दिल्ली वाटरलू हो गई, पर नैपोलियन कौन है...

By पुण्य प्रसून बाजपेयी | Published: June 19, 2018 05:35 AM2018-06-19T05:35:44+5:302018-06-19T05:35:44+5:30

कर्नाटक ने विपक्ष को राह दिखायी। जिसमें सभी पहुंचे। दिल मिले ना मिले। पर हाथ हर किसी ने मिलाया। और दिल्ली कर्नाटक का विस्तार है जिसमें केजरीवाल के पीछे बंगाल, केरल, आध्रप्रदेश, कर्नाटक के सीएम के अलावे उद्दव ठाकरे, सीताराम येचुरी, तेजस्वी, उमर अब्दुल्ला, पवार, चन्द्रशेखर राव सभी है।

aam aadami politics arvind kejriwal congress bjp punya prasoon vajpayee | दिल्ली वाटरलू हो गई, पर नैपोलियन कौन है...

दिल्ली वाटरलू हो गई, पर नैपोलियन कौन है...

दो दशक तक यूरोप पर राज करने वाले नेपोलियन को ठीक दो सौ बरस पहले वाटरलू के मैदान में ही हार मिली थी। नेपोलियन ने वाटरलू को सबसे छोटी लड़ाई के तौर पर देखा था। लेकिन वाटरलू में नैपोलियन की हार ने दुनिया को हार के नाम पर वाटरलू सरीखा एक ऐसा शब्द दे दिया, जिसके बाद हर शख्स हर लड़ाई में कूदने से पहले इस नाम से घबराने कतराने जरुर लगा। और देश के मानचित्र पर दिल्ली वाकई सबसे छोटी है। पर लडाई बड़ी होती जा रही है।  और जिसतरह राज्य दर राज्य के मुखिया और विपक्ष के नेता कूद रहे है उसमें ये सवाल बडा होता जा रहा है कि कहीं दिल्ली भी वाटरलू तो साबित नहीं होगी।

कर्नाटक ने विपक्ष को राह दिखायी। जिसमें सभी पहुंचे। दिल मिले ना मिले। पर हाथ हर किसी ने मिलाया। और दिल्ली कर्नाटक का विस्तार है जिसमें केजरीवाल के पीछे बंगाल, केरल, आध्रप्रदेश, कर्नाटक के सीएम के अलावे उद्दव ठाकरे, सीताराम येचुरी, तेजस्वी, उमर अब्दुल्ला, पवार, चन्द्रशेखर राव सभी है। यानी सबसे बड़ी बात तो दिल्ली के सवाल पर जिस तेजी से विपक्ष एकजूट हुआ उसके बाद सवाल सिर्फ इतना है कि काग्रेस क्या केजरीवाल के आसरे सिर्फ खुद को अलग थलग रखे हुये है। या फिर काग्रेस मान कर चल रही है कि वक्त के साथ हर किसी को काग्रेस के धागे में खुद को पिरोना ही होगा और उसमें केजरीवाल फिट नहीं बैठते । पर महत्वपूर्ण ये भी है बीजेपी यानी मोदी के साथी उन नेताओ को लेकर खिसक रहे है या फिर साथी उन सवालो को उठा रहे है जो पहले उठाते नहीं थे। मसलन उद्दव का केजरीवाल प्रेम जागना नहीं है बल्कि मोदी सत्ता को चुनौती देना है। फिर नीति आयोग की बैठक में जिस तरह नीतिश कुमार विशेष राज्य के मुद्दे पर भड़के नजर आये और काग्रेस ने उन्हे साथ आने के लिये पुचकारा। और नीतिश पलटी मारते है तो पासवान क्या करेगें। और उद्दव बीजेपी से सौदेबाजी की जगह दगाबाजी करते हैं तो बीजेपी महाराष्ट्र में क्या करेगी। तो क्या दिल्ली को वाटरलू मानकर  2019 का हर सियासी दरवाजा खोला जा रहा है या बंद भी किया जायेगा।

