#KuchhPositiveKarteHain- बाघा जतीन: अगर इन्हें ना मिला होता धोखा तो भारत हो जाता 1915 में आजाद और ये कहलाते भारत के राष्ट्रपिता!
By मोहित सिंह | Published: April 26, 2018 08:06 AM2018-04-26T08:06:03+5:302018-05-11T16:00:36+5:30
बंगाल की धरती पर जन्म लिया था इस बाघ ने जिसका प्रमुख लक्ष्य अंग्रेज शासन का शिकार करना था. बाघा जतिन एक ऐसा नाम था जो शायद बहुत ही कम लोगों को पता हो, जिन्होंने देश के लिए दिया बलिदान।
सात दिसंबर 1879 में बंगाल की धरती पर एक बाघ ने जन्म लिया (कायाग्राम, कुष्टिया जिला जो अब बांग्लादेश में है) जिसका लक्ष्य था गुलाम भारत की आजादी। बाघा जतीन (Tiger Jatin) के नाम से मशहूर हुए ये बंगाली क्रांतिकारी जिनके बचपन का नाम जतीन्द्रनाथ मुखर्जी (जतीन्द्रनाथ मुखोपाध्याय) था, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध कार्यकारी दार्शनिक क्रान्तिकारी थे। इन्होने युगान्तर पार्टी की स्थापना की जो बंगाल में क्रान्तिकारियों का प्रमुख संगठन थी।
प्रारंभिक जीवन –
5 साल की बेहद ही छोटी सी आयु में ही उनके पिता का देहावसान हो गया और इनकी माँ ने बेहद गरीबी और बड़ी कठिनाई से उनका लालन-पालन किया। 18 साल की उम्र में इन्होने मैट्रिक पास की और परिवार के जीविकोपार्जन के लिए स्टेनोग्राफी सीखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय में नौकरी कर ली। बचपन से ही इनकी शारीरिक बनावट बहुत अच्छी थी और इनकी भुजाओं में बहुत बल था. अगर एक किवदन्ती पर विश्वास किया जाए तो इन्होंने 27 साल की उम्र में बंगाल के जंगल में एक बाघ से ना सिर्फ मुठभेड़ की बल्कि सिर्फ एक हसियें से उसे मार गिराया था. इस घटना के बाद से ही जतीन्द्रनाथ “बाघा जतीन” नाम से मशहूर हो गए थे।
1905 में कलकत्ता में प्रिंस ऑफ वेल्स का दौरा हुआ, अंग्रेजों की बद्तमीजियों से भरे बैठे बाघा जतीन ने प्रिंस के सामने ही अंग्रेजों को सबक सिखाने का फैसला किया। प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत जुलूस निकल रहा था, एक गाड़ी की छत पर कुछ अंग्रेज बैठे हुए थे, और उनके जूते खिड़कियों पर लटक रहे थे, गाड़ी में बैठी महिलाओं के बिलुकल मुंह पर। भड़क गए जतिन और उन्होंने अंग्रेजों से उतरने को कहा, लेकिन वो नहीं माने तो ऊपर चढ़ गए बाघा जतिन और एक-एक करके सबको पीट दिया। तब तक पीटा जब तक कि सारे नीचे नहीं गिर गए।
चूंकि ये घटना प्रिंस ऑफ वेल्स की आंखों के सामने घटी थी, तो अंग्रेज सैनिकों का भारतीयों के साथ ये बर्ताव उनके साथ सबने देखा। छानबीन करने पर, बाघा जतीन जतिन की बजाय उन अंग्रेजों को ही दोषी पाया गया, लेकिन इस घटना से तीन बड़े काम हुए। अंग्रेजों के भारतीयों के व्यवहार के बारे में उनके शासकों के साथ-साथ दुनियां को भी पता चला, भारतीयों के मन से अंग्रेजों का डर निकला और बाघा जतीन के प्रति क्रांतिकारियों के मन में सम्मान और भी बढ़ गया।
क्रांतिकारी जीवन –
