मतदाता सूचीः शिकायत तो मतदाताओं को भी आपसे है...!, आखिर क्यों लड़ रहे बाहुबली और माफिया?

By Amitabh Shrivastava | Updated: October 18, 2025 05:14 IST2025-10-18T05:14:28+5:302025-10-18T05:14:28+5:30

Voter List: वर्तमान लोकसभा के लिए निर्वाचित सांसदों से लेकर लगभग हर राज्य विधानसभा चुनाव में जेल से चुनाव लड़े जाते रहे हैं और वहीं से विजय भी दर्ज की जाती है. किंतु कोई प्रश्न नहीं पूछता.

Voter List Even voters complaints against you Why Bahubali and Mafia fighting blog Amitabh Srivastava | मतदाता सूचीः शिकायत तो मतदाताओं को भी आपसे है...!, आखिर क्यों लड़ रहे बाहुबली और माफिया?

सांकेतिक फोटो

Highlights वर्षों से चुनाव लड़ रहे दलों का मतदाता सूची की गड़बड़ियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना हर एक के गले नहीं उतर रहा है.बाहुबली और माफिया के इलाकों में मतदान महज औपचारिकता होती है और परिणामों पर कोई सवाल उठता नहीं है.अब तो सरकारें और विभाग भी जेल से चलाए जाने के उदाहरण सामने आ चुके हैं.

Voter List: यदि सम्पन्न परिवार का कोई बच्चा पिज्जा न मिलने से रो रहा हो तो उससे सहानुभूति कितनी रखनी चाहिए और कोई गरीब बच्चा दो दिन से भूखा हो तो उसके साथ कैसा व्यवहार होना चाहिए, निश्चित ही दोनों परिस्थितियों में प्रतिक्रिया बहुत भिन्न हो सकती है.  लंबे समय तक सत्ता भोगने वाले राजनीतिक दलों का मतदाता सूची को लेकर रोना भी कुछ इसी तरह है, जिसको लेकर मतदाताओं की अभी तक कोई हमदर्दी नहीं दिख रही है. वर्षों से चुनाव लड़ रहे दलों का मतदाता सूची की गड़बड़ियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताना हर एक के गले नहीं उतर रहा है.

जिसकी वजह यह नहीं है कि गलतियां नहीं हैं, बल्कि सालों-साल से चुनावों में यही होता आ रहा है. जिस पर कोई आवाज नहीं सुनी गई. न जाने कितने मतदाताओं को मतदान केंद्रों से लौटना पड़ता है और उनकी सुनवाई नहीं होती है. दूसरों के नाम पर मतदान के न जाने कितने किस्से सामने आते हैं, मगर चुनाव बाद कुछ बदलता नहीं है.

बाहुबली और माफिया के इलाकों में मतदान महज औपचारिकता होती है और परिणामों पर कोई सवाल उठता नहीं है. वर्तमान लोकसभा के लिए निर्वाचित सांसदों से लेकर लगभग हर राज्य विधानसभा चुनाव में जेल से चुनाव लड़े जाते रहे हैं और वहीं से विजय भी दर्ज की जाती है. किंतु कोई प्रश्न नहीं पूछता. अब तो सरकारें और विभाग भी जेल से चलाए जाने के उदाहरण सामने आ चुके हैं.

आखिर मतदाता की खामोशी सहज नहीं है. जितने नेताओं के सवाल चुनाव आयोग से हैं, उससे कहीं ज्यादा मतदाताओं के अपने जनप्रतिनिधियों से हैं, जो हर चुनाव के बाद ठगा सा महसूस करते हैं. बीते सप्ताह महाराष्ट्र में विपक्ष ने चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात की. मिलने वालों में शिवसेना(ठाकरे गुट) प्रमुख उद्धव ठाकरे, महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना प्रमुख राज ठाकरे, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(शरद पवार गुट) के जयंत पाटिल, जितेंद्र आव्हाड़, शशिकांत शिंदे, रईस शेख, कांग्रेस के विजय वडेट्टीवार, बालासाहब थोरात सहित कुछ अन्य नेता थे.

मिलने वालों ने दावा किया कि उन्होंने मतदाता सूची में गड़बड़ी सहित तमाम खामियों को अधिकारियों के सामने रखा, लेकिन वे उनके सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए. उन्होंने बताया कि बहुत सारी जगहों पर मतदाताओं के पते, घर नंबर और नाम गलत दर्ज हैं. उन्होंने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग का ‘सर्वर’ महाराष्ट्र में किसी और के नियंत्रण में है.

