विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ‘असंसदीय’ शब्दों पर रोक कितनी प्रभावी ?

By विश्वनाथ सचदेव | Published: August 3, 2024 10:05 AM2024-08-03T10:05:25+5:302024-08-03T10:05:25+5:30

कहते हैं कमान से निकला हुआ तीर और जबान से निकला हुआ शब्द वापस नहीं होता। किसी शब्द को असंसदीय या संसदीय घोषित करने से बात बनती नहीं है। कोई शब्द यदि निश्चित रूप से अनुचित है तो उसे बोलने वाले को यह अहसास होना चाहिए कि उससे गलती हुई है।

Vishwanath Sachdev's blog: How effective is the ban on 'unparliamentary' words? | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ‘असंसदीय’ शब्दों पर रोक कितनी प्रभावी ?

विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: ‘असंसदीय’ शब्दों पर रोक कितनी प्रभावी ?

जब दिल्ली में किसानों का आंदोलन चल रहा था तो सत्तापक्ष ने कुछ लोगों के लिए एक शब्द काम में लिया था– आंदोलनजीवी! उनका यह शब्द विपक्ष के लिए था, और विपक्ष के कई सदस्यों ने इस प्रयोग पर आपत्ति भी प्रकट की थी। पता नहीं इस शब्द को असंसदीय कहा गया था या नहीं,  पर यदि अब यह शब्द बोला गया तो निश्चित है कि इसे संसद की कार्यवाही के विवरण से हटा दिया जाएगा। यह बात इसलिए कही जा सकती है कि संसद में जुमलाजीवी शब्द को आपत्तिजनक माना गया है।

इसी तरह कुछ और शब्द है जिन्हें हमारी संसद में असंसदीय माना गया है। अराजकतावादी, शकुनि, तानाशाह, जयचंद, विनाश पुरुष, खून से खेती जैसे और भी कई शब्द हैं जिन्हें संसद की कार्यवाही से हटा दिया गया है। कुछ शब्दों को बोलने पर रोक लगाने की यह परिपाटी क्यों शुरू की गई थी, पता नहीं ,पर चौबीसों घंटे के समाचार चैनलों वाले इस युग में किसी शब्द को ‘कार्यवाही से निकाल दिए जाने’ का कोई खास मतलब रह नहीं जाता।

अब संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही ‘लाइव’ दिखाई जाती है। जब जो शब्द वहां बोला जाता है, सारी दुनिया तत्काल देख-सुन सकती है। ऐसे में किसी शब्द को रिकॉर्ड में न रखे जाने से क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो तब पड़ेगा जब बोलने वाले को यह अहसास हो कि वह कुछ अनुचित तो नहीं बोल रहा। जैसे मीडिया के लिए यह कहा जाता है कि वह अपनी मर्यादा स्वयं निर्धारित करे, वैसे ही सांसदों और विधायकों से भी यह उम्मीद की जाती है कि वे बोलने से पहले अपने शब्दों को तोल लिया करें।

वैसे, अपेक्षा तो हर व्यक्ति से यह की जाती है कि वह तोल कर बोले, पर जनतांत्रिक व्यवस्था में इस बारे में भी हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों का आचरण बाकियों के लिए आदर्श होना चाहिए, लेकिन सदन में जिस तरह का अप्रिय व्यवहार अक्सर दिख जाता है, उससे यह शंका होनी स्वाभाविक है कि हमारे नेता अपने बोले गए के प्रति कोई सावधानी बरतने के लिए सजग भी हैं अथवा नहीं?

शोर-शराबा, नारेबाजी, टोका-टाकी आदि तो स्वाभाविक है, पर इसकी भी कोई सीमा तो होनी चाहिए। सीमा के अतिक्रमण को हम कई बार देख-सुन चुके हैं। हमने अपने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को एक-दूसरे पर शब्द से ही नहीं हाथों से भी हमले करते देखा है। यह कहना तो गलत होगा कि हमारे प्रतिनिधि हमेशा आपत्तिजनक व्यवहार करते हैं, लेकिन सही यह भी है कि कई बार सदनों में संवादहीनता की स्थिति सीमाएं लांघ जाती है।

