वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग: देश में कैसे सुधरेगी गरीबों की हालत?
By वेद प्रताप वैदिक | Published: November 29, 2021 01:07 PM2021-11-29T13:07:40+5:302021-11-29T13:09:57+5:30
विश्व गरीबी मापन संस्था के मानदंडों पर हम पूरे भारत को कसें तो हमें मालूम पड़ेगा कि भारत के 140 करोड़ लोगों में से लगभग 100 करोड़ लोग वंचितों, गरीबों, कमजोरों और जरूरतमंदों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं.
भारत में गरीबों की हालत बहुत चिंताजनक है. आजादी के 74 वर्षो में देश में अमीरी तो बढ़ी है लेकिन वह मुट्ठीभर लोगों और मुट्ठीभर जिलों तक ही पहुंची है. आज भी भारत में गरीबों की संख्या दुनिया के किसी भी देश से ज्यादा है.
हमारे देश के कई जिले ऐसे हैं, जिनमें आधे से ज्यादा लोगों को पेट भर रोटी भी नहीं मिलती. वे दवा के अभाव में ही दम तोड़ देते हैं. वे क ख ग भी न लिख सकते हैं, न पढ़ सकते हैं. मैंने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ आदिवासी जिलों में लोगों को नग्न और अर्ध-नग्न अवस्था में घूमते हुए भी देखा है.
रंगराजन आयोग का मानना था कि गांवों में जिसे 972 रु . और शहरों में जिसे 1407 रु . प्रति माह से ज्यादा मिलते हैं, वह गरीबी रेखा से ऊपर है. लेकिन यदि इन आंकड़ों को रोजाना आमदनी के हिसाब से देखें तो 35 रु. और 50 रु. रोज भी नहीं बनते हैं. इतने रुपए रोज में आज किसी गाय या भैंस को पालना भी मुश्किल है.
विश्व भर के 193 देशों वाली गरीबी नापने वाली संस्था का कहना है कि यदि गरीबों की आमदनी इससे भी ज्यादा हो जाए तो भी उसने जो 12 मानदंड बनाए हैं, उनके हिसाब से वे गरीब ही माने जाएंगे, क्योंकि कोरी बढ़ी हुई आमदनी उन्हें न तो पर्याप्त स्वास्थ्य-सुविधा, शिक्षा, सफाई, भोजन, स्वच्छ पानी, बिजली, घर आदि मुहैया करवा पाएगी और न ही उन्हें एक सभ्य इंसान की जिंदगी जीने का मौका दे पाएगी.
दूसरे शब्दों में व्यक्तिगत आमदनी के साथ-साथ जब तक पर्याप्त राजकीय सुविधाएं उपलब्ध नहीं होंगी, नागरिक संतोष और सम्मान का जीवन नहीं जी सकेंगे. सभी सरकारें ये सब सुविधाएं बांटने का काम भी करती रहती हैं. उनका मुख्य लक्ष्य तो इन सुविधाओं की आड़ में वोट बटोरना ही होता है लेकिन जब तक भारत में बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम का भेदभाव नहीं घटेगा, यहां गरीबी खम ठोंकती रहेगी.
शिक्षा और चिकित्सा, ये दो क्षेत्र ऐसे हैं, जो नागरिकों के मस्तिष्क और शरीर को सबल बनाते हैं. जब तक ये सबको सहज और मुफ्त न मिलें, हमारा देश कभी भी सबल, संपन्न और समतामूलक नहीं बन सकता. ऊपर दिए गए आंकड़ों के आधार पर आज भी आधे से ज्यादा बिहार, एक-तिहाई से ज्यादा झारखंड और उप्र तथा लगभग 1/3 म.प्र. और मेघालय गरीबी में डूबे हुए हैं.
यदि विश्व गरीबी मापन संस्था के मानदंडों पर हम पूरे भारत को कसें तो हमें मालूम पड़ेगा कि भारत के 140 करोड़ लोगों में से लगभग 100 करोड़ लोग वंचितों, गरीबों, कमजोरों और जरूरतमंदों की श्रेणी में रखे जा सकते हैं. पता नहीं इतने लोगों का उद्धार कैसे होगा, कौन करेगा?