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कैमरे के सामने जो भी आ रहा है, वह छद्म है

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: May 11, 2025 20:38 IST

जज को इंसाफ का देवता कहने के बजाय इंसानियत का देवता कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी.

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ठळक मुद्देआजकल कैमरे के सामने जो भी सच्चाई आ रही है, वह छद्म है.खामोश घटना थी, जो किसी कैमरे के सामने नहीं आई.

डॉ. महेश परिमल

तेलंगाना के निजामाबाद की एक खबर है, जिसमें एक न्यायाधीश स्वयं अदालत से बाहर आकर ऑटो में बैठे दंपति के पास जाकर उनका बयान लेते हैं और फैसला सुनाते हैं. वे दंपति चलने लायक नहीं हैं. बमुश्किल वे अदालत की ड्योढ़ी तक पहुंच पाए हैं.  ऐसे में जज का उनके सामने आना, बयान लेना और फैसला सुनाना भले ही अटपटा लगता हो, पर इंसानियत का दायरे बढ़ता हुआ अवश्य दिखाई दिया. जज का विकलांग दंपति तक आने के लिए उन्हें किसी कानून ने बाध्य नहीं किया, पर इंसानियत ने भी नहीं रोका. इंसानियत अपना प्रचार नहीं चाहती. जज का अदालत से बाहर आना एक खामोश घटना थी, जो किसी कैमरे के सामने नहीं आई. इसलिए जज को इंसाफ का देवता कहने के बजाय इंसानियत का देवता कहा जाए, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. आजकल कैमरे के सामने जो भी सच्चाई आ रही है, वह छद्म है.

हम सब इसी छद्म सच्चाई के बीच जी रहे हैं. जहां केवल दिखावा ही दिखावा है. जज ने जो कुछ किया उसके लिए उन्हें किसी कानून ने मजबूर नहीं किया, ऐसा करने के लिए कोई कानून रोक भी नहीं सकता. आजकल सरकारी दफ्तरों में लोग अपनी वृद्धावस्था राशि लेने के लिए किस तरह से घिसटते हुए पहुंचते हैं, इसकी खबर यदा-कदा मीडिया में पढ़ने-सुनने को मिल जाती हैं.

पर किसी कर्मचारी ने बढ़कर ऐसा किया हो, ऐसा देखने-सुनने को नहीं मिला. अक्सर हम देखते-पढ़ते हैं कि कोई महिला या पुरुष अपनी निराश्रित राशि लेने के लिए कितनी दूर-दूर से सरकारी कार्यालयों तक पहुंचते हैं. यहां पहुंचकर भी उन्हें किसी भी तरह की संवेदना नहीं मिलती. इस तरह के लोग यदि सरकारी दफ्तरों तक पहुंच जाएं, तो बरामदे तक, उनके वाहन तक या फिर उनके घर तक भी राशि पहुंचाई जा सकती है. पर इसकी कल्पना करना बेकार है. दरअसल इंसानियत ऐसी अदृश्य भावना है, जो हमारे चारों ओर होती है, पर दिखाई नहीं देती.

हमें इसे महसूस करना होता है, अपनी आंखों से, अपने दिल से, अपने व्यवहार से. जहां इंसानियत का बोलबाला होता है, वहां कोई भी व्यक्ति इंसानियत से बाहर जाकर काम नहीं करता. ऐसे बहुत से लोग मिल जाएंगे, जो इधर-उधर कचरा फैलाना अपना कर्तव्य समझते हैं, पर एयरपोर्ट के दायरे में पहुंचकर एक पन्नी फेंकने के लिए भी डस्टबिन तलाश करते दिखाई देते हैं. इसका मतलब साफ है कि हमारे भी एक इंसान तो है, पर हम ही उसे कभी बाहर आने का मौका नहीं देते. वह बाहर आ ही नहीं पाता.

इधर हम इंसानियत से हटकर काम करने के आदी होते चले जाते हैं. जब इंसानियत बोलती है, तो आंखें भिगो देती है. सच्ची इंसानियत का यही संदेश है. किसी ने कहा है–जो डूबना है, तो इतने सुकून से डूबो कि आसपास की लहरों को भी पता न चले.... क्या आप इस तरह के डूबने पर विश्वास करते हैं?

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