राजनीति में भाषा का संयम बेहद जरूरी, सभ्य तरीके से भी की जा सकती है आलोचना

By विश्वनाथ सचदेव | Published: September 3, 2021 01:33 PM2021-09-03T13:33:19+5:302021-09-03T13:56:44+5:30

राजनीति में संयम और मर्यादा के पालन की आवश्यकता कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी. जो राजनेता जितने बड़े पद पर है, उस पर संयम और मर्यादा बरतने की जिमेदारी भी उतनी ही ज्यादा है.

we need to do a constructive criticism in a mannered way not need to use abusive language | राजनीति में भाषा का संयम बेहद जरूरी, सभ्य तरीके से भी की जा सकती है आलोचना

फोटो सोर्स - सोशल मीडिया

Highlightsराजनेताओं को संयम और मर्यादा का पालन करने की आवश्यकता है सही शब्दों का इस्तेमाल करके भी आप किसी की आलोचना कर सकते हैं अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार अमर्यादित नहीं है

राजनीति में संयम और मर्यादा के पालन की आवश्यकता कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी. जो राजनेता जितने बड़े पद पर है, उस पर संयम और मर्यादा बरतने की जिमेदारी भी उतनी ही ज्यादा है. किसी भी तर्क से अपने असंयमित व्यवहार का बचाव करने की कोशिश का मतलब मर्यादाहीनता को बढ़ावा देना है. दुर्भाग्य से हमारे नेता यह समझना ही नहीं चाहते कि सभ्य तरीके से भी विरोधी की आलोचना की जा सकती है .

जबान का फिसल जाना या फिर कभी भावावेश में कुछ अप्रिय और अनावश्यक कहा जाना सामान्य बात है. किसी से भी यह गलती हो सकती है और हार्दिक खेद व्यक्त करके व्यक्ति आसानी से इस गलती को सुधार सकता है. यह भी कह सकता है कि भविष्य में अधिक सावधानी बरतेगा. पर अक्सर ऐसा होता नहीं है. अक्सर आदमी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं होता. अक्सर जबान का फिसलना या भावावेश में मुंह से कुछ निकल जाना सोच-समझकर की गई ‘गलती’ होती है.

हाल ही में हरियाणा के एक अफसर द्वारा प्रदर्शनकारियों का सिर फोड़ देने का आदेश दिया जाना इन दिनों चर्चा का विषय बना हुआ है. करनाल में मुख्यमंत्री की एक बैठक की सुरक्षा-व्यवस्था करते हुए एक आईएएस अधिकारी ने पुलिस वालों को इस तरह का आदेश दिया था. यह आदेश सोशल मीडिया पर वायरल हो गया और इसके साथ ही बात बढ़ गई. अपने अफसर के पक्ष में बोलते हुए राज्य के मुख्यमंत्री ने शब्दों के चयन को अनुचित बताया है, पर इसके साथ ही उन्होंने सख्ती को भी जरूरी बताया है. दूसरी ओर राज्य के उपमुख्यमंत्री दोषी अफसर के खिलाफ कार्रवाई किए जाने की बात कह रहे हैं. उधर किसान एसडीएम की बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं.

मुख्यमंत्री ने यह नहीं बताया है कि सख्ती से उनका क्या अभिप्राय था, लेकिन निश्चित रूप से किसी का सिर फोड़ना सख्ती नहीं, अपराध ही कहा जाएगा. और अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए.

पर सवाल उठता है, इस तरह का अनुचित बोलने का अपराध क्या अफसर ही करते हैं? क्या अक्सर हम अपने राजनेताओं को इस तरह की अनुचित भाषा का इस्तेमाल करते हुए नहीं देखते? हाल ही में महाराष्ट्र के एक पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में केंद्रीय मंत्री ने राज्य के मुख्यमंत्री को थप्पड़ मारने की बात कही. शिकायत पुलिस में हुई और मामला अदालत में है. यह तो न्यायालय ही तय करेगा कि उस राजनेता ने अपराध किया या नहीं, पर कोई भी विवेकशील सामान्य व्यक्ति यह तो कह ही सकता है कि राजनेताओं के मुंह से इस तरह की अमर्यादित भाषा शोभा नहीं देती.

