विश्व पर्यावरण दिवस: प्रकृति की गोद में सुनें मौन की भाषा

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: June 5, 2025 06:24 IST2025-06-05T06:24:56+5:302025-06-05T06:24:56+5:30

इस पर्यावरण दिवस, न कोई पोस्टर बनाइए, न भाषण दीजिए. बस किसी एक पुराने वृक्ष के नीचे बैठिए. प्रकृति में समय व्यतीत कीजिए. एक नया पौधा रोपिए. एक पुराना गीत मन में गुनगुनाइए, मोबाइल को बंद कीजिए, और केवल श्वास लीजिए. वहां आपको कोई उत्तर नहीं मिलेगा पर आपको आप स्वयं मिलेंगे. और वही प्रकृति का सबसे बड़ा उपहार है.

World Environment Day: Listen to the language of silence in the lap of nature | विश्व पर्यावरण दिवस: प्रकृति की गोद में सुनें मौन की भाषा

विश्व पर्यावरण दिवस: प्रकृति की गोद में सुनें मौन की भाषा

लेखक:  डॉ. अनन्या मिश्र

भागती सड़कों, लगातार बजते फोन और सोशल मीडिया की अंतहीन स्क्रॉलिंग से कभी दूर गए हैं? किसी शांत स्थल की ओर, जहां आपका कोई बड़ा उद्देश्य नहीं था? उस बेचैनी को दूर करने जिसे व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं थे? निश्चित है कि प्रकृति के समीप ही गए होंगे – चाहे पर्वतों पर या किसी नदी के किनारे. हम हमेशा व्याकुलता में प्रकृति और पर्यावरण की ओर ही क्यों आकर्षित होते हैं? क्योंकि ये हमें बताते हैं कि हमारा मन भी कभी शांत था. कि जीवन कभी इतना जटिल नहीं था. जटिल शायद अभी भी नहीं है, बस उतार-चढ़ाव आते रहते हैं. प्रकृति हमें कुछ दिखाती नहीं, वह हमें केवल वो याद दिलाती है, जो हमने इस आधुनिक दौड़ में खो दिया है: सरलता, मौन और संतुलन.

आज हम जीते हैं एक स्मार्ट युग में. स्मार्टफोन, स्मार्ट होम, स्मार्ट वॉच पर निर्भर हो कर. सर्च इंजन पर हर प्रश्न का उत्तर है. कई बार तो प्रश्न भी वही सुझा देता है. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस गैजेट्स हर आदेश का पालन करते हैं. और सोशल मीडिया पर हम हर क्षण स्वयं को ‘दिखा’ रहे हैं. पर जो नहीं है, वह है भीतर का ‘स्पेस’. वह अंतराल जहां आत्मा विश्राम करती थी. हमारी सरलता अब किसी ‘मिनिमलिस्ट रील’ में सिमट गई है. पर जीवन स्वयं से जब ‘ब्लॉक’ हो जाए, तो वह ‘वायरल’ नहीं, ‘लो इंगेजमेंट’ वाला बन जाता है.

ऐसे में हम प्रकृति की ओर खिंचे चले जाते हैं क्योंकि वह सिखाती नहीं. हमसे प्रतियोगिता नहीं करती. वह अनुभव कराती है. एक बीज जब धरती से ऊपर आता है, वह कोई ‘मोटिवेशनल स्पीच’ नहीं देता. उसका संदेश मौन में है: कि हर विकास धीरे, संयम से, और आंतरिक ऊर्जा से होता है. आजकल जब हर कोई अपने ‘गोल्स’, ‘हसल कल्चर’ और ‘डेडलाइन्स’ के पीछे भाग रहा है, तब यह समझना आवश्यक हो गया है कि जीवन कोई ‘प्रोजेक्ट’ नहीं. 

कल्पना कीजिए यदि कोई पौधा आज के ‘हसल कल्चर’ में लिप्त होता तो वह सुबह होते ही सूरज से कहता, “कृपया शीघ्र प्रकट हों, मेरी ‘ग्रोथ’ धीमी हो रही है.” वह मिट्टी से प्रश्न करता, “क्या कोई ‘इंस्टेंट फ्रूट’ योजना है?” शायद उसकी पत्तियां स्वयं की एक तस्वीर के साथ #PhotosynthesisGoals का टैग लगाकर सोशल मीडिया पर डालतीं, और उसकी जड़ें ‘नेटवर्किंग’ के नाम पर दिशाहीन फैलतीं - न मौन होता, न मर्म. परंतु प्रकृति ऐसा नहीं करती. 

वृक्ष बनने से पहले भी पौधा जानता है कि किस क्षण स्थिर रहना है, कब झुक जाना है, और कब अपनी कोई पुरानी पत्ती त्यागनी है. वह धूप की प्रतीक्षा करता है. अधीर नहीं होता. वह आकाश की ओर बढ़ता है, पर किसी से आगे निकलने की होड़ में नहीं होता. वह स्वयं की लय में जीता है. उसमें आकांक्षा है, पर अधिव्यग्रता नहीं. उसकी हर वृद्धि भीतर की शांति से उपजती है. जैसे उसे ज्ञात हो कि जीवन को जबरन नहीं साधा जा सकता; उसे केवल अनुभव किया जा सकता है, मौन में, संयम में.

