ब्लॉग: छोटे सियासी दलों के लिए अस्तित्व का संकट

By राजेश बादल | Published: July 18, 2023 07:57 AM2023-07-18T07:57:02+5:302023-07-18T07:59:41+5:30

प्रादेशिक पार्टियों का अपना आंतरिक संगठन ढांचा भी ऐसा है कि बड़े दल इसमें सेंध लगाने में कामयाब होते हैं. इन पार्टियों में वर्षों तक संगठन चुनाव नहीं होते, एक परिवार या एक गुट का वर्चस्व बना रहता है और दूसरी तीसरी कतार के नेता अवसर मिलने के इंतजार में बूढ़े हो जाते हैं.

Why Existential crisis for small political parties | ब्लॉग: छोटे सियासी दलों के लिए अस्तित्व का संकट

ब्लॉग: छोटे सियासी दलों के लिए अस्तित्व का संकट

क्षेत्रीय और प्रादेशिक राजनीतिक दलों के लिए वर्तमान कालखंड बहुत शुभ संकेत नहीं दे रहा है. अपने स्वतंत्र अस्तित्व को विचारधारा के साथ बचाए रखना उनके लिए आसान नहीं रहा है. वैचारिक आधार पर तो वे पहले ही सूखे का सामना कर रहे थे. अब बढ़ती महत्वाकांक्षा और सियासी चालों ने जिस तरह इन दलों में टूट-फूट को बढ़ावा दिया है, वह सोचने को बाध्य करता है कि भारतीय संविधान में संरक्षण प्राप्त बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली कितने दिन चलेगी और क्या इसमें केवल बड़ी पार्टियों के लिए संभावना शेष रहती है ?

आपको याद होगा कि आजादी के बाद भारत में जो राजनीतिक दल पनपे, वे किसी न किसी ठोस वैचारिक धुरी पर टिके हुए थे. कांग्रेस का अपने आप में एक संपूर्ण भारतीय आधार था. उसके पास स्वतंत्रता आंदोलन की मजबूत विरासत थी और महात्मा गांधी, नेहरू, नेताजी सुभाष चंद्र बोस (भले ही वे कम समय रहे), सरदार पटेल और मौलाना आजाद जैसे महत्वपूर्ण राजनेता उसके पास थे. 

दूसरी ओर समाजवादी विचारधारा को लेकर चलने वाले राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, मधु दंडवते, मधु लिमये, मामा बालेश्वर दयाल सियासी परिदृश्य पर छाए हुए थे. दक्षिणपंथी विचार की नुमाइंदगी करने वाला जनसंघ था. उसके पास श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, नानाजी देशमुख और लालकृष्ण आडवाणी जैसे चमकदार चेहरे थे. 

वामपंथी धारा से ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी, इंद्रजीत गुप्त और भूपेश गुप्त जैसे कद्दावर लोग थे. इन राजनेताओं ने कभी अपने सरोकारों को नहीं छोड़ा और हमेशा सकारात्मक राजनीति के जरिये देशसेवा करते रहे.

अस्सी के दशक तक हम लोगों ने ऐसी सियासत देखी. अपवाद स्वरूप कुछ झटके लोकतंत्र को अवश्य लगे, पर उनसे कोई खास नुकसान नहीं हुआ. आपातकाल का दौर ऐसा ही था. लेकिन नब्बे का दशक राजनीतिक अस्थिरता लाया और अनेक क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक दलों ने आकार लिया. तब से आज तक इन दलों की संख्या बढ़ती ही रही है. 

यह अलग बात है कि इन प्रादेशिक पार्टियों की महत्वाकांक्षाएं भी विकराल रूप लेती रहीं. उनकी पूर्ति के लिए वे विचारों की धुरी से भटक गईं. उनके लिए अपने वोट बैंक को बनाए रखना आवश्यक था. इसके लिए उन्होंने जाति, उप जाति, धर्म, धन और बाहुबल का सहारा लिया. यह भारतीय लोकतंत्र का अंधकार युग कहा जा सकता है. यह ठीक है कि किसी भी जम्हूरियत में आप सियासी पार्टियों के विकास को नहीं रोक सकते, मगर वे अपने सोच के आधार को छोड़ दें तो यह प्रजातांत्रिक सेहत के लिए फायदेमंद नहीं होगा.

इन हालात के मद्देनजर वर्तमान दशक क्षेत्रीय तथा प्रादेशिक पार्टियों के लिए अशुभ माना जा सकता है. देश की राजनीति दो वैचारिक खेमों में  बंट गई है और छोटे दलों के लिए किसी एक खेमे से अपने को जोड़ना बहुत आवश्यक हो गया है. इसमें भी कोई बुराई नजर नहीं आती. मुश्किल तो तब होती है, जब बड़ी पार्टियां छोटे दलों का साथ तो लेती हैं, लेकिन बाद में वे उनके हितों पर ही प्रहार करने लग जाती हैं. वे कोशिश करती हैं कि मंझोले दल भी बिखर जाएं. इसके लिए वे कई बार अपने सहयोगी  दलों की दूसरी पंक्ति के नेताओं का शिकार करने लगती हैं, जो महत्वाकांक्षी हों, पार्टी में पर्याप्त सम्मान तथा स्थान नहीं मिलने से दु:खी हों या फिर सियासत करने के लिए पैसे की खातिर बिक जाएं. 

हालांकि प्रादेशिक पार्टियों का अपना आंतरिक संगठन ढांचा भी इसके लिए काफी हद तक जिम्मेदार होता है. उनमें वर्षों तक संगठन चुनाव नहीं होते, एक परिवार या एक गुट का वर्चस्व बना रहता है और दूसरी तीसरी कतार के नेता अवसर मिलने के इंतजार में बूढ़े हो जाते हैं. एक प्रतिभाशाली कार्यकर्ता तथा राजनेता कब तक अपनी तड़प के साथ इंतजार करेगा ? जब उसका धीरज साथ छोड़ देगा तो वह पार्टी छोड़ने के लिए मजबूर हो ही जाएगा.

बीते दिनों एक नेता ने कहा कि भविष्य में भारत की सारी क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां समाप्त हो जाएंगी. वैसे तो इस तरह की सोच ही संवैधानिक लोकतंत्र के नजरिये से जायज नहीं है. आप किसी को भी राजनीति में हिस्सा लेने से रोक नहीं सकते. स्पष्ट संकेत है कि आने वाले दिन इन दलों के लिए चुनौती भरे हैं. 

चाहे वह तेलुगु देशम हो या बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी हो अथवा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शिवसेना हो या तृणमूल कांग्रेस, लोक जनशक्ति पार्टी हो अथवा जनता दल यूनाइटेड. इन सभी दलों ने आंतरिक आघात सहे हैं. पार्टियां अपने अस्तित्व के लिए जूझती हैं और बड़े राष्ट्रीय दल इसका फायदा उठा ले जाते हैं. छोटी, मंझोली और क्षेत्रीय पार्टियों को यह बात समझनी होगी. यह समय की चेतावनी है. यदि उन्होंने अपना घर दुरुस्त नहीं किया तो लोकतंत्र के आकाश में जुगनू की तरह चमकने का भी उनको अवसर नहीं मिलेगा.

Web Title: Why Existential crisis for small political parties

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