निदा फाजलीः जिनकी शायरी में छिपे हैं जिंदगी और जिंदादिली के कई राज
By आदित्य द्विवेदी | Published: February 8, 2018 02:53 PM2018-02-08T14:53:00+5:302018-02-08T15:36:58+5:30
आज से ठीक दो साल पहले 8 फरवरी 2016 को निदा फाजली ने अपने जिस्म को छोड़कर शब्दों का लबादा ओढ़ लिया। आज निदा सशरीर हमारे साथ नहीं हैं लेकिन उनके शब्द हमारे बीच मौजूद हैं जो हमेशा हमें जिंदादिली का सलीका सिखाते रहेंगे।
मुक्तिदा हसन उर्फ निदा फाजली। निदा का मतलब होता है 'आवाज' और फाजली कश्मीर के उस इलाके का नाम है जहां से उनके पूर्वज आकर दिल्ली बस गए थे। उनके नाम की ही तरह निदा की शायरी में मिट्टी से जुड़ाव और जिंदादिली झलकती है। इश्क पर भी उनका एक अलग नजरिया है जो मोहब्बत करने वालों को नई रौशनी दिखाता है। निदा ने खुदा पर भी अपना फलसफा पेश किया। निदा की सबसे मकबूल गजल 'सफर में धूप' के शुरुआती दो शेर ही आज के समाज के प्रति उनके नजरिए की गवाही देते हैं...
'सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो,
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो।
यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता,
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो।'
12 अक्टूबर 1938 को निदा फाजली का जन्म हुआ। निदा के पिता भी शायरी के शौकीन थे लिजाहा उन्हें शेरो-शायरी के संस्कार विरासत में मिले। अपना बचपन उन्होंने मशहूर शायरों की किताब, उर्दू और फारसी के दीवानों के बीच गुजारा। निदा फाजली ने नज्म, गजल और फिल्मों के लिए गीत भी लिखे हैं।
उर्दू साहित्य के जाने-माने आलोचक प्रोफेसर वारिस अल्वी ने कहीं कहा था कि निदा फाजली की नज्म 'मां' को उर्दू की चंद बेहतरीन नज्मों में शुमार किया जाना चाहिए। इस नज्म को पढ़ते हुए मां के प्रति कृतज्ञता का एहसास होगा। पढ़िए निदा फाजली की नज्म 'मां'.
बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका, बासन, चिमटा, फूंकनी जैसी माँ
बांस की खुर्री खाट के ऊपर, हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी, थकी दोपहरी जैसी माँ
चिड़ियों के चहकार में गूंजे, राधा – मोहन अली- अली
मुर्गी की आवाज़ से खुलती, घर की कुण्डी जैसी माँ
बीवी, बेटी, बहन, पड़ोसन, थोड़ी थोड़ी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर, चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा, माथा, आँखें, जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम, में चंचल लड़की जैसी माँ।
इश्क पर भी निदा फाजली की कलम ने खूब रौशनी भरी है। 'दिल में ना हो जुर्रत तो मोहब्बत नहीं मिलती, खैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती।' जब वो ये शेर लिखते हैं तो लगता है इश्क करने वालों को थपकी देकर समाज के सामने खड़े होने की हिम्मत दे रहे हैं। उनका शेर 'ये दिल कुटिया है संतों की यहाँ राजा भिखारी क्या, वो हर दीदार में ज़रदार है गोटा किनारी क्या' दिल को सुकून दे जाता है। उनकी नज्म 'वो शोख-शोख नजर सांवली-सी एक लड़की' से झलकता है कि एक शायर इश्क पर ऐसी भी सोच सकता है।
वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है
सुना है वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे।
आज से ठीक दो साल पहले 8 फरवरी 2016 को निदा फाजली ने अपने जिस्म को छोड़कर शब्दों का लबादा ओढ़ लिया। आज निदा सशरीर हमारे साथ नहीं हैं लेकिन उनके शब्द हमारे बीच मौजूद हैं जो हमेशा हमें जिंदादिली का सलीका सिखाते रहेंगे। पुण्यतिथि पर निदा फाजली को उन्हीं के इन शब्दों से बेहतर श्रृद्धांजलि क्या होगी... 'तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है, जहां भी जाऊं हे लगता है तेरी महफिल है!'