चुनावी विश्लेषण 6: तेलंगाना और मिजोरम में जीत और हार के टर्निंग प्वाइंट्स, लोकसभा चुनाव के लिए सबक!
By बद्री नाथ | Published: January 5, 2019 07:25 AM2019-01-05T07:25:21+5:302019-01-05T07:25:21+5:30
विधानसभा चुनाव विश्लेषण 2018: कैसे लड़ा गया चुनाव, कैसे रहे नतीजे, कैसी हो रही हैं चर्चाएं, आगे आम चुनावों में क्या होंगी राजनीतिक संभावनाएं?
तेलंगाना में कांग्रेस का आत्मघाती कदमः बीजेपी ने अपने चुनाव अभियान में यहाँ पर भी कट्टर हिंदुत्व कार्ड पर बल दिया। योगी जी ने अपने भाषणों में ओवैसी को निजाम की तरह देश से बाहर निकालने जैसे वक्तव्यों का उपयोग किया। नतीजा यह हुआ कि मुस्लिम वोट बीजेपी के खिलाफ एकजुट हुआ इस वीडियो को ओवैसी की टीम द्वारा सोशल मीडिया पर खूब प्रसारित किया गया था। इस सन्दर्भ में यह बात दीगर है कि ओवैसी के साथ किये गए गठबंधन ने टी आर एस के खाते में मुस्लिम वोटों के टीआरएस के पक्ष में एकतरफा आने का मार्ग प्रशस्त हुआ था। 14 वालों तक अलग तेलंगाना की लड़ाई लड़कर नए तेलंगाना राज्य का मार्ग प्रशस्त करने वाले टी चंद्रशेखर की राजनितिक चतुराई का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि कांग्रेस बीजेपी जैसी राष्ट्रीय पार्टियों को हिंदी पट्टी के 3 अहम् राज्यों के चुनाव प्रचार में व्यस्त देख कर सितम्बर 2018 को विधान सभा भंग कर दी गई (इस सन्दर्भ में यह बात दीगर है कि तेलंगाना के चुनाव अगले साल प्रस्तावित थे विधान सभा का कार्यकाल मई 2019 तक का था।), जिससे लोकसभा चुनाव के समय राष्ट्रीय मुद्दे के असर से बचाकर अपने पार्टी के भविष्य को सुरक्षित रख जाए। अचानक से लिए गए विधान सभा के भंग करने के फैसले ने कांग्रेस और बीजेपी को तेलंगाना पर फोकस करने का मौका भी कम दिया पहले से सारी गोटियाँ फिट किये बैठे के चंद्रशेखर राव ने सब कुछ अपने पक्ष में कर लिया।
बीजेपी व कांग्रेस बिना तैयारी के चुनाव में उतरी। कांग्रेस ने जहाँ बीजेपी के पुराने साथी यानि कि चन्द्र बाबू नायडू के साथ गठबंधन किया वहीं बीजेपी अकेले चुनाव में उतरी और अंततः 5 सीटों वाली बीजेपी 1 सीट पर सिमट गई तो तेलंगाना राज्य बनने के धुर विरोधी रहे चन्द्र बाबू नायडू के साथ किया गया गठ्बन्धन भी आत्मघाती साबित हुआ। कांग्रेस 20 सीटों के आस पास ही सिमट गई और 63 सीटों वाली टी आर एस एन जहाँ 88 सीटें जीती वहीं इसकी सहयोगी AIMIM- 8 सीटें लड़कर 7 सीटों पर जीत दर्ज की। क्षेत्रीय विकल्पों की उपलब्धता से राष्ट्रीय पार्टियों की स्वीकारोक्ति नगण्य होना देश की दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान खड़े करते हैं इस दिशा में अगर राष्ट्रीय दल आगे काम नहीं करते हैं तो आने वाले समय में जनता से इन दोनों दलों का विश्वास और कम हो जाने के आसार बढ़ेंगे।
मिजोरम में कांग्रेस की बुरी हार और बीजेपी की विधान सभा में एंट्रीः- इस चुनाव में शराब बंदी मुख्य मुद्दा रहा । पिछले 2 चुनावों से कांग्रेस को मिजोरम में जीत मिल रही थी । लेकिन इस बार मिजोरम ने कांग्रेस और बीजेपी को नकारते हुए क्षेत्रीय मुद्दों पर आधारित पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट को अद्भुत बहुमत दिया है कांग्रेस जहाँ 5 सीटों पर सिमट कर रह गई वहीं पर बीजेपी को मात्र एक सीट से ही संतोष करना पड़ा। यहाँ कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री लाल्थान्हावला अपनी दोनों सीटों से चुनाव हार गए।
यह ठीक वैसे ही है जैसे 2017 के विधान सभा चुनाव में उत्तराखंड के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण और कीक्षा दो विधान सभा सीटों से चुनाव लड़े थे और उन्हें इन दोनों सीटो पर चुनाव हारना पड़ा था। इसे भारतीय मीडिया और राजनितिक विश्लेशको ने मोदी लहर की संज्ञा दी थी तो क्या तेलंगाना और मिजोरम में दोनों राष्ट्रीय पार्टियों की बुरी हार और राजस्थान में हनुमान बेनीवाल और छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की पार्टी को 10 % वोट के मिलने को क्षेत्रीय पार्टियों की लहर नहीं कहा जा सकता? विकल्प हीनता की स्थिति में कांग्रेस को 3 राज्यों में मिली जीत को कांग्रेस की लहर या बीजेपी ला बिकल्प कहना काफी जल्दबाजी होगा । 2014 में कांग्रेस पार्टी के बिकल्प के रूप में देश ने बीजेपी को मौका दिया था लेकिन 2019 में बीजेपी के कमजोर होने पर कांग्रेस मजबूत ही हो ऐसा बिलकुल भी तर्कसंगत नहीं मतलब साफ है तेलंगाना और मिजोरम के चुनावी नतीजों ने ये साबित कर दिया है कि आने वाले आम चुनाव में क्षेत्रीय पार्टियो का भी महत्व काफी अहम् रहने वाला है । चुनावी विश्लेषण जारी है....