अब फैसला बंगाल के मैदान में होगा !, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

By अभय कुमार दुबे | Published: November 25, 2020 12:34 PM2020-11-25T12:34:30+5:302020-11-25T12:37:20+5:30

बिहार चुनाव के बाद भाजपा ने वेस्ट बंगाल पर फोकस कर दिया है। बिहार में हारते-हारते बच गए। 2021 में कई राज्य में चुनाव हैं। बंगाल को छोड़ दिया जाए तो तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में भाजपा के पास कुछ नहीं है।

West Bengal assembly elections bjp tmc pm narendra modi rss decision ground Abhay Kumar Dubey's blog | अब फैसला बंगाल के मैदान में होगा !, अभय कुमार दुबे का ब्लॉग

भाजपा को अभी तक उसे खोज लेना चाहिए था. देर उसे महंगी पड़ सकती है. (file photo)

Highlightsतमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में भाजपा का दांव कमजोर है.केरल में संघ परिवार बहुत दिनों से जमकर काम कर रहा है.भाजपा पश्चिम बंगाल और असम में शक्तिशाली है.

दिल्ली के चुनाव में हार और बिहार में हारते-हारते बच जाने के बाद सवाल यह है कि भाजपा राज्यों में केंद्र की तरह अपना प्रभुत्व क्यों स्थापित नहीं कर पा रही है?

वही मोदीजी, वही उनके भाषण, वही संसाधन, वही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और वही रणनीतिक कुशलता - फिर उसके परिणाम अनुकूल क्यों नहीं निकलते? इसका एक कारण तो स्पष्ट है. राज्यों में भाजपा विरोधी विपक्ष इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि वह केवल राज्यस्तरीय मुद्दों पर ही मुहिम को केंद्रित रखे, राष्ट्रीय सुरक्षा-पाकिस्तान-कश्मीर-तीन तलाक जैसे मुद्दों से खुद को दूर रखे, भाजपा के स्थानीय नेतृत्व की कमजोरियों को उभारे और नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित हो चुके नेतृत्व की सीधी आलोचना करने से परहेज करे.

देखना यह है कि 2021 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा विरोधी राजनीतिक शक्तियां यही रणनीति अपनाती हैं या उनके मंसूबे कुछ और निकलते हैं. अगले साल के चुनावों को आसानी से दो भागों में बांटा जा सकता है- वे राज्य जहां भाजपा सत्ता की मुख्य दावेदार नहीं है, और वहां जहां वह या तो सत्ता में है या फिर सत्ता में आने के लिए कमर कस चुकी है.

तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में भाजपा का दांव कमजोर

तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में भाजपा का दांव कमजोर है. इन राज्यों के राजनीतिक समीकरणों और सामाजिक विन्यास में फिट होने लायक राजनीतिक मॉडल अभी भाजपा तैयार नहीं कर पाई है. केरल को ही ले लीजिए. केरल में संघ परिवार बहुत दिनों से जमकर काम कर रहा है.

मार्क्‍सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ स्वयंसेवकों की मुठभेड़ें अक्सर सुर्खियां बनती रहती हैं. इसमें कोई शक नहीं कि बीस साल पहले से तुलना की जाए तो केरल में समाज और राजनीति का सांप्रदायिकीकरण हुआ है. लेकिन इसके बावजूद भाजपा वहां इस स्थिति में नहीं पहुंच पाई है कि राजनीति में कोई निर्णायक हस्तक्षेप कर सके.

केरल का राजनीतिक विन्यास जटिल है. वहां कांग्रेस के नेतृत्व वाले और भाजपा के नेतृत्व वाले मोर्चो में हर बार टक्कर होती है, हर बार दो फीसदी के आसपास वोटों से फैसला होता है और सत्ता बदल जाती है. इस समय माकपा वाले मोर्चे की हुकूमत है, और परंपरा के अनुसार अब कांग्रेस के मोर्चे की बारी है. चूंकि मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन की स्वास्थ्य मंत्री के शैलजा ने कोविड महामारी को फैलने से रोकने के मामले में ऐतिहासिक सफलता प्राप्त की है, इसलिए हो सकता है कि वे एक मोर्चे के लगातार दो बार न जीतने की परंपरा को भंग कर दें.

