हर दूसरे-चौथे महीने देश में कोई न कोई नया राजनीतिक नाटक रिलीज होता है. इन राजनीतिक नाटकों की खास बात यह है कि 90 के दशक की ज्यादातर घटिया फिल्मों की तरह इनकी एक ही कहानी होती है. सिर्फ चरित्न और पात्र बदल जाते हैं. इन नाटकों की कहानी एक पंक्ति में सुनाई जा सकती है. कहानी कुछ यूं है कि एक हीरो है, जो खुद को चक्रव्यूह में घिरा पाकर एक दिन विरोधियों से हाथ मिला लेता है और सत्ता की मलाई खाता है.
कुछ साल पहले तक राजनीतिक नाटक छिप छिपाकर पर्दे के पीछे हुआ करते थे, लेकिन अब खुलकर होते हैं. जिस तरह बाजार में लॉन्च होने वाले हर नए उत्पाद का खूब प्रचार होता है, वैसे ही राजनीति में घटित होने वाला हर नया नाटक भी अब जोरशोर से लॉन्च होता है. नाटक के आरंभ होने से पहले तमाम पात्न अचानक राजनीतिक स्टेज पर ‘लेफ्ट-राइट’ करने लगते हैं. टीवी न्यूज चैनलों में जश्न मनने लगता है कि चलो कोई नौटंकी शुरू हुई.
जिस तरह अमिताभ बच्चन ने 80 के दशक में कई फिल्मों में एंग्री यंग मैन का किरदार निभाया, वैसे ही राजनीतिक नाटकों में कई किरदार कई बार दलबदलू विधायक की भूमिका निभाते हैं. मजे की बात यह कि एक ही रोल को एक ही स्टाइल में करते-करते भी वो बोर नहीं होते. एक ही अंदाज में बस में बैठना, फिर बेंगलुरु के किसी रिजॉर्ट में टिकना, फिर परेड करना यानी सब कुछ रटा रटाया.
अपना मानना है कि राजनीतिक नाटकों की बढ़ती संख्या के बीच राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय को एक ब्रांच सिर्फ राजनेताओं के लिए खोल देनी चाहिए ताकि एक ही किरदार को हर बार कुछ अलग ढंग से करें. पब्लिक भी बार-बार भेड़-बकरियों की तरह विधायकों को बस में भरे देख वितृष्णा से भर जाती है. कुछ नया होना चाहिए. जैसे- कभी पानी के जहाज में भरकर विधायकों को अंडमान ले जाया जाए, जहां वे आदिवासियों के बीच ओला ओला ओले करते हुए अपना वक्त काटें. सोचिए, तस्वीरें टीवी पर आएंगी तो जनता कितनी उत्साहित होगी कि देखो हमने जिसे वोट दिया वो कितना सुंदर नृत्य करता है. अहा! इसी तरह बंदा इस्तीफा दे तो कम से कम चार धांसू डायलॉग मारे. ये क्या बात हुई कि इस्तीफा ट्विटर पर पोस्ट कर दिया?
राजनीति अगर नौटंकी है तो उस नौटंकी का भरपूर मजा पब्लिक को आना चाहिए.