काबुल वाला क्या लाया, क्या ले गया?, भारत क्या तालिबान के करीब जा रहा है?

By विकास मिश्रा | Updated: October 14, 2025 05:14 IST2025-10-14T05:14:55+5:302025-10-14T05:14:55+5:30

तालिबान की कहानी कुछ ऐसी है कि 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ ने कब्जा कर लिया. वो शीत युद्ध का दौर था.

What did Kabulite bring take away India getting closer toTaliban Afghan Foreign Minister Amir Khan Muttaqi blog Vikas Mishra | काबुल वाला क्या लाया, क्या ले गया?, भारत क्या तालिबान के करीब जा रहा है?

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Highlightsकाबुल वाला हमारे लिए क्या लाया और अपने लिए हमारे यहां से क्या ले गया? अमेरिका ने पाकिस्तान के माध्यम से विद्रोहियों का समूह तैयार किया जिसे अफगान मुजाहिदीन कहा गया. मुजाहिदीनों के समूह में से ही एक समूह उभरा जो तालिबान कहलाया.

अफगानिस्तानी विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की भारत यात्रा को लेकर दुनिया भर की नजर लगी हुई थी. सवाल एक ही कि भारत क्या तालिबान के करीब जा रहा है? यदि हां तो ऐसी क्या मजबूरी है? क्या भारत को अफगानिस्तान में मानवाधिकार की बदहाली की चिंता में दुबला होना चाहिए या फिर अपनी चिंता करनी चाहिए? ऐसे ढेर सारे सवालों के बीच यह समझने की कोशिश करते हैं कि ये काबुल वाला हमारे लिए क्या लाया और अपने लिए हमारे यहां से क्या ले गया? तालिबान की कहानी कुछ ऐसी है कि 1979 में अफगानिस्तान पर सोवियत संघ ने कब्जा कर लिया. वो शीत युद्ध का दौर था.

अमेरिका ने पाकिस्तान के माध्यम से विद्रोहियों का समूह तैयार किया जिसे अफगान मुजाहिदीन कहा गया. अमेरिका ने इसे खूब हथियार दिए, खूब धन दौलत दी ताकि सोवियत संघ को हराया जा सके. अंतत: सोवियत संघ को अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा. फिर  हालात कुछ ऐसे बने कि मुजाहिदीनों के समूह में से ही एक समूह उभरा जो तालिबान कहलाया.

उसने सत्ता हथियाई और अमेरिका पर हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को पनाह दी. फिर अमेरिका ने हमला किया. तालिबान को खदेड़ दिया लेकिन विडंबना देखिए कि ओसामा बिन लादेन को मारने का अपना लक्ष्य पूरा करने के बाद आनन-फानन में अफगानिस्तान से भाग गया और सत्ता सौंप गया उसी तालिबान को जिसकी बर्बरता के किस्से आम हैं.

तालिबान के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद केवल रूस ने ही अब तक उसे मान्यता दी है. भारत सहित दुनिया के तमाम देशों ने मान्यता देने से परहेज ही किया है. यहां तक कि पाकिस्तान और चीन ने भी मान्यता नहीं दी है. तो सवाल है कि तालिबान से भारत रिश्ते क्यों आगे बढ़ा रहा है? ये वही तालिबान है जिसने भारत से अपहृत किए गए विमान को काबुल में उतरने दिया था.

मजबूरी में भारत को मसूद अजहर, इब्राहिम अतहर और मुस्तफा अहमद जैसे दुर्दांत आतंकवादियों को काबुल पहुंचाना पड़ा था. क्या भारत उन दिनों को भूल गया? नहीं, भारत भूला तो नहीं होगा लेकिन वैश्विक परिवेश में कई बार ऐसी परिस्थितियां पैदा हो जाती हैं कि दुश्मन के दुश्मन को दोस्त मान कर गले लगाना पड़ता है. भारत की स्थिति यही है.

तालिबान और पाकिस्तान के बीच ठनी हुई है. अब आम अफगानी भी पाकिस्तान से नफरत करने लगा है क्योंकि वह ठगा हुआ महसूस करता है. अफगानिस्तान की बदहाली के लिए पाक को ही जिम्मेदार माना जाता है. इधर चीन ज्यादा चालाक निकला. तालिबान के सत्ता में आते ही उसने रिश्ते गांठने शुरू कर दिए. ऐसी स्थिति में भारत के सामने रिश्ते की पेंग बढ़ाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचा.

