विजय दर्डा का ब्लॉग: हमारे देश में पुलिस इतनी उपेक्षित क्यों है?
By विजय दर्डा | Published: May 6, 2019 06:07 AM2019-05-06T06:07:18+5:302019-05-06T06:07:18+5:30
अभी चुनाव का मौसम चल रहा है और आप मतदान केंद्रों से लेकर ईवीएम की सुरक्षा में लगे पुलिस के सतर्क जवानों को देख रहे होंगे. क्या आपको पता है कि इन जवानों को इस सख्त ड्यूटी के लिए क्या मानधन मिलता है? आंकड़ों की बात छोड़िए, बस इतना समझ लीजिए कि मतदान केंद्र पर ड्यूटी कर रहे एक चुनाव अधिकारी को मिलने वाली राशि का यह तीस प्रतिशत भी नहीं होता.
यदि आपसे पूछा जाए कि वह कौन सा सरकारी विभाग है जिस पर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी है और जो अपनी आवश्यक जरूरतों को लेकर सबसे ज्यादा परेशानी में रहता है तो एक ही नाम उभरकर सामने आता है. वह है पुलिस विभाग. यदि कोई अपराध हो जाए तो लोग बड़ी सहजता से पुलिस को कोसने लगते हैं. यह स्वाभाविक भी है क्योंकि आम आदमी पुलिस को बड़ी उम्मीद भरी नजरों से देखता है. वह मानकर चलता है कि पुलिस है तो सुरक्षा की पूरी गारंटी है. मैं जब पुलिस की बात कर रहा हूं तो इसमें विभिन्न राज्यों की पुलिस के साथ केंद्र के अधीन वाले अर्धसैनिक बलों की भी चर्चा कर रहा हूं.
पुलिस बल की उपेक्षा की पीड़ा मुझे हमेशा होती रही है. मैंने अपने संसदीय कार्यकाल में कई बार संसद में यह मसला उठाया है. इसे विडंबना ही कहेंगे कि अभी तक इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है. हकीकत यह है कि पुलिस बल के साथ लगातार दूूसरे दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है. अभी चुनाव का मौसम चल रहा है और आप मतदान केंद्रों से लेकर ईवीएम की सुरक्षा में लगे पुलिस के सतर्क जवानों को देख रहे होंगे. क्या आपको पता है कि इन जवानों को इस सख्त ड्यूटी के लिए क्या मानधन मिलता है? आंकड़ों की बात छोड़िए, बस इतना समझ लीजिए कि मतदान केंद्र पर ड्यूटी कर रहे एक चुनाव अधिकारी को मिलने वाली राशि का यह तीस प्रतिशत भी नहीं होता. सवाल उठना स्वाभाविक है कि यह नाइंसाफी क्यों? जाहिर सी बात है कि पुलिस के लोग चूंकि सुरक्षा जैसा महत्वपूर्ण काम कर रहे होते हैं तो उनकी जान को भी ज्यादा जोखिम होता है. उन्हें तो ज्यादा मानधन मिलना चाहिए! इतना ही नहीं उन पुलिसकर्मियों के लिए पीने के पानी जैसी सामान्य सुविधाएं भी मौजूद नहीं होती हैं.
दरअसल हमारे सिस्टम की हालत ऐसी हो गई है जहां पुलिस के प्रति नजरिया ही ठीक नहीं है. मैं विदेश में जब वहां की पुलिस को अप टू डेट और स्मार्ट देखता हूं तो मेरे मन में यह सवाल पैदा होता है कि हमारी पुलिस इतनी स्मार्ट और संसाधनयुक्त कब होगी? सच्चाई यह है कि हमारे देश में इस दिशा में सोच भी शुरू नहीं हुई है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि केंद्र और राज्य सरकार के बजट का केवल तीन प्रतिशत हिस्सा ही पुलिस पर खर्च होता है. कुछ राज्य तो 2 प्रतिशत से भी कम खर्च करते हैं. हम यह उम्मीद करते हैं कि पुलिस पूरी दक्षता के साथ अपना काम करे लेकिन सरकार इस बात पर ध्यान ही नहीं देती कि पुलिस पर काम का अतिरिक्त बोझ कैसे कम हो. पूरे देश का हिसाब लगाएं तो राज्य पुलिस बल में करीब 22 लाख 80 हजार पद स्वीकृत हैं लेकिन वास्तविक संख्या 17 लाख 30 हजार के आसपास है. करीब 24 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं. केंद्रीय बलों में स्वीकृत संख्या करीब 9 लाख 70 हजार है लेकिन इसमें से 7 प्रतिशत पद खाली पड़े हैं. हमारे यहां प्रति लाख पुलिसकर्मियों की संख्या केवल 150 के आसपास है जबकि संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार एक लाख व्यक्तियों पर 222 पुलिसकर्मी होने चाहिए.
आप यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि विभिन्न राज्यों की जो पुलिस है उसमें औसतन 85 प्रतिशत कांस्टेबल हैं. उनकी पदोन्नति के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं हैं. ज्यादातर वे हेड कांस्टेबल के पद से रिटायर हो जाते हैं. अच्छा प्रदर्शन करने के लिए कैसे प्रोत्साहित होंगे? वे जिन हालात में रहते हैं, वहां शायद ही कोई रहना पसंद करे. अब थानों की स्थिति सुधर रही है लेकिन पुलिसकर्मियों के क्वार्टर्स की हालत ज्यादा अच्छी नहीं हुई है. उनके काम के घंटे तय नहीं हैं. एक पुलिसकर्मी औसतन 12 से 14 घंटे तो काम करता ही है. हर जवान को सप्ताह में कम से कम एक दिन का अवकाश मिलना चाहिए लेकिन नहीं मिलता है. तनाव में वे कैसे बेहतर काम करेंगे?
केंद्र सरकार के अधीन वाले अर्धसैनिक बलों के साथ भी कम समस्याएं नहीं हैं. दूसरे दर्जे का व्यवहार तो उनके साथ भी हो ही रहा है. सीमा की रक्षा करते हुए या किसी नक्सली बेल्ट में तैनात जवान मातृभूमि के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देता है लेकिन उसे शहीद का दर्जा नहीं मिलता. सेना वाली सुविधाएं नहीं मिलतीं जबकि वे उन्हीं परिस्थितियों से गुजरते हैं. मैंने संसद में पूछा था कि यह नाइंसाफी क्यों? सरकार को इस पर विचार करना चाहिए कि हमारा पुलिस बल कैसे स्मार्ट बने. अच्छे संसाधन उसके पास हों, अच्छा काम करने पर रिवार्ड मिले तभी उन्हें महसूस होगा कि सम्मान मिल रहा है.
और अंत में..साध्वी प्रज्ञा के बाद लोकसभा अध्यक्ष सुमित्र महाजन ने शहीद हेमंत करकरे का अपमान किया है. उनकी इस हरकत के लिए देश कभी उन्हें माफ नहीं करेगा. सुमित्र महाजन से देश वैसे भी नाराज है क्योंकि उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष पद की गरिमा के अनुरूप काम नहीं किया. उनका स्तर नीचा था. इस पद पर बैठने वाला शख्स होता तो सत्तारूढ़ पार्टी का ही है लेकिन पद पर रहते हुए वह समभाव रखता है. सुमित्र महाजन विफल रहीं.