इनके समय पर हर तरफ देश की आज़ादी के लिए आंदोलन चल रहे थे और उन्हीं दिनों अंग्रेजों ने बंग-भंग करने का षड्यंत्र रचा। इस षड्यंत्र का पता चलने पर बंगाल में अंग्रेजों का खुल के विरोध होना शुरू हुआ और क्रांति की चिंगारी पूरे बंगाल में भड़क उठी. जतीन्द्रनाथ मुखर्जी का जवान खून ये सब देखकर खौल उठा, उन्होंने साम्राज्यशाही की नौकरी को छोड़ा और आजादी के इस आन्दोलन में कूद पड़े। सन् 1910 एक क्रांतिकारी संगठन में काम करते वक्त जतीन्द्रनाथ ‘हावड़ा षडयंत्र केस’ में गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें साल भर की जेल काटनी पड़ी।
जेल से आज़ाद होने के बाद जतीन्द्रनाथ ‘अनुशीलन समिति’ के सक्रिय सदस्य बन गए और ‘युगान्तर’ का कार्य संभालने लगे। उन्होंने अपने एक लेख में उन्हीं दिनों लिखा था-‘ पूंजीवाद समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना क्रांतिकारियों का लक्ष्य है। देसी-विदेशी शोषण से मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीवनयापन का अवसर देना हमारी मांग है।’
उस समय क्रांतिकारियों के पास आन्दोलन के लिए धन जुटाने का सबसे बड़ा जरिया डकैती थी. दुलरिया नामक स्थान पर भीषण डकैती के दौरान अपने ही दल के एक सहयोगी की गोली से क्रांतिकारी अमृत सरकार घायल हो गए। विकट समस्या यह खड़ी हो गयी कि धन लेकर भागें या साथी के प्राणों की रक्षा करें! अमृत सरकार ने जतींद्रनाथ से कहा कि धन लेकर भागो। जतींद्र नाथ इसके लिए तैयार न हुए तो अमृत सरकार ने आदेश दिया- ‘मेरा सिर काट कर ले जाओ ताकि अंग्रेज पहचान न सकें।’
डकैतियों में ‘गार्डन रीच’ की डकैती सबसे मशहूर मानी जाती है। इसके नेता जतींद्रनाथ मुखर्जी थे। विश्व युद्ध प्रारंभ हो चुका था। कलकत्ता में उन दिनों राडा कम्पनी बंदूक-कारतूस का व्यापार करती थी। इस कम्पनी की एक गाड़ी रास्ते से गायब कर दी गयी और क्रांतिकारियों को 52 मौजर पिस्तौलें और 50 हजार गोलियाँ मिल गयी।
जतींद्रनाथ की एक सीक्रेट सोसायटी का मुख्य काम भारतीयों पर अन्याय करने वाले सरकारी अधिकारियों चाहे वो अंग्रेज हों या भारतीय को मारने का ऑपरेशन था लेकिन एक सरकारी वकील और अंग्रेज डीएसपी की हत्या के बाद एक क्रांतिकारी ने जतींद्रनाथ का नाम उजागर कर दिया। जिस वज़ह से इन सभी डकैतियों और हत्याओं में जतींद्रनाथ का हाथ होने की जानकारी ब्रिटिश सरकार को हो गयी खासकर ‘बलिया घाट’ तथा ‘गार्डन रीच’ की डकैतियां।
जतींद्रनाथ को डीएसपी की हत्या और डकैतियों के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया, जिस समय उनपर मुकदमा चल रहा था उस समय भी जतींद्रनाथ अपने अन्य क्रांतिकारी साथियो के साथ मिलकर एक प्लान बना रहे थे, देश को अंग्रेजो से आज़ाद कराने का एक बड़ा प्लान जो अगर पूरा हो जाता तो शायद भारत 1947 में आज़ाद ना होकर 1915 में ही आज़ाद हो गया होता।
कोई भी गवाह ना मिलने की वज़ह से जतींद्रनाथ को बाइज़्ज़त छोड़ तो दिया गया लेकिन इतनी घटनाओं में नाम जुड़ने के कारण अब जतींद्रनाथ सामने आकर आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सकते थे. उन्होंने ने फिर छुपकर प्लान बनाना शुरू किया। उन्हीं दिनों जर्मनी के राजा कलकत्ता में आकर जतींद्रनाथ से मिले और दोनों ने मिलकर अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का प्लान बनाया, जतींद्रनाथ ने जर्मनी से हथियार और गोले – बारूद की सप्लाई का वादा लिया। इतिहास में इस प्लान को ‘जर्मन प्लान या हिंदू-जर्मन कांस्पिरेसी’ के नाम से जाना जाता है.