हमारे राजनेता अक्सर इस तरह का अशोभनीय व्यवहार करते पाए जाते हैं- राजनीतिक विरोधियों के बारे में कुछ भी कहना उन्हें गलती नहीं लगता. हमारे नेता यह समझना ही नहीं चाहते कि सभ्य तरीके से भी विरोधी की आलोचना की जा सकती है. दुर्भाग्य से, असंयमित भाषा हमारी राजनीति की एक पहचान बन गई है. मजे की बात यह है कि ये राजनेता बड़ी आसानी से यह भी कह देते हैं कि उनके कहने का मतलब वह नहीं था जो विरोधी निकाल रहे हैं. जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, तब तो हमारे राजनेता आसानी से कह देते थे कि मैंने ऐसा कहा ही नहीं, अब कैमरे के कारण यह कहना मुश्किल है तो यह कह दिया कि, ‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था.’
लेकिन शब्दों के अपने मतलब होते हैं. शब्दार्थ भी होता है, निहितार्थ भी. राजनीतिक मर्यादा का तकाजा है कि इसका ध्यान रखा जाए. ‘कान के नीचे बजाने’ का मतलब जोरदार थप्पड़ ही होता है और कानून हमें किसी को भी पीटने का अधिकार नहीं देता. संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों के लिए इस तरह की भाषा का इस्तेमाल गलती नहीं, अपराध माना जाना चाहिए.

इस अपराध की सजा से बचने के लिए कुछ राजनेता इसे बोलने की शैली कहते हैं. सवाल मर्यादा के उल्लंघन का है. मर्यादा तोड़ने का अधिकार किसी को नहीं मिलना चाहिए. संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार अमर्यादित नहीं है. विवेक का अंकुश है इस अधिकार पर. हमारी परंपरा में कुछ बोलने से पहले तोलने की बात कही जाती है- यानी जो भी बोलो सोच-समझ कर बोलो. दुर्भाग्य से, हमारी राजनीति में अब सोचने-समझने के लिए कोई जगह नहीं बची. सच तो यह है कि बहुत सोच-समझ कर हमारी राजनीति में इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है जो विरोधी का कद छोटा करने वाले हों. यह बात दूसरी है कि ऐसा सोचने-समझने वाला अपना ही कद बौना कर रहा होता है.

एक बात और भी कहा करते हैं हमारे नेता-‘मेरा मुंह मत खुलवाओ’ या फिर ‘समय आने पर मैं कच्चा चिट्ठा खोल दूंगा.’ इसका मतलब है, उनके पास विरोधी के बारे में कुछ ऐसा है जो अपराध की श्रेणी में आता है. किसी के अपराध को छिपाना भी अपराध ही होता है. इस अपराध की भी कोई सजा होनी चाहिए. यह अपराध देश की जनता के उस विश्वास के प्रति गद्दारी है जो जनता अपने नेताओं के लिए सहज रूप से रखती है. इस तरह किसी के गलत काम को छिपाना किसी भी प्रकार के संयम की श्रेणी में नहीं आता. कोई ऐसी व्यवस्था बननी चाहिए कि इस तरह की धमकियां देने वाले से सच उगलवाया जा सके. जिस तरह अनुचित शब्दों का इस्तेमाल गलत है, झूठ बोलना गलत है, उसी तरह सच को छिपाना भी, विशेषकर तब जबकि उसका रिश्ता सार्वजनिक जीवन से हो, गलत है.

बहरहाल, राजनीति में संयम और मर्यादा के पालन की आवश्यकता कल भी थी, आज भी है और कल भी रहेगी. जो राजनेता जितने बड़े पद पर है, उस पर संयम और मर्यादा बरतने की जिम्मेदारी भी उतनी ही ज्यादा है. किसी भी तर्क से अपने असंयमित व्यवहार का बचाव करने की कोशिश का मतलब मर्यादाहीनता को बढ़ावा देना है. जनतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक जीवन में इस तरह के व्यवहार के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए. ल्लल्ल

Web Title: we need to do a constructive criticism in a mannered way not need to use abusive language

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