विशाला शर्मा का ब्लॉग: विकास के नाम पर आदिवासियों को किया जा रहा है बेघर
By विशाला शर्मा | Published: August 9, 2021 12:41 PM2021-08-09T12:41:35+5:302021-08-09T12:41:35+5:30
आदिवासियों का जीवन कठोर संघर्ष की महागाथा कहता है. साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आदिवासी समाज से गैरआदिवासी समाज लगभग अपरिचित रहा है.
भूमंडलीकरण की प्रक्रिया व धारणा के अनुसार सारा विश्व एक ग्लोबल गांव बन गया है. इस ग्लोबल गांव के रूप में देसी-विदेशी कॉकटेल विचारों की आंधी में, विकास के नाम पर हमने इस देश के मूल निवासियों की संपत्ति अर्थात जल, जंगल, जमीन और उनकी जिंदगी की बोली लगा दी है.
एक तरफ उदारीकरण की नीति को हमने सहर्ष अपनाकर विदेशी पूंजी को पूर्ण उदारता के साथ अपने देश में निवेश की अनुमति प्रदान की है तो दूसरी ओर इन निवेशकों के द्वारा देश के मूल निवासियों को अनुदारता व निर्ममता के साथ अपनी मां-माटी से निष्कासित कर दर-दर भटकने के लिए मजबूर कर दिया है. यह वास्तविक भूमंडलीकरण नामक सभ्यता से उपजी संस्कृति की त्रासदी है.
आदिवासियों का जीवन कठोर संघर्ष की महागाथा कहता है. साहित्यिक और सांस्कृतिक दृष्टि से आदिवासी समाज से गैरआदिवासी समाज लगभग अपरिचित रहा है. उसके द्वारा संस्कृति समृद्ध आदिवासी लोक जीवन को गहराई से जानने और समझने के लिए अधिक प्रयास नहीं किए गए.
इसके अलावा भारत जैसे विशाल देश में अन्य हाशिये के समाज की तरह आदिवासी समाज भी अपनी भौगोलिक स्थिति के चलते इतिहास के जंगलों में लगभग आत्मनिर्वासित रहा है. आदिवासियों ने अपने सहज सरल नैसर्गिक जीवन के विराट संसार में अपनी अलग से कोई विशेष जगह बनाने की कोशिश नहीं की है.
अंग्रेजों के आने के पहले तक उनकी जंगलों पर निर्भर एक सर्वथा स्वतंत्न और मौलिक जीवन पद्धति थी. उसमें पहली बार विध्वंसक हस्तक्षेप अंग्रेजी शासन ने किया. अपने चुने हुए नीम-अंधेरे उजाले में जी रहा आदिवासी समुदाय अचानक हड़बड़ा उठा. आज भी बिचौलियों की नजर प्राकृतिक खनिज पदार्थो पर है और यह संपत्ति उस भूमि पर है जहां आदिवासी रहते हैं.
इसीलिए उनकी जमीन के साथ-साथ उनकी जिंदगी भी अब खतरे में है और इसी के चलते वर्तमान समय में भारत के आदिवासी समुदायों के सामने उन्मूलन और अनुकूलन का खतरा मंडरा रहा है अर्थात एक ओर अस्तित्व का अंत तो दूसरी ओर अस्मिता को खोकर दूसरे धर्म अथवा संस्कृति और समाजों में विलय की घटना चिंता का विषय है.
प्रकृति से प्रेम करने और संचार स्थापित करने की समझ उन्हें जन्म से प्राप्त होती है. मौसम के मिजाज को इस देश के मूल निवासी बखूबी समझते हैं. डुगडुगी बजाकर आस-पास के गांव में संदेश भेजना, ध्वनि का परिवर्तन कर उत्सव और युद्ध की सूचना देने का हुनर प्रारंभिक काल से इनके पास रहा है.
आदिवासी परंपरा सतत विकसित होकर मूल्य बोध को पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित कर इसमें कुछ नया जोड़ती रही है. अपने विपरीत समय व संकट में वे अपने पूर्वजों का स्मरण कर उनसे प्रार्थना करते हैं. उन्हें ही अपना संरक्षक मानते हैं. अपनी खुशी के मौके पर उन्हें आमंत्रित करना भी नहीं भूलते. अपने पूर्वजों से प्रार्थना करते हैं कि उनकी फसल अच्छी हो, जंगल घना बना रहे, नदियां बहती रहें. दुख में भी मंगल मानना और अपनी विरासत को याद रखना उनकी आदत है.