जो भी हो, इस टक्कर में भाजपा की फिलहाल कोई जगह नहीं है. इसी तरह से तमिलनाडु है. वहां भी भाजपा ने अपना काम बढ़ाया है. लेकिन इस प्रदेश में अभी उसे काफी समय किसी न किसी द्रविड़ कझगम के साथ जूनियर पार्टनर बन कर गुजारना होगा. इस चुनाव में भी वह ऐसा ही करने वाली है. दिल्ली जैसी विधानसभाई हैसियत रखने वाली पुडुचेरी में कांग्रेस निश्चित रूप से उपराज्यपाल किरण बेदी की ‘काम-अटकाऊ भूमिका’ का सवाल उठाएगी, और हो सकता है कि उसे उसका लाभ भी मिले.

भाजपा का दांव पश्चिम बंगाल और असम में शक्तिशाली है

भाजपा का दांव पश्चिम बंगाल और असम में शक्तिशाली है. बंगाल में वह सत्ता में आने के लिए और असम में सत्ता बचाने के लिए संघर्ष करेगी. बावजूद इसके कि लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दोनों जगह अच्छा प्रदर्शन किया था, विधानसभा में उसकी राह आसान नहीं होगी. दिलचस्प बात यह है कि जिस सीएए (सिटिजनशिप अमेंडमेंट एक्ट) और एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजनशिप) का सवाल उठा कर वह ममता बनर्जी से बंगाल की धरती पर भिड़ेगी, उसी सीएए की वजह से उसे असम में कुछ रक्षात्मक रुख अख्तियार करना पड़ेगा.

बंगाल में इस मुद्दे पर भाजपा को ममता पर मुस्लिम तुष्टिकरण का इल्जाम लगाने की सुविधा होगी. लेकिन असम में स्वयं भाजपा के विधायक उस समय बहुत परेशान थे जिस समय सारे देश में इन प्रश्नों पर हंगामा हो रहा था. भाजपा के सहयोगी दल असम गण परिषद को भी इस पर आपत्ति है, क्योंकि उसकी स्थापना ही बहिरागतों को निकालने के सवाल पर हुई थी. अब भाजपा सीएए के जरिये बांग्लादेश के हिंदू बहिरागतों को लेने के लिए तैयार बैठी है जिससे उन असमीङ्कहिंदुओं के भी कान खड़े हो गए हैं जिन्होंने कुछ दिन पहले ही भाजपा को अपनी पार्टी माना था.

ममता बनर्जी एक के बाद एक दो चुनाव जीत चुकी

ममता बनर्जी एक के बाद एक दो चुनाव जीत चुकी हैं. बंगाल की राजनीतिक परिस्थिति से वाकिफ लोग मानते हैं कि वहां भी बिहार की ही तरह परिवर्तन की इच्छा हवा में है. इसका लाभ भाजपा को मिल सकता है. बिहार में ओवैसी को सीमांचल के वोटरों ने इसलिए पसंद किया है कि वे सीएए और एनआरसी का सवाल उठा रहे थे, जबकि तेजस्वी यादव इन प्रश्नों से दूर थे. बंगाल में ममता इस प्रश्न पर खुलकर बोलती रही हैं और चुनाव के दौरान भी बोलेंगी.

भाजपा चाहेगी कि इस पर हिंदू ध्रुवीकरण हो. बीसवीं सदी की शुरुआत तक बंगाल हिंदू राष्ट्रवादी विचारों का गढ़ रहा है. इसलिए वहां के समाज में भाजपा के लिए एक शुरुआती विचारधारात्मक पूंजी मौजूद है. लेकिन उसके पास उस पूंजी को भुनाने के लिए ममता बनर्जी जैसा जमा हुआ प्रभावी नेता नहीं है. बंगालियों को हर हालत में एक बंगाली नेता चाहिए. भाजपा को अभी तक उसे खोज लेना चाहिए था. देर उसे महंगी पड़ सकती है.

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