क्योंकि इतिहास के पन्नों को पलटें तो 1815 में नेपोलियन के खिलाफ वाटरलू में इंग्लैड,रुस, आस्ट्रिया पर्शिया की सेना एकजुट हो उससे पहले ही नेपोलियन ने हमला कर दिया था और नेपोलियन को भरोसा था कि उसे जीत मिलेगी। लेकिन हुआ उल्टा। कुछ इसी तर्ज पर दिल्ली में अगर केजरीवाल के पीछे समूचे विपक्ष ने सारी ताकत झोक दी तो क्या होगा । क्योकि रविवार को दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सडक रैली का नजारा संकेत और संदेश दोनो दे रहा था। तो दूसरी तरफ क्या इन सवालो का जवाब देने के लिये नरेन्द्र मोदी अपने चमात्कारिक नेतृत्व के साथ पुरी सरकार को उतार कर संदेश देगें कि विकास ठप करने के लिये आंदोलन हो रहा है। या फिर वह भी दिल्ली के आसरे चुनावी मैदान में कूद जायेगें। तो विपक्ष को एकके के आसरे बांटने में मोदी सफल हो सकते है। और इसकी जरा सी भी आहट सुनाई देगी तो ये तय है कि लोकसभा चुनाव की तैयारी भी दिल्ली से होते हुये तीन राज्यो के चुनाव के साथ शुरु हो जायेगी जो बीजेपी शासित राज्य है। और जहा बीजेपी को लगता है कि एंटी इनकबेसी के खेल में वह कही हार ना जाये । और हो ये भी सकता है जिसके संकेत आज सुब्रमण्यम स्वामी ने ये कह कर दिये कि दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा देना चाहिये।

तो क्या दिल्ली वाटरलू साबित ना हो इसके लिये बिसात बिछायी जा रही है। और बिसात पर तीन सवाल प्यादे बने
हैं। पहला क्या मोदी केजरीवाल के नाम पर विपक्ष एकजूटता को रोक देगें । दूसरा,क्या मोदी जल्द चुनाव के लिये रास्ता बनाने में लग गये है। तीसरा, हिन्दुत्व या विकास से इतर खुद की साफ-इमानदार छवि को ही मुद्दा बनाना
चाहते है। क्योकि हर कोई जानचुका है विकास की चकाचौंघ सिवाय धोखे के कुछभी नहीं। धर्म के नाम पर हिन्दु वोट बैकं में भी बिखराव हो रहा है। जाति सोशल इंजिनियरिंग नहीं है ।

ऐसे में दिल्ली के पन्नो को पलटियेगा  तो याद किजिये जंतर मंतर से रामलीला मैदान तक भष्ट्र होती राजनीति के खिलाफ 6 बरस पहले के बिगुल को कौन भूला होगा। तब सड़क पर आम आदमी था और संसद में खास। पर सड़क ने संसद ने डिगाया। आम आदमी के नाम को ही राजनीतिक पहचान दे दी गई।  दो चेहरे उभर कर सामने आ गये।केजरीवाल दिल्ली जीते तो मोदी ने देश जीता। पर दोनों ने वार भ्रष्ट राजनीति पर किया। घोटालो घपलों पर किया। बाखूबी इमानदारी का राग गाया गया। पर वक्त ने दोनों को ही आमने सामने ला खड़ा किया। और 6 बरस के दौर ने आम आदमी की पहचान सड़क से छिन कर आम आदमी पार्टी के तौर पर नई पहचान एलजी के घर के भीतर वेंटिग रुम में आंदोलन का तानाबाना बुनते उस दिल्ली सरकार में बदल दी। जिसकी जुबां पर जिक्र दिल्ली के आम आदमी का है पर दिल में 2019 की सियासत पलटने की चौसर है। और 2019 की चौसर देख कर या फिर दिल्ली को रणभूमि मान कर हर कोई अपना पांसा फेंकने लगा। और इस सियासी चौसर ने दो सवालों को जन्म दे दिया। पहला, काग्रेस और तीसरे मोर्चे का गंठबंधन अलग अलग होगा। दूसरा, अगर तीसरा मोर्चा किसी चेहरे के का एलान कर देता है तो क्या होगा। यानी दिल्ली की चौसर चाहे अनचाहे उस राजनीति के केन्द्र में आ खड़ा हुई जो क्षत्रपो के लिये जितनी शानदार है उतनी ही मुश्किल काग्रेस -बीजेपी दोनोंके लिये है। यानी पहली बार काग्रेस को तय करना है कि समूचा विपक्ष एक साथ है या फिर सुविधानुसार एक साथ है। क्योंकि काग्रेस अगर केजरीवाल के साथ खड़ी होती है तो फिर बीजेपी राहुल पर सीधा वार करने से नहीं चुकेगी।