किंतु मौन तो अब लुप्त हो चुका है. हम इयरपॉड्स लगाए हुए हैं हर क्षण, मानो मौन से डरते हों. हर सेकंड कोई रील, कोई पॉडकास्ट, कोई बैकग्राउंड म्यूजिक चाहिए क्योंकि शांति अब अप्राकृतिक लगती है. पर क्या कभी गौर किया है कि प्रकृति में कोई भी वस्तु शोर नहीं मचाती? सूर्य चुपचाप उगता है, हवा धीमे बहती है, पर्वत बिना संवाद के भी संवाद करते हैं. और सबसे शांत जीव - हिमालय के कस्तूरी मृग को देखिए. वह जीवन भर उस सुगंध को खोजता है जो उसी के भीतर होती है, पर वह कभी चिल्लाता नहीं, हल्ला नहीं करता. वह मौन में खोजता है, मौन में जीता है.

यही मौन असल में सबसे गहन आध्यात्मिक भाषा है. यह ध्वनि का अभाव नहीं, वह अंतर्मुखी ऊर्जा है, जहां हमारी सारी उत्तर-प्रदत्त ‘पहचानें’ लुप्त हो जाती हैं. और तब हमें अनुभव होता है कि हम ‘सीईओ’, ‘क्रिएटर’ या ‘इन्फ्लुएंसर’ से पहले एक जीवित चेतना हैं, जो मौन रहकर भी पूर्ण हो सकती है.

हमारी चेतना की यही असंवेदनशीलता हमें संतुलन से भी दूर कर रही है. आज जब एक वायरल वीडियो में ‘5 AM routine’ और ‘10 productivity hacks’ की बातें होती हैं, तो हम भूल जाते हैं कि हर व्यक्ति का प्राकृतिक संतुलन अलग होता है. प्रकृति हमें यह कभी नहीं कहती कि सूरज एक ही समय पर उगे. गंगा भी हिमालय से निकलती है पर उसके उद्गम और विभिन्न शाखाओं में विभाजन का कोई अलार्म नहीं बजता. वह अपने मार्ग में कोई जल्दबाजी नहीं करती, कोई स्पर्धा नहीं रखती - वह अपनी गति से प्रवाहित होती है - और उसी में उसका सौंदर्य है. खेत कभी यह नहीं पूछते कि किसने सबसे पहले उपजा. फिर हम क्यों कर रहे हैं यह घड़ी-संचालित तुलना? क्यों हम हर दिन कुछ नया कर गुजरने और कुछ अलग सभी को कर दिखाने की होड़ में लगे हैं? क्या उत्पादकता अब प्रकृति से बड़ी हो गई है?

ऋग्वेद में कहा गया है: ‘ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत.’ अर्थात ऋत (संतुलन का नियम) और सत्य (स्वभाव की प्रामाणिकता) तप से उत्पन्न होते हैं. प्रकृति का यह ऋत वह संतुलन, जिसमें नदियां बहती हैं, ऋतुएं बदलती हैं, और जीवन चुपचाप चलता है वह हमें यह याद दिलाता है कि जब भी हमने इस संतुलन को तोड़ा, विकृति जन्मी. और यही हम कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन, मानसून का असंतुलन, वनों की कटाई – ये सब केवल प्राकृतिक परिणाम नहीं, ये हमारे भीतर के असंतुलन का परावर्तन हैं.

इसलिए पर्यावरण दिवस मनाना केवल एक कैलेंडर की रस्म नहीं हो सकती. यह एक आत्मिक स्मरण दिवस बनना चाहिए. एक दिन जहां हम शोर से बाहर निकलें, और यह पूछें ‘क्या हम आज भी उतने ही सहज हैं, जितना एक झील की सतह?’ ‘क्या हम अपनी गति पहचानते हैं, जैसे एक वृक्ष?’ ‘क्या हम उस मौन से भयभीत हैं जिसका हमारी आत्मा भाषा के रूप में प्रयोग करती थी?’

तो इस पर्यावरण दिवस, न कोई पोस्टर बनाइए, न भाषण दीजिए. बस किसी एक पुराने वृक्ष के नीचे बैठिए. प्रकृति में समय व्यतीत कीजिए. एक नया पौधा रोपिए. एक पुराना गीत मन में गुनगुनाइए, मोबाइल को बंद कीजिए, और केवल श्वास लीजिए. वहां आपको कोई उत्तर नहीं मिलेगा पर आपको आप स्वयं मिलेंगे. और वही प्रकृति का सबसे बड़ा उपहार है.

Web Title: World Environment Day: Listen to the language of silence in the lap of nature

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