उन्होंने दावा किया कि भाजपा पदाधिकारी देवांग दवे को चुनाव आयोग की वेबसाइट का ठेका दिया गया. इसके साथ ही शिवसेना(शिंदे गुट)के एक विधायक ने खुद कहा कि 20 हजार बाहरी मतदाता बाहर से लाकर जीत हासिल की है. विदर्भ में राजुरा विधानसभा में भाजपा नेता के मोबाइल पर मतदान का ओटीपी आने की शिकायत दर्ज कराई गई थी,

लेकिन कार्रवाई नहीं हुई. इस पूरी शिकायत को राज्य चुनाव आयोग ने केंद्रीय चुनाव आयोग को भेज दिया. चूंकि समस्त मामले केंद्र के अधीन ही थे, इसलिए उन पर विचार भी उसी के दायरे में संभव था. विपक्ष के नेताओं ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि जब तक मतदाता सूची ठीक  नहीं होती, तब तक स्थानीय निकाय के चुनावों को नहीं कराया जाना चाहिए.

अब सवाल यह है कि जितने विषय चुनाव आयोग के समक्ष उठाए गए, वे पिछले चुनावों में क्या गंभीर नहीं थे? या जीत के बाद सब अच्छा और हार के बाद सब बुरा ही दिखता है. महाराष्ट्र में यदि चुनावों का इतिहास देखा जाए तो आम तौर पर साठ फीसदी के आस-पास मतदान होता है. वर्ष 1995 के विधानसभा चुनाव में 71.7 प्रतिशत मतदान हुआ, जो कई दशकों की तुलना में बहुत ज्यादा था.

उस समय शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) गठबंधन की सरकार बनी थी. उसके बाद कभी मतदाताओं में उतना उत्साह देखा नहीं गया. राज्य की राजधानी मुंबई का हाल तो मतदान के मामले में हमेशा ही खराब रहा है. वहां पचास फीसदी से अधिक मतदान हो ही नहीं पाता है. यानी चालीस से पचास फीसदी मतदाता चुनाव प्रक्रिया में हिस्सेदारी ही दर्ज नहीं कराते हैं.

जब जीत-हार का फैसला होता है तो कुल मतदाताओं में से तीस फीसदी के करीब मतों को पाने वाला विधायक-सांसद बन जाता है. जिससे सिद्ध होता है कि सत्तर प्रतिशत मतदाताओं का उस चुनाव में कोई योगदान ही नहीं था. अब इस स्थिति में चुनाव के दौरान होने वाली कुछ गड़बड़ियों को लेकर हल्ला मचाया जा रहा है,

तो दूसरी ओर यह भी सोचने की आवश्यकता है कि आखिर सत्तर फीसदी मतदाता निर्वाचित उम्मीदवार से दूर क्यों हैं? उनका चुनाव के प्रति विरोध अथवा मतदान में दिलचस्पी क्यों नहीं है? 75 साल से अधिक पुराने लोकतंत्र में सारे प्रयासों के बावजूद चुनावों को लेकर उदासीनता क्यों दिख जाती है? जिस पर राजनीतिक दल उतने गंभीर नहीं होते, जितने अपनी पराजय के बाद दिखते हैं.

लोकतंत्र में सरकार के चयन का सीधा संबंध मतदाता की अपेक्षा से है. पानी, बिजली और सड़क जैसी समस्याओं का किसी भी सरकार से हल नहीं मिलने से चुनावों को लेकर अरुचि पैदा होना स्वाभाविक है. यदि बेरुखी की स्थिति नहीं होती तो चुनाव की गड़बड़ियां राजनीतिक नहीं, बल्कि जन आंदोलन में परिवर्तित हो जातीं.

मतदाता सूची की चिंता केवल महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, बिहार और तमिलनाडु में ही नहीं दिखाई और सुनाई देती. उस पर हर जगह आवाज सुनाई दे रही होती. मगर वैसा नहीं हो रहा है. केवल राजनीतिक दल ही अपनी लड़ाई अपने लिए लड़ रहे हैं. जिस पर मतदाता तटस्थ बना हुआ है. जिसकी वजह जानने की कोशिश नहीं की जा रही है.

दरअसल यदि नेताओं को चुनाव आयोग से शिकायत है तो मतदाताओं को भी नेताओं से शिकायत है. मगर समाधान कब और कौन करेगा, यह तय नहीं है. फिलहाल सच यही है कि सत्ता सुख और दु:ख के अनुभव अलग-अलग हैं, जो छिपाए भी नहीं छिपते हैं.

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