विजय दर्डा का ब्लॉगः लोकतंत्र की जड़ें खोद रही है अपराध की राजनीति
By विजय दर्डा | Published: July 13, 2020 06:17 AM2020-07-13T06:17:24+5:302020-07-13T06:17:24+5:30
यूपी में मौजूदा 402 विधायकों में से 143 यानी 36 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज हैं. बिहार में 142 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. वहां ऐसे लोग मंत्री भी बने जो घोषित रूप से बाहुबली रहे हैं. वैसे उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर राज्य में अपराधियों, राजनेताओं, पुलिस और अधिकारियों का नापाक गठजोड़ बना हुआ है.
अपराध और राजनीति के गठजोड़ का मसला बहुत पुराना है बल्कि अब तो इसने और गंभीर रूप धारण कर लिया है. राजनीतिक रसूख वाले एक दुर्दात अपराधी विकास दुबे ने 8 पुलिस वालों को मौत के घाट उतार दिया तो देश भर में अपराध और राजनीति का गठजोड़ एक बार फिर चर्चा का विषय बन गया है. विकास दुबे चूंकि मारा गया इसलिए शायद ही कभी पता चल पाए कि वह कितने नेताओं के काम आ रहा था और कितने नेता उसके काम आ रहे थे! यह बात तो सामने आ ही गई है कि यूपी का चौबेपुर थाना विकास दुबे की गोद में खेल रहा था. पंचायत से लेकर जिला पंचायत तक में उसके परिवार का कब्जा था. शायद अगले चुनाव में वह विधायक भी बन जाता!
अपराध, राजनीति और अन्य प्रशासनिक संस्थाओं के नापाक गठजोड़ को लेकर एन.एन. वोहरा कमेटी ने 1993 में एक रिपोर्ट सौंपी थी. रिपोर्ट में कुछ ऐसे अपराधियों का जिक्र भी किया गया था जो स्थानीय निकायों, विधानसभाओं और संसद के सदस्य बन गए थे. दो साल तक कमेटी की रिपोर्ट को संसद में पेश ही नहीं किया गया. तभी 1995 में नैना साहनी हत्याकांड हुआ और सरकार पर वोहरा कमेटी की रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव पड़ा लेकिन केवल 12 पन्नों की सिलेक्टिव रिपोर्ट सार्वजनिक की गई जबकि वह रिपोर्ट 100 से ज्यादा पन्नों की है. उस रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि अपराधियों को स्थानीय स्तर पर राजनीतिक दलों और सरकारी पदों पर बैठे लोगों का संरक्षण मिलता है. ड्रग्स का व्यापार करने वाले भी इन गिरोहों से जुड़े हैं. माफिया गिरोहों और विदेशी एजेंसियों से भी इनका नापाक रिश्ता है.
1997 में जब कई संस्थाओं और सजग नेताओं ने सरकार पर दबाव डाला कि वोहरा कमेटी की पूरी रिपोर्ट सार्वजनिक की जाए तो सरकार कोर्ट चली गई. कोर्ट ने कहा कि रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता. इस तरह मामला ठंडे बस्ते में चला गया.
लेकिन यह सवाल आज भी लाजिमी है कि नेताओं, अपराधियों, अफसरों और पुलिस के बीच गठजोड़ को जड़ से खत्म करने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही है? इसका जवाब यह है कि राजनीति में पैठ बना चुके अपराधी और अपराधियों की रक्षा करने वाले नेताओं और अफसरों का गठजोड़ इतना मजबूत है कि मामला आगे ही नहीं बढ़ पाता. एक सिंडिकेट बना हुआ है. आंकड़े बताते हैं कि 2004 में 24 प्रतिशत सांसदों की पृष्ठभूमि आपराधिक थी जो 2009 में बढ़कर 30 प्रतिशत और 2014 में बढ़कर 34 प्रतिशत हो गई. मौजूदा लोकसभा में 43 प्रतिशत सांसदों के खिलाफ गंभीर किस्म के मामले दर्ज हैं.
