विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: वोटों के धार्मिक विभाजन की कोशिशें घातक

By विश्वनाथ सचदेव | Published: February 14, 2020 05:26 AM2020-02-14T05:26:24+5:302020-02-14T05:26:24+5:30

जहां तक मतदाता की समझ का सवाल है, उसने अपनी राय साफ कर दी है. लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भाजपा के अभियान को कोई प्रतिसाद नहीं मिला. देखा जाए तो ‘आप’ के काम और भाजपा के ‘शाहीन बाग’, दोनों पर मतदाता की नजर रही है और भाजपा को जितनी सफलता मिली है, उसमें इस ‘शाहीन बाग’ का निश्चित हाथ रहा है.

Vishwanath Sachdev blog: Attempts for religious division of votes are fatal | विश्वनाथ सचदेव का ब्लॉग: वोटों के धार्मिक विभाजन की कोशिशें घातक

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह। (फाइल फोटो)

हरियाणा और झारखंड के चुनावों में भाजपा ने यह माहौल बनाने की कोशिश की थी कि उसे मिले या दिए गए समर्थन का मतलब राष्ट्रभक्ति मान लिया जाए. आश्चर्य ही है कि राष्ट्रभक्ति की इस परिभाषा को मतदाता द्वारा नकारे जाने के बावजूद दिल्ली विधानसभा के चुनावों में भी भाजपा ने अपनी यह टेक नहीं छोड़ी. परिणाम सामने है. दिल्ली के मतदाता ने भी आम आदमी पार्टी के ‘काम’ के दावे को भाजपा के राष्ट्रभक्ति के ‘फार्मूले’ से अधिक महत्वपूर्ण माना है.

सच तो यह है कि भाजपा के नेतृत्व को यह सोचना पड़ेगा कि सबके विकास की बात करने और विकास कर के दिखाने में अंतर होता है. हालांकि, सिर्फ दिल्ली के चुनाव-परिणाम के आधार पर यह कहना भी पूरा सही नहीं होगा कि देश का मतदाता राष्ट्रभक्ति के भाजपा के फार्मूले को पूर्णतया नकार चुका है, फिर भी इससे यह संकेत तो मिल ही जाता है कि स्थिति वैसी नहीं है जैसी भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व समझ रहा था. देखना यह है कि भाजपा इस संकेत का क्या अर्थ निकालती है.

जहां तक मतदाता की समझ का सवाल है, उसने अपनी राय साफ कर दी है. लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भाजपा के अभियान को कोई प्रतिसाद नहीं मिला. देखा जाए तो ‘आप’ के काम और भाजपा के ‘शाहीन बाग’, दोनों पर मतदाता की नजर रही है और भाजपा को जितनी सफलता मिली है, उसमें इस ‘शाहीन बाग’ का निश्चित हाथ रहा है. बड़ी सोची-समझी रणनीति के तहत भाजपा के नेतृत्व ने चुनाव-प्रचार के आखिरी दौर में कथित राष्ट्रभक्ति वाला यह दांव चला था. सच तो यह है कि धर्म के आधार पर मतदाता को विभाजित करने की इस तरह की कोशिशें हमारी राजनीति का एक स्थायी भाव बनती जा रही हैं. यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है, खतरनाक भी.

नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे आंदोलन को राष्ट्र-विरोधी गतिविधि कहकर न केवल अपने राजनीतिक विरोधियों पर आरोप लगाया जा रहा है, बल्कि इस समूचे आंदोलन को, कहना चाहिए विरोध की आवाज को, कठघरे में खड़ा किया जा रहा है. होना तो यह चाहिए था कि इस जन-असंतोष को शांत करने के लिए भाजपा और सरकार, दोनों ईमानदार कोशिश करते दिखाई देते, पर दिखा यह कि कोशिश असहमति की आवाज को दबा कर उसका राजनीतिक लाभ उठाने की हो रही है.

भाजपा के नेताओं ने ‘शाहीन बाग’ में चल रहे आंदोलन को क्या-क्या नहीं कहा-  इसे पाकिस्तान-समर्थक बताया गया, राष्ट्र-विरोधी घोषित किया गया, शहरी नक्सलियों की करतूत नाम दिया गया. दिल्ली के शाहीन बाग की तर्ज पर देशभर में कई जगहों पर होने वाले आंदोलन की यह एक विशेषता रही है कि राजनीतिक दलों का समर्थन भले ही रहा हो, पर प्रदर्शनकारियों के हाथों में झंडा तिरंगा ही था. नारे वे संविधान की रक्षा के ही लगा रहे थे. स्वयं प्रदर्शनकारी ही अपने नेता थे. स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह अपने ढंग का पहला जन-प्रदर्शन है.

जनता के वोटों से चुनी हुई सरकार का दायित्व बनता था कि वह जनता की इस आवाज को सुनती. समस्या के समाधान की दिशा में ईमानदार कोशिश करती दिखाई देती. आखिर एक कानून के प्रति अपने संदेहों का इजहार ही तो कर रहे थे ये लोग. संदेह के निराकरण के बजाय, प्रदर्शनकारियों के इरादों पर सवालिया निशान लगाकर चुनावी लाभ उठाने की यह नीति जनतांत्रिक मूल्यों का नकार है. प्रधानमंत्री या गृह मंत्री न सही, सत्तारूढ़ पार्टी का कोई अन्य बड़ा नेता ही चला जाता प्रदर्शनकारियों को समझाने. आखिर वे देश के नागरिक ही तो हैं जो जनवरी की ठंडी रातों में खुले आसमान के नीचे अपनी चिंताओं की पोटली लेकर बैठे थे.

अब चुनाव बीत गए हैं. संभव है सरकार कुछ ठोस कार्रवाई करे. संभव है न्यायालय का हस्तक्षेप कुछ काम आए. संभव है शाहीन बागों  की विवशताओं को समझने की कोई सकारात्मक कोशिश हो. संभव है, समूची स्थिति को राजनीतिक नफे-नुकसान से उबरकर देखने की आवश्यकता किसी को लगे. पर नागरिकता संशोधन कानून के संदर्भ में देश में पिछले दो महीनों में जिस तरह नागरिकों की उपेक्षा हुई है और जिस तरह सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के सहारे राजनीति की रोटियां सेंकने की कोशिश हुई है, वह जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों का अपमान ही है.

वस्तुत: इस समूचे आंदोलन को एक सकारात्मक जनतांत्रिक कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि गलत तत्व ऐसी स्थितियों का गलत लाभ उठाने की कोशिश करते हैं. पर इस आशंका में पूरे आंदोलन को नकार देने की प्रवृत्ति जनतांत्रिक कसौटियों के संदर्भ में एक चिंता की ही बात है. देश की एकता को खतरा असहमति की आवाज या इस आवाज को उठाने वालों से नहीं है, खतरा उन प्रवृत्तियों और इरादों से है जो असहमति की आवाज उठाने के अधिकार को चुनौती दे रही हैं. आवश्यकता इन आवाजों को सुनने की है. यह दुर्भाग्य ही है कि इस दिशा में अबतक कुछ ठोस होता दिखाई नहीं दिया. उम्मीद की जानी चाहिए कि असंतोष और संदेह को दबाने के बजाय हमारी सरकार और हमारे नेता जनता के जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के प्रति सजग होंगे. यह समझेंगे कि असहमति की आवाज जनतंत्र की ताकत होती है.

Web Title: Vishwanath Sachdev blog: Attempts for religious division of votes are fatal

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