इन सीमाओं का सम्मान होना चाहिए। संसद सड़क नहीं है। यूं तो सड़क पर भी व्यक्ति के व्यवहार की सीमाएं होती हैं, पर सदन के भीतर जो कुछ होता है वह आम नागरिक के लिए आदर्श व्यवहार का एक उदाहरण होना चाहिए। संसद के सदनों में, या विधानसभाओं में, जो कहा जाता है, जो किया जाता है, वह उच्चतम स्तर का होना चाहिए।

सदन में होने वाली बहस तथ्यों पर आधारित होनी चाहिए, शालीन होनी चाहिए। आज सवाल ‘चाहिए’ और ‘है’ के बीच के अंतर को समझने का है।
सदन के भीतर हमारे प्रतिनिधि जो कहते हैं जिस तरह की शब्दावली काम में लेते हैं, उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती। यह पीठासीन अधिकारी के विवेक पर निर्भर करता है कि वह किस शब्द को असंसदीय माने और उसे सदन की कार्रवाई से हटाने का निर्णय ले।

असंसदीय मानी जाने वाली शब्दावली भी पीठासीन अधिकारी के विवेक का ही परिणाम होती है। इस संदर्भ में अक्सर विवाद होता है। अक्सर सांसद या विधायक अपने कहे को अनुचित मानने को लेकर आपत्ति करते हैं। जुमलाजीवी या बालबुद्धि या विनाश पुरुष जैसे शब्दों पर प्रतिबंध को लेकर भी विवाद सामने आए हैं। अक्सर विपक्ष के सदस्यों की शिकायत यह रहती है कि शब्दों को असंसदीय घोषित करके बोलने के उनके अधिकार का हनन किया जाता है, एक तरह से उनका गला घोंटा जाता है।

संसद के चालू सत्र के दौरान भी ऐसी बात कही गई है। विपक्ष ने आरोप लगाया है कि “सरकार की वास्तविकता को उजागर करने वाले शब्दों को संसद की कार्यवाही से हटा दिया गया है।’’ लेकिन लोकसभा के स्पीकर का मानना है कि शब्दों पर प्रतिबंध लगाने और शब्दों को कार्यवाही से हटाने में अंतर होता है- “कोई भी सरकार संसद में बोले जाने वाले शब्दों पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती।’’

तकनीकी दृष्टि से देखा जाए तो स्पीकर का कहना सही लगता है, लेकिन सदस्य द्वारा बोले गए किसी शब्द को सदन की कार्यवाही से हटाए जाने का मतलब प्रतिबंध से कम भी नहीं है। सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष का एक-दूसरे के व्यवहार को अनुचित ठहराना स्वाभाविक माना जा सकता है, पर जब विपक्ष को यह लगता है कि वह सारे शब्द कार्यवाही के विवरण से हटा दिए गए हैं जो सरकार की वास्तविकता को सामने लाते हैं तो ‘असंसदीय शब्दों’ को हटाने की परिपाटी पर सवाल तो उठता है। 

कहते हैं कमान से निकला हुआ तीर और जबान से निकला हुआ शब्द वापस नहीं होता। किसी शब्द को असंसदीय या संसदीय घोषित करने से बात बनती नहीं है। कोई शब्द यदि निश्चित रूप से अनुचित है तो उसे बोलने वाले को यह अहसास होना चाहिए कि उससे गलती हुई है। ऐसा अहसास ही मर्यादाओं को परिभाषित भी करता है और उनके पालन को अर्थवान भी बनाता है।

यहीं इस बात को भी समझा जाना जरूरी है कि कुछ शब्दों को असंसदीय घोषित करना ही अनुचित का अहसास नहीं दिलाता। शायद संसद के हर सत्र से पहले लोकसभा सचिवालय पिछले सत्र के कथित असंसदीय शब्दों की सूची जारी करता है। कुछ तरीका ऐसा होना चाहिए कि ऐसी सूची जारी करने की आवश्यकता ही न पड़े- हमारे सांसद विधायक जो कुछ कहें-करें वह उचित आचरण का उदाहरण बने। क्या यह आशा करना कुछ ज्यादा चाहना है?

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