तालिबान ने भी भारत के प्रति रवैया अच्छा दिखाया. कश्मीर में हस्तक्षेप से वह दूर ही रहा. अभी पहलगाम की घटना के बाद ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भी तालिबान ने भारत के पक्ष में बयान दिया. इसीलिए भारत ने मुत्ताकी की यात्रा को एक अवसर की तरह लिया. मुत्ताकी ने अफगानिस्तान शासन की ओर से यह बड़ा भरोसा दिया है कि भारत के खिलाफ अफगानिस्तान की धरती का उपयोग नहीं होने देंगे.

जबकि पाकिस्तान की ये चाहत रही है. यह संभव है कि तालिबान से निराश होने के बाद पाकिस्तान इस्लामिक स्टेट को भीतर ही भीतर मदद पहुंचा रहा हो. तालिबान के लिए इस्लामिक स्टेट ऑफ खुरासान गंभीर खतरा बना हुआ है. इस्लामिक स्टेट के आतंकवादी दुनिया के दूसरे इलाकों के साथ ही अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों में छिपे हुए हैं.

तालिबान के साथ कई बार मुठभेड़ भी होती रहती है. इस्लामिक स्टेट के झंडे कुछ साल पहले तक कश्मीर घाटी में कई बार दिखाई दिए थे. मगर अभी उसका कोई वजूद भारत में उभर नहीं पाया है क्योंकि हमारी फौज बेहद सतर्क है लेकिन उसे मौका मिलेगा तो वह भारत में पैर जरूर पसारने की कोशिश करेगा. उसके खुरासान प्रांत की खुराफात में भारत का भी नाम है.

इस लिहाज से देखें तो काबुल वाले ने भारत को सुरक्षा की दृष्टि से सहयोग का भरोसा दिया है. दूसरी तरफ काबुल वाला भारत से यह भरोसा लेकर लौटा है कि अफगानिस्तान के बगराम एयरबेस को अमेरिका के चंगुल में नहीं जाने दिया जाएगा. ट्रम्प कह रहे हैं कि अफगानिस्तान को बगराम एयरबेस अमेरिका को सौंप देना चाहिए क्योंकि उसका निर्माण अमेरिका ने किया था.

कितना अजीब तर्क है न! लेकिन ट्रम्प हैं, वो कुछ भी मांग रख सकते हैं. उनकी इस मांग के खिलाफ भारत, चीन और रूस एक हो गए हैं क्योंकि अमेरिका के वहां बैठने का मतलब है तीनों देशों के लिए खतरा. और भी कई मुद्दों पर मुत्ताकी के साथ भारत की बातचीत हुई ही होगी! वक्त इसका खुलासा करेगा.

मगर मुत्ताकी की यात्रा के दौरान उनकी हरकतों के कारण एक गंभीर सवाल खड़ा हो गया कि भारत आकर उन्होंने महिलाओं के साथ वही व्यवहार किया जो अफगानिस्तान में उनका संगठन तालिबान करता है. उनकी जो पहली प्रेस कांफ्रेंस हुई, उसमें भारतीय महिला पत्रकारों को नहीं बुलाया गया! जब इस बात को लेकर हंगामा मचा तो दूसरी प्रेस कांफ्रेंस हुई और उसमें महिला पत्रकारों को भी आमंत्रित किया गया.

यानी मुत्ताकी ने एक तरह से संदेश दिया कि कुछ मुद्दों पर तालिबान झुक सकता है. भारत और तालिबान के रिश्तों की वकालत करने  वाले यही तो कहते रहे हैं कि जब तक आप बात नहीं करेंगे, जब तक तालिबान को भरोसा नहीं होगा कि आपके साथ रहने से उसे क्या फायदा होने वाला है, तब तक वह आपकी बात क्यों सुनेगा?

अब सवाल यह भी पूछा जा रहा है कि भारत ने काबुल में दूतावास खोलने पर सहमति दे दी है, तो क्या नई दिल्ली में अफगान दूतावास पर अब तालिबान का झंडा फहराएगा? राजनीति और कूटनीति में सब कुछ संभव है. आपको पता ही है कि मुत्ताकी तो संयुक्त राष्ट्र की नजर में आतंकवादी है, फिर भी उसे भारत आने की अनुमति मिलने के मायने क्या हैं? कई सवालों के जवाब वक्त के गर्भ में होते हैं. फिलहाल इंतजार कीजिए...और देखते रहिए आगे-आगे होता है क्या...?

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