यूपी में मौजूदा 402 विधायकों में से 143 यानी 36 प्रतिशत के खिलाफ आपराधिक केस दर्ज हैं. बिहार में 142 विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. वहां ऐसे लोग मंत्री भी बने जो घोषित रूप से बाहुबली रहे हैं. वैसे उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक हर राज्य में अपराधियों, राजनेताओं, पुलिस और अधिकारियों का नापाक गठजोड़ बना हुआ है. सभी जगह पंचायत से लेकर नगर निकायों और विधानसभाओं में आपराधिक छवि वाले लोगों की पैठ है. बिहार और यूपी में चूंकि जाति प्रथा का बोलबाला है इसलिए वहां पुलिस भी जाति के हिसाब से अपराधियों को संरक्षण देती है.
इन गंभीर परिस्थितियों पर न्यायपालिका कठोर टिप्पणी भी करती रही है. सितंबर 2018 में जनहित याचिकाओं की सुनवाई करते हुए तत्कालीन चीफ जस्टिस न्यायमूर्ति दीपक मिश्र की पीठ ने राजनीति के अपराधीकरण को लोकतंत्र के महल में दीमक करार दिया था. न्यायालय ने कई मौकों पर सरकार और राजनीतिक दलों को निर्देश भी दिए हैं कि राजनीति को अपराध से मुक्त किया जाए, लेकिन हकीकत यह है कि कोई भी राजनीतिक दल गंभीरता से प्रयास नहीं कर रहा है. राजनीतिक दलों की दलील रहती है कि जब तक किसी को सजा न हो जाए तब तक उसे टिकट से कैसे वंचित किया जा सकता है. बेशर्मी इतनी कि माफिया को टिकट न दे पाएं तो उसकी पत्नी को दे देते हैं.
अब तो ऐसा साफ लगने लगा है कि अपराधी राजनीति के हाथ से निकल चुके हैं. अपराधियों ने अपना बड़ा आर्थिक साम्राज्य खड़ा कर लिया है. हर तरह के बिजनेस पर इनका कब्जा है. रेती या मुरुम का मामला हो या फिर शराब का मामला, हर जगह अपराधियों का कब्जा है. इनकी मर्जी के बगैर कोई ठेका ले ही नहीं सकता. बहुत से अपराधियों ने टैक्सी और ट्रक के व्यवसाय पर कब्जा कर लिया है. ज्यादातर फैक्ट्रियों में यूनियन इन्हीं की है. बिहार और यूपी जैसे राज्यों में तो अपराधी हथियार के कारखाने चलाते हैं. ड्रग्स का धंधा हर राज्य को गिरफ्त में ले चुका है. निश्चय ही इसमें राजनीति का आश्रय है. राजनीति और अपराध को लेकर हमारे देश में तो कई फिल्में भी बन चुकी हैं लेकिन चमड़ी इतनी मोटी है कि कोई कार्रवाई नहीं होती. कार्रवाई की बात तो दूर, हमारी राजनीति सामाजिक और सांप्रदायिक सौहाद्र्र को तहस-नहस करने में अपनी सुविधा के अनुसार अपराधियों का सहारा भी लेती है.
हालांकि कई ऐसे आईएएस, आईपीएस और दूसरे अधिकारी भी हैं जो अपने स्तर पर अपराधियों पर नकेल कसने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ता है. उनके ट्रांसफर कर दिए जाते हैं. तरह-तरह से सताया जाता है. कुछ को तो अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ा है. वाकई अब तो सब ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा है. अब तो एक ही रास्ता नजर आता है कि आम आदमी इसके खिलाफ खड़ा हो और नेताओं तथा अधिकारियों पर इतना दबाव पड़े कि वे अपराधियों के साथ बैठें ही नहीं. न्यायालय भी स्वत: संज्ञान लेकर कार्रवाई करें.