पर महाएकजुटता का पहला टेस्ट दिल्ली में हो जायेगा और अगर काग्रेस केजरीवाल के साथ खडी नहीं होती है तो फिर  2019 में त्रिकोणीय मुकाबले में यूपीए-तीसरे मोर्चे के बीच तालमेल चुनाव से पहले डगमगायेगा। तो दिल्ली का रास्ता किस दिशा को पकडेगा इसके लिये कुछ इंतजार अभी और करना होगा क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट शुक्रवार से पहले  सुनवाई करेगा नहीं। केजरीवाल एलजी के घर से बाहर निकलेगें नहीं। नौकरशाह बेहद तन्मयता से अपने काम को अंजाम देने में लगेगें। तो आखरी सवाल हर जहन में उभर रहा होगा कि क्या दिल्ली मोदी  या केजरीवाल के लिये वाटर-लू साबित होने वाला है। क्योंकि क्षत्रप खुश है संघीय ढांचे पर दिल्ली में ही सवाल उठ गये। खत्म किये जा रहे संस्धानों के सवाल दिल्ली में ही उठ गये। क्षत्रप खुश है दिल्ली में उनकी सियासत नहीं तो तालमेल पर कोई अंतर्रविरोध भी नहीं।
और बीजेपी खुश है केजरीवाल की पुरानी धरने वाली सियासत लौटी तो उसे अराजक दुश्मन मिल गया जिसे वह आसानी से खारिज कर सकती है। पर इस सवाल को हर कोई भूल रहा है कि 2015 की राजनीति और 2018 की राजनीति में फर्क सिर्फ इतना आया है कि तीन  बरस पहले जनता को लग रहा था वह चुनाव लड रही है तो 2014
में मोदी लहर होने के बावजूद केजरवाल एतिहासिक जीत हासिल कर गये। और 2018 में तमाम विपक्ष को लग रहा है कि अगर साथ खडे नहीं हुये तो फिर हर कोई मोदी सरकार का शिकार हो जायेगा । यानी काग्रेस जिस लडाई से अलग होकर दिल्ली की लडाई को बिजली पानी के दायरे में ला कर केजरीवाल को घेर रही है और उसे लगने लगा है कि बीजेपी शासित तीन राज्य राजस्थान मद्यप्रदेश और छत्तिसगढ में चुनाव होने के बाद देश काग्रेसमय हो जायेगा। पर काग्रेस का संकट ये है कि उसकी साख अपने बूते चुनाव जीतने वाली है नहीं। गुजरात में भी हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश के साथ काग्रेस को आना पड़ा।

राजस्थान-मध्यप्रदेश में बीएसपी तो छत्तिसगढ़ में अजीत जोगी का साथ चाहिये। तो क्या दिल्ली की चौसर काग्रेस के लिये भी वाटरलू की दिशा में ले जा सकती है। और बीजेपी का संकट तो ये है कि जब शिवसेना सरीखी पार्टी केजरीवाल के आसरे अपनी ही मोदी सरकार पर ये कहकर निशाना साधने पर आ गई कि केन्द्र सरकार के कामकाज का तरीका ठीक नहीं। और उद्दव ठाकरे बकायदा केजरीवाल का फोन ठकठका देते है ।तो क्या दिल्ली चाहे अनचाहे उस संकेत को बल दे रही है जिसे इससे पहले तमाम विपक्ष ये कहकर उठाते रहे कि हर संस्धान केन्द्र के इशारे पर चलता है। यानी जो सवाल इससे पहले लखनऊ, पटना या कोलकता में गूजते थे। उसे दिल्ली ने मंच दे दिया है। यानी आने
वाले दिनो में केजरीवाल के लडने के तरीके होगें। विपक्ष की एकजूटता होगी। और मोदी नैपोलियन बने रहेंगे या नहीं यही दिल्ली को तय करना है।

Web Title: aam aadami politics arvind kejriwal congress bjp punya prasoon vajpayee

राजनीति से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे