विजय दर्डा का ब्लॉगः बड़ा सवाल कि सरकारी नौकरियां हैं कहां?
By विजय दर्डा | Published: January 14, 2019 05:33 AM2019-01-14T05:33:07+5:302019-01-14T05:33:07+5:30
श्रम ब्यूरो का ताजा आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसके अनुसार वर्ष 2015-16 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर पांच वर्षो के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई थी. एक रिपोर्ट तो ऐसी भी आई जिसमें बताया गया कि हर रोज औसतन 500 से ज्यादा नौकरियां समाप्त हो रही हैं.
केंद्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में गरीब सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा इतने आनन-फानन में की कि विपक्षी दल भौंचक्के रह गए. मैं आनन-फानन शब्द का उपयोग इसलिए कर रहा हूं क्योंकि इससे ठीक पहले एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने खुद ही कहा था कि आर्थिक आधार पर आरक्षण के किसी प्रस्ताव पर विचार नहीं किया जा रहा है. जाहिर है प्रस्ताव अचानक आया और इसके पीछे चुनावी गणित साफ-साफ नजर आ रहा है. तीन राज्यों के चुनाव में पराजित भारतीय जनता पार्टी ने अपने तरकश से ऐसा तीर निकाला कि उसे लोकसभा चुनाव में इसका लाभ मिल जाए.
जाहिर तौर पर यह अच्छा कदम है. गरीब चाहे किसी भी जाति-धर्म का हो, उसे मुख्य धारा में लाने के प्रयास किए ही जाने चाहिए. किसी गरीब को इस आधार पर वंचित नहीं किया जा सकता कि वह किस जाति में पैदा हुआ है. कांग्रेस के नरसिंह राव जब प्रधानमंत्री थे तब भी इस तरह की कोशिश की गई थी लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उसे वैध नहीं माना था. इस स्थिति से बचने के लिए भाजपा सरकार ने संविधान में संशोधन कर दिया है. कांग्रेस सहित ज्यादातर पार्टियों ने इस मामले में केंद्र सरकार का साथ दिया क्योंकि सभी दल इस तरह की व्यवस्था चाह रहे थे. इक्का-दुक्का पार्टियों ने विरोध किया.
बहरहाल भाजपा को यह लग रहा है कि इसका लाभ उसे लोकसभा चुनाव में मिल जाएगा लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि भले ही आरक्षण की व्यवस्था हो गई हो लेकिन सरकारी नौकरियां हैं कहां? जिस तेजी से युवा रोजगार की तलाश में सामने आ रहे हैं, उस तेजी से तो निजी क्षेत्र में भी नौकरियां पैदा नहीं हो रही हैं, सरकारी नौकरी की तो बात ही छोड़ दीजिए. बेरोजगारी की स्थिति कितनी भयावह है इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि रेलवे ने करीब 30 साल बाद एक लाख नौकरियों के लिए आवेदन बुलाए.
ये नौकरियां ट्रैकमैन, कुली और इलेक्ट्रीशियन के लिए थीं. इन पदों के लिए 2 करोड़ 30 लाख लोगों ने आवेदन किया. मुंबई पुलिस में केवल 1,137 सिपाहियों की भर्ती होनी थी जिसके लिए दो लाख से ज्यादा लोगों ने अप्लाई किया. उनमें बहुत पढ़े-लिखे युवा भी शामिल थे. इसी तरह उत्तर प्रदेश सचिवालय में 268 क्लर्क पदों के लिए 2 करोड़ 30 लाख लोगों ने आवेदन दिया. स्टाफ सेलेक्शन कमीशन के आंकड़ों पर गौर करें तो उसने 2016-17 में 40 हजार विभिन्न पदों के लिए आवेदन बुलाए तो उसे 3 करोड़ 37 लाख आवेदन मिले. उसके पहले 2015-16 में 25 हजार 138 पदों के लिए 1 करोड़ 48 लाख आवेदन आए थे.
ये आंकड़े डराते हैं और सवाल पैदा करते हैं कि हमारे यहां बेरोजगारी इतनी तेजी से बढ़ रही है तो रोजगार की व्यवस्था क्यों नहीं हो पा रही है? यह सवाल भी पैदा होता है कि जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण का मतलब क्या रह जाता है? सरकार से तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आपने ऐसी कितनी नौकरियों का सृजन किया है जिससे आरक्षित वर्ग लाभान्वित हो पाएगा? नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पिछला चुनाव लड़ते वक्त भाजपा ने इस देश के युवाओं को बड़ा भरोसा दिलाया था. दो करोड़ युवाओं को रोजगार देने की बात उन्होंने की थी लेकिन वे अपना वादा पूरा नहीं कर सके. कितने युवाओं को नौकरी मिली, यह कोई बताने की स्थिति में नहीं है.
श्रम ब्यूरो का ताजा आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन जो आंकड़े उपलब्ध हैं उसके अनुसार वर्ष 2015-16 के दौरान देश में बेरोजगारी की दर पांच वर्षो के उच्चतम स्तर तक पहुंच गई थी. एक रिपोर्ट तो ऐसी भी आई जिसमें बताया गया कि हर रोज औसतन 500 से ज्यादा नौकरियां समाप्त हो रही हैं. आशंका है कि मौजूदा नौकरियों में से 70 लाख नौकरियां वर्ष 2050 तक समाप्त हो जाएंगी. इसके कई कारण हैं. सबसे बड़ा कारण तो तकनीक में तेजी से हो रहा परिवर्तन है, लेकिन इससे निपटने के लिए तो सरकार को ही योजनाएं बनानी होंगी!
चलिए, हम नौकरियों की बात छोड़ दें और केवल रोजगार की बात करें तो भी तस्वीर भयावह ही नजर आती है. पहले कृषि क्षेत्र करीब 60 फीसदी लोगों को रोजगार देता था लेकिन यह आंकड़ा अब 50 फीसदी से भी कम रह गया है. युवा रोजगार की तलाश में शहरों की ओर रुख कर रहे हैं. शहरों में भी रोजगार की स्थिति ठीक नहीं है. ऐसा माना जाता है कि निर्माण क्षेत्र सबसे ज्यादा रोजगार पैदा करता है लेकिन नोटबंदी के बाद यह क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है और रोजगार के अवसर कम हुए हैं.
देश का युवा सारी स्थिति को समझ रहा है. वह अपने भरोसे को टूटता देख रहा है. वह देख रहा है कि आरक्षण की बात बेमानी है क्योंकि जब नौकरियां ही नहीं हैं तो आरक्षण का लाभ क्या मिलेगा. उसे पता है कि ये चुनावी चोंचले हैं. इस देश का युवा तो उस दिन के सपने देख रहा है जब रोजगार के अवसर इतने सारे उपलब्ध हों कि उसे आरक्षण की जरूरत ही न रहे. लेकिन फिलहाल इस बात की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है. राजनीतिक दलों के लिए किसी भी तरह चुनाव जीतकर सत्ता में बने रहना देश से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है.