विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: भ्रष्टाचार का आरोप जहां भी लगे, निष्पक्ष जांच हो
By विश्वनाथ सचदेव | Published: September 5, 2019 01:18 PM2019-09-05T13:18:36+5:302019-09-05T13:18:36+5:30
यह मामला एक आईएएस अधिकारी पर भ्रष्टाचार के आरोप का था और इस संदर्भ में दी गई जमानत पर जस्टिस राकेश कुमार को आपत्ति थी. इस आपत्ति वाले अपने बीस पृष्ठ के निर्णय की प्रति जस्टिस कुमार ने देश के सर्वोच्च न्यायाधीश और प्रधानमंत्नी को भी भेजना जरूरी समझा था.
बावजूद इसके कि समय-समय पर अदालतों के कथित भ्रष्टाचार के उदाहरण सामने आते रहे हैं, कुल मिलाकर देश की जनता को भरोसा है. इसीलिए बार-बार अदालतों में ‘दूध का दूध और पानी का पानी’ हो जाने की बातें की जाती हैं. वैसे भी हमारे देश में पंचायतों के पंचों को ‘पंच परमेश्वर’ कहे और माने जाने की एक लंबी परंपरा रही है.
कुल मिलाकर, अदालती निर्णयों की निष्पक्षता न केवल एक अपेक्षा रही है, बल्कि माना जाता रहा है कि हमारे न्यायाधीश, चाहे वे किसी भी स्तर पर हों, ईमानदारी से अपने निर्णय देते हैं. पर इस संदर्भ में ऐसे भी उदाहरण सामने आते रहे हैं, जब ईमानदारी को संदेह के घेरों में दिखाया गया है. ‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल’ की एक रपट के अनुसार तो ‘भ्रष्टाचार भारतीय न्यायालयों में फैला हुआ है’.
लगभग यही बात पिछले दिनों पटना उच्च न्यायालय के एक वरिष्ठ न्यायाधीश ने कही है. जस्टिस राकेश कुमार ने अपने एक आदेश में यह लिखना जरूरी समझा कि ‘राज्य में न्यायपालिका में भ्रष्टाचार व्याप्त है’. उन्होंने इस आरोप के उदाहरण तो नहीं दिए, पर यह जरूर कहा कि इस संदर्भ में सर्वोच्च स्तर पर जांच होनी चाहिए. एक मामले में जमानत दिए जाने के निचली अदालत के आदेश को उन्होंने गलत बताया था.
यह मामला एक आईएएस अधिकारी पर भ्रष्टाचार के आरोप का था और इस संदर्भ में दी गई जमानत पर जस्टिस राकेश कुमार को आपत्ति थी. इस आपत्ति वाले अपने बीस पृष्ठ के निर्णय की प्रति जस्टिस कुमार ने देश के सर्वोच्च न्यायाधीश और प्रधानमंत्नी को भी भेजना जरूरी समझा था.
जस्टिस कुमार की यह टिप्पणी और कार्रवाई पटना उच्च न्यायालय को पसंद नहीं आई और उसने जस्टिस कुमार के निर्णय को निरस्त करते हुए यह आदेश भी जारी कर दिया कि अगले आदेश तक जस्टिस कुमार के सामने कोई मामला निर्णय के लिए न रखा जाए. बाद में उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप के कारण पटना हाईकोर्ट की पांच सदस्यीय पीठ के निर्णय को तो वापस ले लिया गया, पर जनता की अदालत में यह सवाल गूंज रहा है कि यदि एक न्यायाधीश ने अदालतों में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की मांग की है तो उन्हें ही ‘सजा’ दिए जाने का यह प्रकरण दबाने की कोशिश क्यों हो रही है?
क्यों उच्चतम न्यायालय ने जस्टिस कुमार के आरोप की व्यापक और सघन जांच का आदेश नहीं दिया? और सवाल यह भी उठ रहा है कि आरोप लगाने और जांच की मांग करने वाले जज के मंतव्य पर सवालिया निशान क्यों लगाया जा रहा है. हो सकता है, इस बारे में कोई कार्रवाई शीघ्र ही हो, उच्चतम न्यायालय मामले की तह तक जाने की दिशा में कोई कदम उठाए. लेकिन पटना उच्च न्यायालय के इस प्रकरण ने अदालतों में भ्रष्टाचार के मामले को एक बार फिर उभार कर सामने रख दिया है.
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जिनमें हमारी अदालतों, हमारे न्यायधीशों की कर्मठता और ईमानदारी प्रकट हुई है, पर यह भी सही है कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप भी समय-समय पर लगते रहे हैं. जैसे न्याय होना ही नहीं, होते हुए दिखना भी चाहिए, वैसे ही न्यायालयों की निष्पक्षता का होना और दिखना, दोनों जरूरी हैं. इसलिए जस्टिस कुमार द्वारा उठाए गए सवाल, अदालतों में भ्रष्टाचार के उनके बयान और उनके साथ हुए व्यवहार को गंभीरता से लिया जाना जरूरी है. न तो इस पर लीपापोती होनी चाहिए और न ही इसे न्यायपालिका के प्रति किसी दुर्भावना की दृष्टि से उठाया गया सवाल माना जाना चाहिए.
हमारे न्यायाधीश भी उसी समाज से आते हैं, जिस समाज का हम सब हिस्सा हैं. और हम सब यह भी जानते हैं कि दुर्भाग्य से, हमारे समाज में भ्रष्टाचार को कटु सच्चाई और जरूरी बुराई मान लिया गया है. मान लिया गया है कि भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करना असंभव की हद तक नामुमकिन है. लेकिन यही स्थिति इस बात को भी रेखांकित करती है कि न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार को समूल नष्ट करने की कोशिशें भी लगातार चलती रहनी चाहिए. एक आकलन के अनुसार देश में दीवानी मामलों में औसतन बीस साल और फौजदारी मामलों में औसतन तीस साल लग जाते हैं निर्णय आने में. न्याय में यह देरी आपराधिक वृत्ति को पनपाती है.
तीन करोड़ से ज्यादा मामले देश की अदालतों में लंबित हैं; देश में दस लाख लोगों पर कुल तेरह जज हैं हमारे यहां. कैसे हो सकता है समय पर न्याय? जल्दी और अपने पक्ष में फैसला पाने के लिए व्यक्ति गलत राह अपनाता है. वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं के चलते संबंधित अधिकारी भी गलत तरीके को सही मान लेता है. यह स्थिति और यह मनोवृत्ति बदलनी जरूरी है. इसी बदलाव की अपेक्षा से देश के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश वी.एन.खरे ने कहा था, ‘स्थिति खराब है, सच जानने के लिए जजों को जगाना पड़ेगा, आगे बढ़कर सक्रियता दिखानी होगी.’ जस्टिस कुमार यही तो कर रहे थे. उनके आचरण पर उंगली क्यों उठी? यदि उन्होंने कुछ गलत किया है तो वह भी सामने आना चाहिए, और यह भी साफ होना चाहिए कि उनके खिलाफ कार्रवाई के पीछे कुछ गलत तो नहीं था? गलत को कहीं भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए- गलत को सही करने की हरसंभव कोशिश जरूरी है.