विनीत नारायण का ब्लॉग: बेरोजगारी की बढ़ती समस्या
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: February 25, 2020 11:48 AM2020-02-25T11:48:55+5:302020-02-25T11:48:55+5:30
देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं. गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है. गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्र कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है, जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है. लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है.
पढ़े-लिखे युवकों की बेरोजगारी ज्यादा भयावह है. इसके साथ ही यह समस्या भी गंभीर है कि इस बेरोजगारी ने करोड़ों परिवारों को आर्थिक संकट में डाल दिया है. जिन युवकों पर उनके माता-पिता ने इस उम्मीद में पढ़ाई-लिखाई पर अपनी हैसियत से ज्यादा खर्च कर दिया था कि उनका बच्चा सब भरपाई कर देगा, उनकी हालत बहुत बुरी है, जिस पर गौर करना जरूरी है.
अनुमान है कि देश के हर जिले में औसतन डेढ़ लाख युवक या प्रौढ़ बेरोजगार की श्रेणी में हैं. गांव और शहर के बीच अंतर पढ़ाई का है. गांव के बेरोजगारों पर चूंकि प्रत्यक्ष निवेश नहीं हुआ, सो उनकी आकांक्षा की मात्र कम है और उसके पास भाग्य या अपनी भौगोलिक परिस्थितियों का बहाना है, जिसके सहारे वह मन मसोस कर रह सकता है. लेकिन शहर का बेरोजगार ज्यादा बेचैन है.
उधर गांव में न्यूनतम रोजगार के लिए ऐसा कुछ किया भी गया है कि कम से कम अकुशल और अर्धकुशल मजदूरों के बीच यह समस्या उतनी ज्यादा नहीं दिखती. उनकी मजदूरी की दर या उनके ज्यादा शोषण की बात हो तो सोच-विचार के लिए उसे किसी और समय के लिए छोड़ना पड़ेगा. यानी निष्कर्ष यही निकलता है कि पढ़े-लिखे बेरोजगारों की फौज हमारे सामने चुनौती बनकर खड़ी है.
सामान्य अनुभव है कि थोड़े-बहुत प्रशिक्षित बेरोजगारों को अगर काम मिल भी रहा है, तो वह काम नहीं मिल पा रहा है, जिस काम का उन्होंने प्रशिक्षण लिया है. देश में अगर औद्योगिक उत्पादन संकट में है, तो चीन और दूसरे देश अपने माल की यहां खपत के लिए पहले से ही तैयार बैठे हैं. लिहाजा हर जगह माल बेचने वाले युवकों की मांग है. परेशानी यह है कि माल बेचने वाले यानी सेल्समैन कितनी संख्या में खपेंगे? यह ठीक है कि हम अब तक मानव संसाधन विकास पर लगे रहे हैं, लेकिन जरा ठहर कर देखें तो समझ सकते हैं कि अब हमें मानव संसाधन विकास से ज्यादा मानव संसाधन प्रबंधन की जरूरत है और अगर कहीं मानव संसाधन विकास की जरूरत है भी तो कम से कम प्रशिक्षित व्यावसायिक स्नातकों की तो उतनी नहीं ही है, जितनी कुशल कामगारों की है.