बंगाल, उत्तर प्रदेश, पंजाब, सिंगापुर जैसे कई ठिकानों में 1857 जैसे सिपाही विद्रोह की योजना बनाई गई। फरवरी 1915 की अलग-अलग तारीखें तय की गईं, पंजाब में 21 फरवरी को 23 वीं कैवलरी के सैनिकों ने अपने ऑफीसर्स को मार डाला। लेकिन उसी रेंजीमेंट में एक विद्रोही सैनिक के भाई कृपाल सिंह ने गद्दारी कर दी और विद्रोह की सारी योजना सरकार तक पहुंचा दी। सारी मेहनत एक गद्दार के चलते मिट्टी में मिल गई।
लेकिन बाघा जतिन अभी भी अंडरग्राउंड रहकर क्रांतिकारियों के बीच एक्टिव थे, योजना बनी कि जर्मनी से जो हथियार आएंगे वो अप्रैल 1915 में उड़ीसा का बालासोर तट पर उतरेंगे, वहां से तीस किलोमीटर दूर मयूरभंज में जतिन को भेजकर अंडरग्राउंड कर दिया गया। हथियारों की खेप मंगाने के लिए एक फर्जी कंपनी यूनीवर्सल एम्पोरियम भी खड़ी कर दी गई। इस बात की भनक एक चेक जासूस इमेनुअल विक्टर वोस्का, जो डबल एजेंट भी था, अमेरिका के लिए भी काम करता था, को लग गयी और उसने सारा खेल खराब कर दिया।
चेक के ही रॉस हेडविक ने बाद में लिखा कि ‘इस प्लान में अगर इमेनुअल विक्टर वोस्का ना घुसता तो किसी ने भारत में गांधी का नाम तक ना सुना होता और राष्ट्रपिता बाघा जतिन को कहा जाता।‘
वहां से खबर अमेरिका को मिली, अमेरिका से अंग्रेजों को मिली, इंगलैंड से खबर भारतीय अधिकारियों के पास आई और उड़ीसा को पूरा समुद्र तट सील कर दिया गया। इस तरह जर्मन प्लान असफल हो गया.
इधर, 9 सितंबर 1915 को पुलिस ने जतींद्र नाथ का गुप्त अड्डा ‘काली पोक्ष’ (कप्तिपोद) ढूंढ़ निकाला। यतींद्र बाबू साथियों के साथ वह जगह छोड़ने ही वाले थे कि राज महन्ती नमक अफसर ने गाँव के लोगों की मदद से उन्हें पकड़ने की कोशश की। बढ़ती भीड़ को तितर बितर करने के लिए यतींद्र नाथ ने गोली चला दी। राज महन्ती वहीं ढेर हो गया। यह समाचार बालासोर के जिला मजिस्ट्रेट किल्वी तक पहुंचा दी गयी। किल्वी दल बल सहित वहाँ आ पहुंचा। यतीश नामक एक क्रांतिकारी बीमार था और जतींद्र उसे अकेला छोड़कर जाने को तैयार नहीं थे। चित्तप्रिय नामक क्रांतिकारी लगातार जतींद्र नाथ के साथ था, दोनों तरफ़ से गोलियाँ चल रही थीं तभी यकायक गोलियों ने चित्तप्रिय के शरीर को छलनी कर डाला और वो वहीं शहीद हो गया। वीरेन्द्र तथा मनोरंजन नामक अन्य क्रांतिकारी मोर्चा संभाले हुए थे। इसी बीच यतींद्र नाथ का शरीर गोलियों से छलनी हो चुका था। वह जमीन पर गिर कर ‘पानी-पानी’ चिल्ला रहे थे। मनोरंजन उन्हें उठा कर नदी की और ले जाने लगा। तभी अंग्रेज अफसर किल्वी ने गोलीबारी बंद करने का आदेश दे दिया। गिरफ्तारी देते वक्त जतींद्र नाथ ने किल्वी से कहा- ‘गोली मैं और चित्तप्रिय ही चला रहे थे। बाकी के तीनों साथी बिल्कुल निर्दोष हैं।
इस घटना के अगले ही दिन 10 सितम्बर 1915 को भारत की आज़ादी के इस महान सिपाही ने अस्पताल में सदा के लिए आँखें मूँद लीं और एक इतिहास बनते–बनते रह गया.