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विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण से उपजा आक्रोश

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: January 30, 2020 06:04 IST

वर्ष 1950 में हमने अपने लिए जो संविधान स्वीकार किया था वह गण की महत्ता और स्वायत्तता को स्थापित करने वाला एक पवित्र दस्तावेज है. हमारे प्रधानमंत्री इसे सबसे बड़ा धार्मिक ग्रंथ कहते हैं. आज सवाल इस ‘धर्म-ग्रंथ’ की मर्यादा की रक्षा का है.

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गणतंत्र दिवस की अगली सुबह. मुंबई की मेरी बस्ती के फुटपाथ पर लगभग तीन-चार साल की एक बच्ची अपनी गोद में एक छोटे-से बच्चे को लिये बैठी थी. अपने हाथ के छोटे-से तिरंगे से वह उस बच्चे को बहला रही थी. गणतंत्र दिवस की अगली रात उन दोनों ने इसी फुटपाथ पर अपने मां-बाप के साथ बितायी थी. उनकी हर रात वहीं बीतती है. खुले आसमान के नीचे. और हर रोज उन्हें अपने को, और अपनों को, बहलाने का कोई न कोई झुनझुना मिल ही जाता है-  जैसे आज यह तिरंगा मिला. एक बार मैंने देखा था, रात को कोई भला मानस फुटपाथ पर सोने वालों को कंबल ओढ़ा गया था. छोटे बच्चे को तिरंगे से बहलाने वाली उस बच्ची को देखकर मुझे, न जाने क्यों, दिल्ली के शाहीन बाग में प्रदर्शन करते लोगों के हाथ के तिरंगे याद आ गए. फिर यह भी याद आया कि लखनऊ के घंटाघर इलाके में पुलिस ने प्रदर्शनकारियों द्वारा ओढ़े गए कंबल छीन लिये थे.

वैसे मुंबई के उस फुटपाथ और शाहीन बाग में कोई रिश्ता नहीं है, सिवाय इसके कि दोनों जगह मुझे तिरंगा दिखा था. फुटपाथ पर वह बच्ची तिरंगे को झुनझुना बनाकर बैठी थी और शाहीन बाग में तिरंगा प्रतीक था हमारे भारत का. और रिश्ता यह भी था कि दोनों जगह तिरंगा भारत के नागरिक के हाथ में था- भारत गणराज्य के गण के हाथ में. और दोनों जगह यह गण आशंका में जी रहा है. कोशिश कर रहा है अपने आपको यह आश्वासन देने की कि कल बेहतर होगा.

सात दशक हो गए जब हमने स्वयं को गणतंत्र घोषित किया था- एक ऐसी व्यवस्था जिसमें गण अर्थात् नागरिक सर्वोच्च है. वह किसी राजा की प्रजा नहीं है, वह अपना भाग्य-विधाता स्वयं है. इसलिए उस गण का आशंकाओं में जीना चिंता की बात होनी चाहिए.

राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग या देश के कई अन्य शहरों में उभरते ‘शाहीन बागों’ में आशंकित गण ही तिरंगा हाथ में लेकर अपने भय से उबरने का प्रयास कर रहे हैं. गण का इस तरह उठना गणतंत्र के लिए निश्चित रूप से एक अच्छी बात है. आज देश में अलग-अलग जगहों पर हो रहे प्रदर्शन भले ही एक कानून विशेष के विरोध में हो रहे हों, पर सच्चाई यह है कि यह पीड़ा और गुस्सा जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं के क्षरण का भी परिणाम है. यह अपने आप में आश्वस्त करने वाली बात है कि आज देश में संविधान की रक्षा की बात हो रही है.

वर्ष 1950 में हमने अपने लिए जो संविधान स्वीकार किया था वह गण की महत्ता और स्वायत्तता को स्थापित करने वाला एक पवित्र दस्तावेज है. हमारे प्रधानमंत्री इसे सबसे बड़ा धार्मिक ग्रंथ कहते हैं. आज सवाल इस ‘धर्म-ग्रंथ’ की मर्यादा की रक्षा का है. यह विडंबना ही है कि संविधान के आमुख का पाठ आज एक चुनौती की तरह हो रहा है, एक तरह के विरोध का प्रतीक बन गया है. वास्तविकता तो यह है कि यह आमुख उतना ही पवित्र और महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए जितना राष्ट्र-गान. यह आमुख बताता है कि ‘हम भारत के लोग’ समता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुता के सिद्धांतों पर आधारित अपने संविधान की मर्यादाओं और प्रतिज्ञाओं से बंधे हुए हैं- हममें से हर एक का कर्तव्य है कि हम अपने संवैधानिक मूल्यों-आदर्शों का पालन करें. इस बात को समझ कर ही हम संविधान की रक्षा के किसी अभियान का महत्व समझ सकते हैं.

दुनिया का सबसे बड़ा लिखित संविधान है हमारा. समय-समय पर इसमें स्थितियों और आवश्यकताओं के अनुसार संशोधन भी हुए हैं. हाल ही में एक संशोधन करके नागरिकता कानून में कुछ जोड़ा गया है. देश की जनता का एक बड़ा वर्ग विशेषकर अल्पसंख्यक, इस संशोधन से आशंकित है. यह चिंता की बात है. चिंता की बात यह भी है कि सरकार के विरोध को देश का विरोध माना जा रहा है.

हमने जो प्रणाली शासन के लिए अपनायी है, उसमें बहुमत का शासन होता है. पर एक पेंच है इसमें. यहां बहुमत का मतलब आधे से अधिक नहीं होता. इसीलिए 37 प्रतिशत वोट पाकर भी भाजपा बहुमत में है. कांग्रेस की सरकारें भी ऐसे ही बनती रही हैं. इस व्यवस्था, और स्थिति में, ‘बहुमत’ वाली सरकार को यह समझना जरूरी है कि उसे बाकियों से अधिक वोट मिले हैं, पर बाकियों को मिला दिया जाए तो उन्हें मिले वोट अधिक हो जाते हैं. इसलिए विपक्ष के सम्मान की बात की जाती है. इसीलिए संसद में उचित बहस के बाद निर्णय लेने की व्यवस्था है. इसीलिए जतनंत्र में विपक्ष की महत्ता और आवश्यकता को सम्मान दिया जाता है. ऐसे में यदि कोई सरकार अपने उठाये कदम को प्रतिष्ठा का सवाल बना लेती है, या फिर अपने किसी एजेंडे को पूरा करने के लिए बहुमत के नाम पर कोई कार्रवाई करती है तो सवाल उठते हैं.

जनतंत्र में सरकार को इन सवालों का जवाब देना होता है, इन्हें दबाना नहीं होता. और यदि गण यानी नागरिक आंदोलित हैं तो उनकी भावनाओं-चिंताओं को समझने की आवश्यकता है, इसे वोट की राजनीति मात्र समझना सरकार की हठधर्मिता ही कहलायेगी. आज जो कुछ देश में हो रहा है, उसे राजनीतिक दलों का समर्थन भले ही हो, पर नेतृत्व कुल मिलाकर ‘गण’ के हाथ में ही है. तिरंगा गणतंत्र के गण ने उठाया है, इस बात का सम्मान होना चाहिए.

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